पिथौरागढ़ के कुमौड़ गांव में आज शाम हिलजात्रा का आयोजन किया जायेगा. हिलजात्रा पिथौरागढ़ में प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाला एक कृषि उत्सव है.
इसमें कोई बैल की जोड़ी बनता है, कोई हलिया बनता है, कोई पौधे रोपने वाला पुतरिया, कोई मेंड़ बांधने वाला बौसिया, कोई ग्वाला, कोई मछली पकड़ने वाला तो कोई कुछ. साथ ही कोई घोड़ा, बकरी, हिरन आदि पशुओं की भूमिका में भागीदार बनकर धान रोपने, हल चलाने, बैल हांकने, मछली पकड़ने, शिकार करने आदि का अभिनय करते हैं.
पशुओं का अभिनय करने वाले अभिनेता लोग अपने चेहरों पर लगाने वाले मुखोटे लकड़ी के बनाते हैं. ये नीचे शरीर में एक कच्छा पहनते हैं. ऊपरी शरीर में सफ़ेद मिट्टी पोत लेते हैं और उसपर काली सफेद धारियां या बूटे डाल देते हैं.
हिलजात्रा के अंत में ढोल नगाड़ों की उच्च ध्वनि के साथ लखियाभूत या लखिया देव का आगमन होता है. जब मैदान पर लखियादेव आता है उस समय मैदान पर केवल रोपाई करने का अभिनय करने वाली महिलायें ही अभिनय करती हैं शेष सभी मैदान से बाहर हो जाते हैं.
लखियादेव को शिव के प्रधानगण वीरभद्र का अवतार माना जाता है. मैदान आने वाले विशालकाय लखियाभूत की कमर में दो मोटे रस्से बंधे होते हैं जिन्हें पीछे से दो वीर थामे रहते हैं. उसके दोनों हाथों में काला चंवर और गले में बड़े-बड़े रुद्राक्ष की माला होती है. बिखरे बालों वाला लखियाभूत काले कपड़े पहनने की वजह से और भी अधिक भयावह दिखने लगता है.
सबसे पहले मुखिया समेत गांव के सयाने लोग देवताओं के चिन्ह से अंकित लाल झंडों एवं स्थानीय वाद्यों के साथ कोट से उत्सव स्थल तक आते हैं. इसके बाद स्वांग करने वाले लोग आते हैं. अंत में लखियादेव या लखियाभूत आता है जो मैदान में रोपाई और गुड़ाई का अभिनय कर रही महिलाओं की रोपाई-गोड़ाई अस्त-व्यस्त करने की कोशिश करता है. जिसपर महिलायें इसका आशीर्वाद प्राप्त कर उसे अक्षत-पिठ्य, पुष्प अर्पित कर शांत करने का यत्न करती हैं. लखियाभूत की शांति एवं आशीर्वाद के साथ ही इसकी समाप्ति होती है. उत्सव के दौरान लखियाभूत पूरे उत्सव क्षेत्र का चक्कर लगाता है और सभी को शुभाशीर्वाद देता हुआ वापस चला जाता है.
सभी तस्वीरें विनोद उप्रेती द्वारा 2016 की हिलजात्रा के दौरान ली गयी हैं.
प्रो. डी.डी शर्मा की पुस्तक उत्तराखंड ज्ञानकोष के आधार पर.
-काफल ट्री डेस्क
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