दो दिन पहले एक मित्र का एक दुकान में कुछ सामान खरीदने के दौरान पर्स छूट गया. मेरे मित्र दोबारा पर्स के बारे में पता करने दुकान में पहुंचे तो दुकानदार ने किसी पर्स के मिलने से साफ इन्कार कर दिया, जबकि मित्र का कहना था कि इस दुकान पर खरीददारी करने के बाद वो कहीं रुके ही नहीं और सीधा घर ही पहुंचे थे. लिहाजा कहीं और पर्स छूटने का सवाल ही नहीं उठता. हम यहां ये नहीं कह रहे कि दुकानदार की नीयत में कोई खोट है. हो सकता है कि काउंटर पर छूटे पर्स पर दुकानदार की नजर ही न पड़ी हो और किसी दूसरे ग्राहक ने ही उसे चुपचाप उठा जेब में डाल लिया हो. मेरे मित्र दो दिन से प्रतीक्षा कर रहे हैं किसी भले आदमी का फोन आ जाए कि अपना पर्स ले जाओ. हालांकि पर्स में नकदी के नाम पर सिर्फ 740 रुपये बाकी थे. मगर आधार कार्ड, वोटर आईडी, एटीएम कार्ड जैसे कुछ दस्तावेज जरूर ऐसे थे, जिन्हें बनवाने के लिए उन्हें अब कई दफ्तरों के कई-कई चक्कर लगाने पड़ेंगे. दस्तावेज तो खैर बन ही जाएंगे, लेकिन यह छोटी सी घटना बड़े होते हल्द्वानी के बदलते चेहरे की कहानी भी है. उसी हल्द्वानी की जिसमें तब ईमानदारी की एक बड़ी और बेमिसाल कहानी लिखी गई थी, जब ये शहर बेहद छोटा था. (Haldwani Uttarakhand Honesty Anecdote)
बेमिसाल ईमानदारी की ये कहानी चार साल पहले मुझे बरतन बाजार में अचानक मिले बनवारी लाल मिश्री वालों ने एक दुकान में बैठकर सुनाई थी. बात सात दशक से अधिक पुरानी है. शायद आजादी के दिनों के आसपास की. उन दिनों मंगल पड़ाव में शंकर लाल शाह की दुकानों में हरनाम सिंह चड्ढा अपनी बरतनों की दुकान लगाते थे. चड्ढा परिवार भारत-पाक विभाजन की त्रासदी का शिकार होकर हल्द्वानी पहुंचा था और नए सिरे से जिंदगी को बसाने के लिए जीतोड़ मेहनत में जुटा था. हरनाम सिंह चड्ढा का सात बेटों का भरा-पूरा परिवार था. साथ में एक बहन का परिवार भी था. रिहायश जेल रोड पर थी. रोज वहां से साथ में काम करने वाले दो लोगों के साथ हरनाम सिंह कांधे पर बरतन लादे मंगल पड़ाव तक आते और शाम तक मेहनत व ईमानदारी से जो हासिल होता, उसी से इतने बड़े परिवार का गुजर-बसर करते. गुरबत के दिन होने के बावजूद कभी ईमानदारी का रास्ता नहीं छोड़ा. कभी नीयत में खोट नहीं आने दिया. अगर ईमानदारी के रास्ते से तनिक भी डोले होते तो ये घटना नहीं घटी होती, जिसका हम आज यहां जिक्र कर रहे हैं. (Haldwani Uttarakhand Honesty Anecdote)
तो उन्हीं दिनों में एक दिन की बात है. शादी-विवाह का सीजन चल रहा था. हरनाम सिंह अपनी दुकानदारी में व्यस्त थे तो उसी बीच नैनीताल में कार्यरत एक सफाईकर्मी अपनी बेटी की शादी के लिए बरतनों की खरीददारी करने उनकी दुकान पर पहुंचा. मोलभाव किया, जरूरत भर के बरतन खरीदे. बरतनों का भुगतान किया और वापस नैनीताल की ओर चल पड़ा. उस व्यक्ति को यह नहीं मालूम था कि इस खरीददारी को करते हुए वो अपनी जमा पूंजी का एक बड़ा हिस्सा दुकान पर ही भूले जा रहा है और न ही हड़बड़ी में चड्ढा इस गलती को पकड़ पाए. दरअसल उन दिनों काफी बड़े आकार के करेंसी नोट चलन में थे. दस का नोट और सौ रुपये का नोट रुप, रंग व आकार में लगभग एक जैसा हुआ करता था. सफाईकर्मी को नैनीताल लौटने की हड़बड़ी थी और हरनाम सिंह को दूसरे ग्राहकों को भी निपटाने की जल्दबाजी, सो दुतरफा इस जल्दबाजी में दस के नोट के धोखे में सौ का नोट सफाईकर्मी की जेब से हरनाम सिंह के गल्ले में पहुंच गया, इसका पता दोनों को ही नहीं लगा.
