बीसवीं शताब्दी के पहले साल में अपर गढ़वाल में आधुनिक शिक्षा की अलख जगाने वाले इसी ख्याति प्राप्त विद्यालय में छायावादी कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल भी पढ़े थे. यहाँ के सुदीर्घ बांज-वृक्षों को वो अपनी कविताओं में आत्मीयता से याद करते हैं- वे बांज पुराने पर्वत से, वो हिम-सा ठण्डा पानी. सघन बांज-बुरांश के वनप्रांतर में कोई खतरा रहा होता तो अवश्य ही महाकवि की कविताओं में प्रतिबिम्बित होता. इसी सघन वनप्रांतर से प्रतिदिन पाँच किमी एक तरफ चल कर मैं भी स्कूल पहुँचा करता था. दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी किसी जंगली जानवर से भिड़ंत का कोई किस्सा याद नहीं आता. प्रत्यक्ष या परोक्ष दर्शन अवश्य हो जाते थे. भमोरे पकने के सीजन में अतिरिक्त सावधानी रखनी पड़ती थी, भालुओं से सुरक्षित दूरी बनाये रखने की. उनके आगमन की आशंका भर से भमोर-वृक्षों से दूर हो जाना होता था और यह भी जरूर सावधानी रखते थे कि आवागमन एकाकी न हो.
(Guruji or Jonk Devesh Joshi)

स्कूल लगभग 2200 मीटर की ऊँचाई पर था, जहाँ की ठण्डी जलवायु जोंक के अनुकूल नहीं थी. इस तरह से उसे जोंक-प्रकोप-मुक्त स्कूल कहा जा सकता है. इसका मतलब ये भी नहीं कि स्कूल का सारा सेवित क्षेत्र ही जोंक-प्रकोप-मुक्त हो. ऐसा हो भी नहीं सकता था क्योंकि सेवित क्षेत्र बहुत बड़ा था, लगभग दस किमी की परिधि में फैला हुआ. इसी परिधि में कुछ गाँव थे जहाँ की जलवायु अनुकूल होने से जोंक खूब हुआ करते थे. अपने गाँव पर भी प्रकृति की मेहरबानी से जोंक थेरपी मुफ़्त में उपलब्ध थी. विविधता में एकता का साक्षात्कार ऐसे विद्यालयों में भी खूब हुआ करता है. कोई चीड़-वन से होकर आता था तो कोई बांज-बुरांस के सघन वन से होकर. किसी के गाँव की ख्याति सेब-नाशपाती को लेकर है तो किसी के संतरा-प्रजाति के फलों को लेकर. जोंकों से जूझने का अनुभव भी गिने-चुने गाँवों के हिस्से था, इसलिए स्कूल में जोंकों को लेकर कुछ मजे़दार घटित होने के किस्से कम तो थे पर दुर्लभ नहीं.

उस दिन गुरूजी ने सफेद पैंट पहनी हुई थी. जब वे ब्लैक बोर्ड पर लिखने लगे तो उनकी हिप पर असामान्य-सा लालिमा लिए हुए धब्बा दिखायी दिया. पहले तो छात्रों ने इशारों से एक-दूसरे का ध्यानाकर्षण किया, फिर किसी उत्साही छात्र ने गुरूजी की गुडलिस्ट में आने की चाहत में कह दिया – गुरूजी, आपकी पैंट पर पीछे से एक धब्बा जैसा दिखायी दे रहा है. चूंकि धब्बा ऐसी जगह था जिसका गुरूजी स्वयं निरीक्षण नहीं कर सकते थे इसलिए गुरूजी ने इन्वेस्टिगेशन पद्धति का सहारा लिया. धब्बा किस रंग का है? ताज़ा है या पुराना? साइज़ क्या है? बाहर से है या अंदर से? गुरूजी की इन्वेस्टिगेशन चल ही रही थी कि मैंने कहा, गुरूजी मुझे तो जोंक लग रहा है. गुरूजी ने मेरी आशंका को सिरे से खारिज़ कर दिया, असम्भव कहके.

