अभी हाल ही में भारतीय संविधान को दोहरा रहा था तो अनुच्छेद 350 ‘क’ मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देखते ही मेरे मन में वर्षों से घर कर रहा एक सवाल हिचकोले खाने लगा सवाल था कि मेरी मातृभाषा क्या है? हिन्दी या कुछ और जिसका हमने कभी व्याकरण नहीं पढ़ा और न ही किसी मासाब ने लठ के दम पर सिखाया फिर भी जिसे सुनकर कान अनायास ही उस ओर रूख कर लेते हैं जिसे सुनकर कभी दिमाग ने अर्थ समझने को संघर्ष नहीं किया, तो क्या है मेरी मातृभाषा?
मुझे याद आता है चाौथी कक्षा में पढ़ते हुए ही एक बड़ी उपलब्धि हासिल हुई जब मालूम पड़ा कि हमारी मातृभाषा हिन्दी है उस दिन से हिन्दी की पैरवी करते नहीं थकते हमेशा ही गर्व से कहा करते हैं कि हमारी तो मातृभाषा है हिन्दी. दरअसल में यह उपलब्धि हमसे कहीं अधिक हमारे गुरूजनों की है, उन्होने हमें सिखा दिया कि मातृभाषा वो होती है जिसमें हम पढ़–लिख सकते हैं कभी भी हमें मातृभाषा का अर्थ समझाया ही नहीं गया.
यकीन मानिये स्नातक तक आते–आते हमारे गुरूजन, हमारे अग्रज, समाज किसी ने भी इस सवाल के जवाब में कहीं नहीं टोका, गलती उनकी भी नहीं थी क्योंकि उनको उनके अग्रजों एवं गुरूजनों ने वही रटा रखा था. हमेशा की तरह सवाल वही था हमारी मातृभाषा क्या है और हमारा जवाब हमेशा की तरह होता था हिन्दी. जब शब्द का अर्थ समझने लायक हुए तो स्नातक पार कर चुके थे कि मातृभाषा का माने होता है मां की भाषा वरना तो हम ने हिन्दी को आधिकारिक मातृभाषा मान ही लिया था.
बहरहाल! देर सबेर जब जान ही लिया कि मातृभाषा का अर्थ मां की भाषा था तो विचार किया कि मेरी ईजा ( मां ) ने कब हिन्दी बोली थी? आज से सात साल पहले जब तक मेरी ईजा जीवित थी तब तक कोई वाकया मुझे याद नहीं जबकि मेरी ईजा ने हिन्दी में बात की हो हिन्दी भाषा का प्रयोग तक भी किया हो. हाँ गाँव में मासाब ही थे जो सभी से हिन्दी में बात करते थे तो उन्हें वो जवाब दे देती थी पर वो भी हिन्दी में न होता था. सवाल फिर वही था का फिर मेरी ईजा ( मां ) की भाषा (मातृभाषा) हिन्दी कैसे हुई?
मुझे तो ये भी याद है कि हम राजकीय प्राइमरी पाठशाला के छात्र थे जिन्होनें हिचकते–हिचकते हिन्दी तब बोलनी सीखी जबकि 5 बरस में प्रथम बार पाठशाला में प्रवेश लिया. वहां भी हिन्दी में अगर कोई बात करता था तो वो इकलौते मासाब थे हम तो बस हूँ, हाँ, ना से ही शुरू कर सके थे हिन्दी.
अब सवाल यह है कि पाँच सालों तक जो भाषा मैंने बोली जिसके व्याकरण का अब तक भी ज्ञान नहीं हैं मुझे वो लम्बे–चैड़े संवाद जिनके सही या गलत होने की विवेचना कभी किसी ने नहीं की वो फिर कौन–सी भाषा थी? किसने सिखाई वो भाषा मुझे? चूँकि व्यक्ति का प्रथम विद्यालय घर होता और प्रथम शिक्षक मां तो शायद जो भाषा जो बोली मेरे मुँह से निकलती थी वो मेरी ईजा की भाषा थी जिसे मातृभाषा के चश्में से देखने पर एक बोली घोषित हो जाती है. न जाने कितने ही मुझ जैसे विद्यार्थी अब तक भी समझ रहे होंगे कि उनकी मातृभाषा हिन्दी ही है, जबकि यदा–कदा ही उनके परिवेश में हिन्दी का प्रचलन होता होगा. उन लोगों को जिनके यहां अब तक भी हिन्दी या तो सिर्फ कोई व्यक्ति शराब पीने के बाद बोली जाने वाली या फिर गाँव से बाहर रहने वाले लोगों या पढ़ने–लिखने वाले लोगों या टेलीविजन की भाषा है, मनोरंजन की भाषा है.
