किसानी और बूबू का अनुभव

बूबू (दादा जी) की उम्र नब्बे पार कर चुकी है. इस देश की आजादी की उम्र से ज्यादा बूबू को जिंदगी का अनुभव है. देश की आजादी से लेकर इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी व राजीव गाँधी की हत्या से लेकर उत्तराखंड के निर्माण व नरेंद्र मोदी के न्यू इंडिया तक को उन्होंने बेहद करीब से देखा व सुना है. आज की तारीख में ऑंख कम देखते हैं लेकिन टीवी में आने वाले समाचारों को सुनना नहीं छोड़ते. एक जमाना था जब बूबू के पास फिलिप्स का रेडियो हुआ करता था जिस पर हर शाम आने वाले समाचारों के माध्यम से वो देश में होने वाले हर घटनाक्रम पर अपनी पैनी नजर बनाए रखते थे.
(Grandfather and Agriculture in Uttarakhand)

चम्पावत जिले के सिरना करौली गॉंव से पलायित होकर बूबू अस्सी के दशक में परिवार सहित मैदानी क्षेत्र (तराई-भाबर) में आ गए. शुरूआती कुछ सालों तक पहाड़ों व मैदानी क्षेत्र के बीच आना-जाना लगा रहा. पहाड़ों में ज्यादा ठंड पड़ी तो भाबर आ गए और भाबर में ज्यादा गर्मी पड़ी तो वापस पहाड़ों की ओर चल दिये. इस आने जाने के बीच सिर्फ पेट पालने की चिंता ज़हन में रहती थी. कई पहाड़ी लोग तो पहाड़ जाने के चक्कर में तराई में उपजाऊ बनाए अपने खेत-खलिहान छोड़-छाड़ के यूँ ही चले जाते थे. बूबू कहते हैं कि “जमीन जोड़नेकि तस के मंशा ना भै नाती. पहाड़ जनै ऐसी नराई लागनि भै कि भाबर में मने ना लागनि भै” (जमीन जोड़ने की ऐसी कोई मंशा नहीं हुई नाती. पहाड़ जाने की ऐसी तलब लगती थी कि भाबर में मन ही नहीं लगता था). “हमूलि वी जमान में भाबर में जमीन जोड़िया हुनि त आज कतिप एकड़ों क मालिक हुना” (हमने उस जमाने में भाबर में जमीन जोड़ी होती तो आज कितने ही एकड़ों के मालिक होते).

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) व आसपास का तराई क्षेत्र उस जमाने में जंगल हुआ करता था. आबादी क्षेत्र तो लगभग न के बराबर था. कुछ सिक्ख जो संभवतया देश के बँटवारे के बाद इस क्षेत्र में बसने आ गए थे वो ही इन जंगलों के आसपास रहा करते थे. धीरे-धीरे जंगलों की कटाई शुरू हुई और लोगों ने खेती के लिए जमीन बनाना शुरू कर दिया. तब जंगल की जमीन कब्जाने में कोई रोक-टोक नहीं थी. जंगलों के बीच रहना ही अपने आप में हौसले की बात थी. तराई में पहले से रह रहे तमाम लोगों ने जंगलों को काट काटकर उपजाऊ जमीन में तब्दील कर दिया. पहाड़ों से आने वाले पहाड़ी लोग सिक्खों की जमीन पर काम करते थे और सीजन में हुए गेहूं या धान में से अपनी हिस्सेदारी लेकर वापस पहाड़ों को चले जाया करते थे. बूबू बताते हैं कि तब सरदार कहा भी करते थे कि पंडित जी कुछ जमीन आप लोग भी क्यों नहीं जोड़ लेते? कब तक यूँ ही पहाड़ों का आना-जाना करते रहोगे?

“तब कै पत भै नाती कि इन जमीन एक दिन सुनै भौ बेचिलीन” (तब किसे पता था नाती कि ये जमीनें एक दिन सोने के भाव बिकेंगी). हम लोग सरदारों से कह देते कि भाबर में रहना हमारे बस की बात कहॉं हैं सरदार जी. यहॉं तो गरम ही बहुत होने वाला हुआ. हमारे लिए तो पहाड़ ही ठीक हुए. जाड़ों में यहॉं से खाने-पीने का सामान ले ही जाते हैं. इसके अलावा और क्या चाहिये?