गुरूजी का तर्क था कि इस स्कूल में नौकरी करते हुए उन्हें दस से अधिक साल हो गये हैं और उन्होंने कभी जोंक ज़मीन पर भी नहीं देखा है, और न ही जोंक ने उनके पाँव के अंगूठे तक को स्पर्श किया है. साथियों से सुनी जोंक विषयक बातें भी उन्हें तत्समय याद आयी जिनमें एक में भी जोंक के घुटनों से ऊपर के क्षेत्र में लगने की बात नहीं थी. इस बीच एक-दो छात्रों ने गुरूजी के पृष्ठ-प्रदेश का नज़दीक से मुआयना करके बताया कि गुरूजी धब्बा लाल रंग का है और बहुत संभावना है कि खून का ही हो. एक ने पूछा, गुरूजी कोई फोड़ा-फुंशी तो नहीं था? गुरूजी ने इस आशंका को भी सिरे से खारिज़ करते हुए कहा कि, मैंने जेब में लाल पेन रख दी होगी और वही लीक हो गयी होगी. अनावश्यक इन्वेस्टिगेशन से ऊबते हुए मैंने कहा कि गुरूजी जोंक है जोंक. अब अन्य साथी छात्रों को भी मेरी बात में दम नज़र आने लगा था. सभी ने मिल कर कहा गुरूजी एक बार पैंट खोल कर देख ही लो. जोंक होगा तो दिख जाएगा और नहीं होगा तो भी संतुष्टि हो जाएगी. हालांकि, उस परिस्थिति में इससे बेहतर सलाह नहीं दी जा सकती थी, फिर भी गुरूजी का प्रोटोकॉल आड़े आ गया. बोले क्या बात करते हो, मैं स्कूल में खुले-आम पैंट खोलूंगा. तुम्हें मालूम है प्रधानाचार्य का चार्ज़ भी मेरे ही पास है. पैंट नहीं खोली जा सकती है.
(Guruji or Jonk Devesh Joshi)

मैंने कहा, गुरूजी! जोंक के लिए प्रधानाचार्य या शिक्षक के लिए कोई कंसेशन नहीं होता है. उसके लिए हर मानव शरीर एक-जैसा होता है. गुरूजी ने अपनी तर्क-मेधा से सवाल किया कि जब स्कूल और मेरे निवास के पूरे रास्ते में जोंक होते ही नहीं हैं तो फिर जोंक की संभावना तो पहली नज़र में ही खारिज हो जाती है. गुरूजी गणित पढ़ाते थे और अचानक सेट थ्योरी की रौ में बह गये. जोंक डजन्ट बिलॉंग टू द सेट ऑफ पॉसिबल रीजन्स ऑफ द स्पॉट. पैंट उतारने में हर्ज़ ही क्या है गुरूजी? सबने एक साथ कहा. बंद कमरे की तो बात है और क्लास में कोई लड़की भी नहीं. इस पर भी गुरूजी किंकर्त्तव्यविमूढ़ बने रहे तो मैंने गुरूजी के पैंट-मोह और अर्जुन के युद्धक्षेत्र के मोह में समानता जान कृष्ण-शैली में कहा – पैंट उतारने के फलस्वरूप आपको या तो जोंक से मुक्ति मिलेगी या जोंक की अफवाह से मुक्ति. दोनों ही दशाओं में लाभ आपका ही है. दोनों ही दशाओं में हानि की वृद्धि को रोका जा सकता है. पैंट उतार कर अगर जीवन बचता हो तो निस्संकोच बचा लेना चाहिए. गुरूजी का पैंट-मोह तो अर्जुन से भी बढ़ कर निकला. किसी अस्त्र का प्रयोग न होते जान कर मैंने ब्रह्मस्त्र का प्रयोग किया – गुरूजी जिस जोंक ने ज़मीन से इतनी ऊँचाई का सफ़र कर लिया है उसके लिए आगे कोई कर्फ्यू थोड़े ना लगा है. वो आगे कोई भी राह पकड़ सकता है. गुरूजी ने संभावित राहों को क्षण भर के लिए विचारा और लगभग आवेश में आकर कहा, ठीक है, पैंट खोलते हैं. फिर खुद ही होश में आते हुए कहा कि पूरी पैंट नहीं खोलूंगा. बस इतनी की प्रभावित क्षेत्र का मुआयना किया जा सके.