शाम को दुकान बंद करते हुए जब हरनाम सिंह बिक्री का हिसाब लगाने लगे तो सौ का नोट देखकर चौंक पड़े. पूरे दिन में कोई ऐसी बिक्री ही नहीं हुई थी, जो इतने बड़े नोट का भुगतान करके जाती. काफी देर तक दिमाग पर जोर डालने के बाद उन्हें याद आया कि सबसे बड़ी बिक्री नैनीताल से आए सफाईकर्मी की थी और वही नैनीताल लौटने की जल्दबाजी में था. हो सकता है गलती से वही इस नोट को दे दिया गया हो. उस जमाने में सौ रुपये बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. तब एक रुपये में अढाई किलो बासमती के चावल आ जाया करते थे यानी सौ रुपये में अढाई क्विंटल चावल आ जाया करते थे. बासमती के मूल्य से ही तुलना करें तो आज के समय में यह रकम लगभग तीस हजार रुपये बैठती है.
हरनाम सिंह चाहते तो इस रकम पर कुंडली मारकर बैठ सकते थे और पूछे जाने पर मुकर जाते. लेकिन वो आज का नहीं, उस दौर का हल्द्वानी था. जिसमें हरनाम सिंह चड्ढा जैसे अनगिनत लोग रहा करते थे. हरनाम सिंह के जेहन में गरीब सफाईकर्मी की शादी की बात घूमने लगी और साथ ही ईमानदारी का जज्बा हिलोर मारने लगा. उन्होंने पूरे घटनाक्रम से शंकर लाल शाह जी को अवगत करवाया. शाह जी ने अगले दिन ही नैनीताल आदमी भेजकर उस सफाईकर्मी को ढूंढवा निकाला. उधर, सफाईकर्मी ऐन बेटी की शादी के वक्त सौ रुपये गुम जाने के विषाद में डूबा था. रुपये सुरक्षित होने की खबर मिली तो हर्षातिरेक में हल्द्वानी दौड़ा चला आया. हरनाम सिंह चड्ढा की दुकान पर पहुंचा. उसके थरथराते होंठों पर इतनी बड़ी रकम के वापस मिल जाने का धन्यवाद व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे, बस आंखों से झर-झर बहते आंसू इस पुनीत कार्य का आभार प्रकट कर रहे थे.
इसके साथ ही लिखी जा रही थी हल्द्वानी के पन्नों में ईमानदारी की वो बेमिसाल कहानी, जो आज भी बनवारी लाल जैसे बुजुर्गों के मुंह से यदा-कदा सुनने को मिल जाती है.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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ये 1984 या 85 की बात होगी जब में नैनीताल में पढ़ता था केन्फील्ड होस्टल में रहते हुए तल्लीताल के रेस्टुरेंट नयना में रात का खाना खाया और हड़बड़ी में पर्स वहीं छूट गया,रात को होस्टल में पहुंच कर पर्स का ध्यान आया,अब बड़ी चिंता कि क्या होगा उसमे पैसे और अन्य कागज थे,सुबह रेस्टोरेंट पहुंचकर परिचय देते हुए पूछा मालिक ने संतुष्ट होने पर पर्स लौट दिया,ये घटना अभी भी जहन में रहती है।
बहुत सुंदर चंद्रशेखर जी धन्यवाद
नई पीढ़ी को जागरूक करने के लिए इस तरह की पहल जरूरी है। शानदार लेख सर। उम्मीद है आगे भी इसी तरह के मोटिवेशनल लेख पढ़ने को मिलते रहेंगे।
बहुत बढ़िया संस्मरण
ईमानदारी से ही ये दुनिया कायम है सरदार चड्डा जी जैसे लोगो का आज नाम आ रहा है तो ये उनकी ईमानदारी का ही प्रतिफल है