पहाड़ छोड़ने की ऐसी भी क्या मजबूरी थी पूछने पर बूबू कहते हैं: पहाड़ में कोई रुकता भी तो कैसे नाती! तब की तो छोड़ आज भी करौली में हमारे पैतृक घर तक पक्की सड़क नहीं पहुँची है. न अस्पताल हुए न बच्चों के लिए स्कूल. कई मील चलकर तो बच्चे पढ़ने स्कूल जाते थे. रोजगार के नाम पर बस लीसा निकालने या फिर लकड़ी चिरान का काम हुआ. खेती-पाती खूब हुई लेकिन उत्पाद को बेच पाना शून्य हुआ.
(Grandfather and Agriculture in Uttarakhand)

लेकिन बूबू पहाड़ के उपजाए खाद्यान्न के लिए तो ये तराई के लोग तरसते रहते हैं फिर पहाड़ की खेती क्यों बर्बाद हुई? पूछने पर बूबू कहते हैं: “पहाड़ में कि ना हुन्नि भै नाती” (पहाड़ में क्या नहीं होने वाला हुआ नाती!). मंडुवा, गहत, भट्ट, सोयाबीन, भांग, नारंग, पूलम, काफल, गलगल तो उस टाइम अथाह होने वाला हुआ. लेकिन इन सबको बेचने का बाजार कहीं नही ठैरा. बाजार में बेचने भी जाओ तो औने-पौने दाम में भी कोई खरीद ले तो गनीमत हुई. पूरे उत्तराखंड (तब का उत्तर प्रदेश) में ऐसी कोई मंडी नहीं हुई जहॉं पहाड़ों में उत्पादित इन उत्पादों को बेचा जा सके. नारंग और पूलम तो पेड़ में ही सड़ जाने वाले हुए.

धीरे-धीरे लोग तराई की तरफ आ गए और जमीनें बंजर हो गई. बाद के टाइम में तो जंगली जानवरों और बंदरों ने फसल बर्बाद करनी शुरू कर दी जिस वजह से बची खुची खेती भी जाती रही. हमारे पैदा किये अनाज के लिए हमें कभी बाजार या सही रेट मिल गया होता तो हम आज भी पहाड़ों में ही होते और पहाड़ आबाद होते. आज भी पहाड़ के संतरे, पूलम, मंडूवा, गहत की दाल पहाड़ों में कोई औने-पौने दाम में भी नहीं खरीदता लेकिन पहाड़ों से नीचे पहुँचते ही ये सब उत्पाद बढ़िया पैक करके बड़ी-बड़ी दुकानों में सैकड़ों रूपए किलो में बिकते हैं.

पहाड़ों को लेकर सरकारों के निर्मोह व हमारी मजबूरियों के चलते पहाड़ छूटते गए और समय बीतने के साथ ही हमारा पहाड़ों में आना-जाना भी कम होता गया और हम परिवार के साथ तराई-भाबर आ गए. कुछ साल सिक्ख परिवारों के बीच रहकर खेतीबाड़ी का काम किया और उसके बाद अपने स्थायी निवास के लिए नानकसागर डैम के पार ऐचता गॉंव में बस गए. गॉंव में झोपड़ी बनाकर रहने लगे व दूध दही की पूर्ति के लिए कुछ मवेशी पाल लिए. धीरे-धीरे मेहनत कर एक-डेढ़ एकड़ जमीन जोड़ी और उसमें खेती करने लगे. इस तरह जिंदगी का गुजर बसर होता रहा.

बचपन से जवानी और आज बुढ़ापे तक भी बूबू ने मेहनत को ही अपना सबसे मजबूत अस्त्र बनाकर रखा. तराई में बसने के बाद भी जीवन भर या तो मवेशियों के साथ लगे रहे या फिर खेतीबाड़ी में मशगूल. बूबू कहते हैं दुनिया में सबसे कठिन काम है उगाना. उस जमाने में बैलों से खेती करना, खेत को समतल करने के लिए पटेला लगाना, रात-रात भर खेत की सिंचाई करना और नीलगाय जैसे जानवरों से फसलों को बचाने के लिए ठिठुरती ठंड में दिन-रात पहरा देने के बाद जमीन कुछ उगलती थी.