गुरूजी ने जैसे ही पैंट ढीली करके कुछ नीचे खिसकायी तो लगभग पाँच-सात सेमी का हट्टा-कट्टा जोंक गुरूजी के पृष्ठ प्रदेश के दक्षिणी गोलार्द्ध में नज़र आ गया. सभी समवेत स्वर में चिल्लाये -जोंक ही है गुरूजी. गुरू-रक्त-चूषक अपराधी की सूचना देने के उत्साह में हम ये भी भूल गये थे कि इस तरह सूचित करने से गुरूजी को हार्ट अटैक भी आ सकता था. खैर, हार्ट अटैक तो ईश्वर की दया से नहीं आया पर नृत्य अटैक जरूर आ गया. गुरूजी कक्षा में उछल-उछल कर बचाओ, हटाओ करने लगे. इस उछलकूद में वो अपनी ही शर्त को भूल कर पूरी पैंट उतार गये. रेस्क्यू के अगले चरण में जोंक को खींच कर अलग किया जाना था, पर तत्सम्बंधी विशेषज्ञता किसी के पास न थी. मेरे पास अनुभव तो था पर इतनी हिम्मत नहीं. इसलिए सलाह दी कि कागज़ से पकड़ कर जोंक को खींचने में कोई ख़तरा नहीं है – न ही गुरूजी को और न ही खींचने वाले को. एक साथी ने हिम्मत दिखा कर ऐसा ही किया. जोंक तब तक इतना ख़ून पी चुका था कि स्वयं ही अपने बोझ से गुरुत्वाकर्षण का सत्यापन करके दिखाने वाला था. आसानी से ही बिना दर्द दिये उसने गुरू-पृष्ठ-प्रदेश पर अपना अनैतिक कब्ज़ा छोड़ दिया. एक कागज़ का टुकड़ा गुरू-पृष्ठ-प्रदेश के उस हिस्से पर फर्स्ट एड के रूप में चिपका दिया गया, जहाँ से जोंक ब्लड-सप्लाई ले रहा था, और अब जहाँ से रक्त बहते हुए एक रेखा-सी बना रहा था.

परजीवी प्राणियों में जोंक-सा चतुर दूसरा कोई नहीं होता है. रक्त-पिपासु भी उसके जैसा दूसरा नहीं. जोंक-सा कौन दूसरा जीव है जो अपना सकर किसी प्राणी के शरीर में प्रविष्ट कराने से पहले एनस्थेटिक इंजेक्ट करता है, ताकि उसे दर्द न हो. फिर एंटीकॉग्लेंट भी इंजेक्ट करता है ताकि थक्का न बने और निर्बाध रक्त-प्रवाह से मेज़बान को किसी तरह के चूषक-झटके न लगें.

गुरूजी को जोंक-दर्शन कराने से पहले हमने गुरूजी की पैंट को यथास्थिति में व्यवस्थित किया और गुरूजी के शांतचित्त हो जाने पर उन्हें जोंक के दूर से दर्शन कराये. गुरूजी ने ईमानदारी से कहा, डर अब ज्यादा लग रहा है. उनकी आँखों में हम छात्रों के लिए कुछ ऐसे भाव थे कि मेरे प्यारो! गुरू-ऋण से मुक्त हुए तुम आज. जोंक को क्या सजा दी जाए इस पर हिंसा और अहिंसा के आधार पर पहले कक्षा में मतभेद था. फिर सर्वसम्मति इस आधार पर बनी कि किसी अहिंसक की उदारता ने ही जोंक को स्कूल परिसर में जीवनदान देकर छोड़ा होगा. एक बार फिर से जीवनदान का मतलब किसी और गुरूजन की पैंट उतारे जाने की आशंका. किसी धूम्रपानी गुरूजी से एक अदद बीड़ी मांग कर लायी गयी, प्रधानाचार्य जी के नाम पर. तम्बाकू की प्रतिक्रिया से जोंक-शरीर से प्रवाहित रक्त को देख कर गुरूजी का गणितज्ञ फिर से जाग गया. कम से कम पचास मिलीलीटर खून तो पिया ही होगा इस कम्बख्त ने. एक बूँद खून बनने में…

बताते हैं कि राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड में जोंक थेरपी इतनी लोकप्रिय हुई है कि लागत तेरह गुना बढ़ गयी है. अपने शिष्यों को सीख देते हुए मैं भी कभी कह देता हूँ कि ज्ञान ग्रहण करने के लिए जोंक बन जाओ पर नौकरी पर लगने के बाद सिस्टम के लिए जोंक मत बनना. केंचुवा बनना केंचुवा, जो अपने परिवेश से मिट्टी लेता है और उसे क़ीमती खाद में बदल कर लौटाता है. दिवंगत गुरूजी की स्मृति को सादर नमन. कहते हैं कि पत्थर को जोंक नहीं लगती. जिनको भी लगी, निश्चित ही उनके शरीर में कोमलता है, तरलता है. अगर, एक भी जोंक किसी को, कभी भी लगी हो तो वो ब्लड डोनर्स की श्रेणी में शामिल हो जाता है. क्या फर्क पड़ता है कि ब्रैकिट में फोर्स्ड भी लिखा हो.
(Guruji or Jonk Devesh Joshi)

देवेश जोशी 

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), शोध-पुस्तिका कैप्टन धूम सिंह चौहान और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

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