क्या जिसे मात्र एक बोली के रूप परिभाषित कर सीमित कर दिया गया जबकि उसका अपना व्याकरण, अपना वृहद साहित्य प्रचलित है, उसे मातृभाषा का दर्जा नहीं मिलना चाहिए, उन हजारों विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा के अधिकार से परिपोषित नहीं किया जाना चाहिए?
विभिन्न शिक्षाविदों, मनोविज्ञानियों एव वैज्ञानिकों के शोधों से प्रमाणित है कि मातृभाषा में शिक्षण सर्वाधिक फलदायी है, विशेष कर प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में मिलनी चाहिए. यही नहीं वर्ष 2009 में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाकर उसमें भी प्रावधान किया गया कि अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा का अधिकार 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मातृभाषा में दिया जाना चाहिए. एन.सी.आर.टी ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में जिन 5 प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धान्तों को अपनाया है इसमें मातृभाषा भी एक अहम बिन्दु है.
अब मेरा सवाल नीति नियन्ताओं से हैं कि आखिर क्योंकर पहाड़ में पैदा होने वाले बच्चे को उसकी मां की भाषा ( मातृभाषा ) में प्राथमिक शिक्षा देकर उसे गर्वान्वित करती. या फिर वही परिभाषा सही है कि हिन्दी ही हमारी मातृभाषा है? वो जो हमारी मां बोलती है उसका कोई अर्थ नहीं उसे मातृभाषा नहीं कहा जा सकता?
– भगवान सिंह धामी
मूल रूप से धारचूला तहसील के सीमान्त गांव स्यांकुरी के भगवान सिंह धामी की 12वीं से लेकर स्नातक, मास्टरी बीएड सब पिथौरागढ़ में रहकर सम्पन्न हुई. वर्तमान में सचिवालय में कार्यरत भगवान सिंह इससे पहले पिथौरागढ में सामान्य अध्ययन की कोचिंग कराते थे. भगवान सिंह उत्तराखण्ड ज्ञानकोष नाम से ब्लाग लिखते हैं.
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ये वाकई विमर्श का विषय है धामी जी ...आपने एक अत्यंत ही सामान्य परंतु महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है??
काफ़ी अच्छा लगा आपका लिखा हुआ लेख भगवान सर... 🙏
सरकार के कहने भर से या मास्साब के लठ के बल पर कोई मातृभाषा नही बन सकती यह नैसर्गिक होती हैं जो उसके घर क्षेत्र परिवेश मेरे बोली सुनी समझी जाती हैं
धामी जी, बहुत सुंदर तरीके से आप ने पहाड़ी भाषाओं के साथ हुए सौतेले पन को उजागर किया. ये हम पहाड़ियों का दुर्भाग्य है की हमें बहुत देर से पता चलता है की जिसे हम अपनी मातृ भाषा समझते है वो तो असल मै हमारी भाषा नहीं बल्कि सिखाई हुई है.
मै हिमाचल से हूं पर आप के इस लेख से अपने आप को जुड़ा पाता हूं. पहाड़ की बहुत सी बातें समान ही है।
AAPNE MATRABHASHA KE UPAR BAHUT ACHHA LEKH LIKHA HAI LEKIN NISHULK EVAM ANIVARYA SHIKSHA KA ADHIKAR 2009, SHIKSHA MATRABHASHA ME DI JANI CHAIYE AISA ULLEKH NAHI HAI