आज समाचार चैनलों में किसानों को लेकर चल रहे हो-हल्ले को सुनकर बूबू सोचते हैं कि जब तक पहाड़ों में रहे तब भी किसानी घाटे का सौदा थी और बाद में जब तराई आकर खेती करने लगे तब भी घाटे का ही सौदा रही. उस जमाने में एक एकड़ के खेत में 6 महीने की मेहनत के बाद यूरिया, कीटनाशक, खरपतवार नाशक व सिंचाई आदि का खर्च निकालने के बाद खाने भर का अनाज बच पाता था. तब भी बाजार का यही हाल था. किसान हमेशा कर्ज के बोझ तले ही दबा रहता था. गेहूँ और धान का कोई सरकारी मूल्य नहीं था. बनिये रेट तय करते थे और जो रेट वो तय कर देते उसी रेट पर हम बेच आते थे. फसल बेचने के बाद सबसे पहला काम कर्ज और उधार चुकाने का होता था. इस देश का किसान कभी भी उधार की जिंदगी से बाहर नहीं आ पाया.
(Grandfather and Agriculture in Uttarakhand)

एमएसपी को लेकर बूबू कहते हैं “एमएसपीक हल्ल आज सुन्नयॉं यार. हमूँ के पत ना भै एमएसपी-वैमसपीक” (एमएससी का हल्ला तो आज सुन रहे हैं यार. हमें कुछ पता नहीं हुआ एमएसपी-वैमसपी का). रेडियो में कभी सुनते थे कि देश में हरित क्रांति आ रही है जिससे फसल की पैदावार बढ़ेगी और किसानों को खूब फायदा मिलेगा. “हमूँत के काव फैद ना भय” (हमें तो रत्ती भर फायदा नहीं हुआ). हॉं बाद-बाद में सुनते थे कि हरित क्रांति का फायदा सबसे ज्यादा पंजाब और हरियाणा को पहुँचा. उन्नत बीज, उन्नत तकनीक जैसी बातें तो हम सिर्फ रेडियो की कृषि वार्ता में सुनते थे. खेती की उन्नत तकनीक का हम तक पहुँचना तो छोड़ो, हमारे खेतों की मिट्टी की जॉंच तक कभी नहीं हुई और न ही कभी हमें खेती का महत्व बताया गया. अपने अनुभव से जितना मन आया यूरिया और मसेटी (कीटनाशक) हम खेत में छिड़क आते. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के छोटे किसानों के पास जमीनें ही इतनी कम थी कि वो बैल, हल और पटेले से आगे सोच ही नहीं पाते थे. देश में न जाने कितनी ही सरकारें बदलीं लेकिन नहीं बदली तो किसान की हालत. किसान को न तो आधुनिक खेती के गुर सिखाए गए और ना ही खेती को उद्योगों जैसा बढ़ावा दिया गया. किसान को नेताओं ने हमेशा चुनावी मौसम में याद किया और उसके बाद भूल गए.

किसानी में गुजर बसर बहुत मुश्किल हुआ नाती. इससे तो नौकरी ठीक हुई यार. कम से कम हर महीने की तनख़्वाह तो आने वाली हुई. धीरे-धीरे लोग किसानी इसीलिए तो छोड़ रहे हैं. आज कौन सा किसान कहता है कि मेरा बेटा आगे चलकर किसान बनेगा! किसान खेत में आज भी काम कर रहा है तो सिर्फ इसलिए कि पढ़ा-लिखा कर अपने बच्चों को नौकरी करने लायक बना सके. किसान कि जय सिर्फ नारों तक ही ठैरी. बाकी तो किसान मरता-हारता ही आया है और आज भी अपने हकों के लिए सड़कों में लड़ रहा है और मर रहा है.

कमलेश जोशी

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

(Grandfather and Agriculture in Uttarakhand)

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago