प्रजापति और मास्टरों के घंटों में इतनी शरारत नहीं करता था, जितनी पंडित श्रानंदरन साहित्य-शास्त्रीजी के घंटे में. वे जब लड़कों की कापियाँ शुद्ध करते थे, तब लड़के उनकी मेज को चारों ओर से घेर लेते थे. वे जब सिर कुछ नीचा कर अपनी कलम चलाते थे, तब उस समय प्रजापति उनके सिर के ऊपर अपने दोनों हाथों से भाँति-भाँति की शक्लें बनाया करता था. लड़के दाँतों को मिलाकर हँसी रोक लेते थे जो नहीं रोक सकता था, वहीं पिटता था.
(Govind Ballabh Pant Stories)
प्रजापति कभी-कभी उनकी टोपी से बाहर आई हुई चोटी के सिरे को भी खींच लेता था. उस दिन वह अपना क्रोध नहीं सँभाल सकते थे, और जो सामने पड़ा, उसी पर डंडा जमा देते थे. उस समय प्रजापति सबसे सीधे लड़के का मुंह लेकर हिंदी की किताब खोलता था और कोई कठिन शब्द या वाक्य खोजकर पंडितजी से उसका अर्थ पूछता था. पंडितजी खिन्न होकर कहते थे- जाओ, जाओ, इस समय अपनी जगह पर बैठो, पढ़ते समय बताऊँगा! खबरदार! कोई अपनी जगह से उठा, तो फिर वही डंडा. एक-एक कर मैं जिसका नाम पुकारूं, वही भावे.” उस दिन फिर वही क्रम चलता था.
प्रजापति दरजे की अंतिम पंक्ति में बैठता था. कभी जब कोई मास्टर उसके आगे के विद्यार्थी से प्रश्न पूछता था, तब प्रजापति बड़ी सफाई से अपने डेस्क के नीचे से पैर बढ़ाकर उसका स्टूल पीछे खींच लेता था. क्या मजाल कि जरा भी शब्द हो जाय. बैठते समय बह विद्यार्थी गिर पड़ता और सारा दरजा एक साथ हँस उठता था ! मास्टर साहब बहुत गंभीर हुए, तो हँसी को खाँसी में लीन कर लेते थे, नहीं तो लड़कों के साथ हँसकर कहते- जगह देखकर बैठो जी, क्या हो गया तुम्हें?
(Govind Ballabh Pant Stories)
छुट्टी होने से पहले कभी वह किसी का कोट डस्टर से स्टूल पर बाँध देता था. कापी का पेज इस तरकीब से फाड़ता था कि उसमें एक लंबी धारी निकल पाती थी. आलपीन की मदद से उसे किसी लड़के के वस्त्र में जड़कर पूंछ-सी बना देता था या कभी-कभी कागज पर “भाड़े के लिये” अथवा “विक्रयार्थ” लिखकर गोंद से लड़कों की पीठ पर चिपका देता था. छुट्टी होने पर वह लड़का आगे-आगे जाता था, और उसके पीछे-पीछे तालियाँ पीटते हुए, शोर मचाते हुए और लड़कों का दल.
वह बड़े-बड़े मास्टरों के आने पर भी स्टूल से डेढ़-दो इंच ऊँचा उठता था. पंडित श्रानंदरत्नजी का आना-जाना उसके लिये एक सामान्य बात थी, वह उस ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था.
समस्त दरजे के लड़के उससे डरते थे. जो उसकी चुगल खाता, स्कूल के बाद उसी की खबर ली जाती. उसका तमाम होम-टास्क उसके दरजे के लड़कों को ही करना पड़ता था. जब मास्टर दरजे में उससे प्रश्न करता था, तब सारा दरजा काना-फूसी कर उसे उत्तर बताता था. उसके दाई और बाईं ओर जो लड़के बैठते थे, उनका तो यह विशेष कर्तव्य ही था.
प्रजापति हर घंटे में बाहर जाने की छुट्टी माँगता था. शास्त्रीजी के घंटे में तो उसे बिना पूछे ही कहीं चले जाने का लाइसेंस मिला हुआ था. इस छुट्टी का उपयोग वह हेडमास्टर साहब की स्थिति से अवगत होने, दफ्तर की घड़ी में समय देखने तथा चौकीदार के झोपड़े की ओट में जाकर सिगरेट पीने में करता था. सिगरेट पीकर वह लौंग चबाता और उसकी दुर्गन्ध दबाकर दरजे में चला आता था . इसी अवसर में छिपकर वह कभी-कभी बाजार तक हो आता था.
हेडमास्टर का कौन घंटा कहाँ है, यह उसे खूब याद था. नया समय-विभाग बनने पर वह सबसे पहले यही देखता था कि हेडमास्टर साहब के कौन-कौन से घंटे खाली हैं. उन घंटों में वह बड़ा सावधान रहता था क्योंकि उन घंटों में हेडमास्टर साहब को, बिल्ली के पैर लेकर, खिड़कियों से दरजों में झाँकने की भी आदत थी.
(Govind Ballabh Pant Stories)
प्रजापति के पिता नगर के सुप्रसिद्ध व्यापारी थे. रुपया पैसा पर्याप्त था. लड़के को इंट्रेस पास कराने की उन्हें जरा भी चिंता न थी. प्रजापति को साल के अंत में किसी प्रकार प्रोमोशन मिल ही जाता था. स्कूल में कोई भी मास्टर ऐसा न था, जो प्रजापति का प्राइवेट ट्यूटर न रह चुका हो.
पंडित आनंदरत्न शास्त्रीजी किसी को गुरु-भक्ति का उपदेश देकर, किसी को परीक्षा की असफलता का भय दिखाकर, किसी को धमकाकर और किसी को अपने डंडे से काबू में किए रहते थे. पर प्रजापति पर उनका कोई भी मंत्र नहीं चलना था. वह उनके धमकाने पर हँस देता था, उनके मारते वक्त बेत पकड़ लेता था. पंडितजी गंभीर होकर कहने लगते- तुम्हें कुछ भी तो शर्म नहीं प्रजापति. तुम्हारे पिता के पास बहुत धन है. कुछ पढ़ लेते, तो व्यर्थ नहीं जाता. नहीं पढ़ना है, तो न सही. दूसरे सहपाठियों के सामने क्यों बुरा नमूना रखते हो? क्यों उनका समय नष्ट करते हो? पर यह उपदेश गरम तवे के ऊपर का जल-बिंदु था, जो उसमें गिरते ही नष्ट हो जाता था. यह कमल-पत्र के ऊपर का जल-बिंदु था, जिसका उस पर गिरकर भी कुछ असर ही नहीं होता था.
पंडित आनंदरत्नजी प्रजापति के ऊपर अपना प्रभाव खो बैठे थे, इसके कई कारण थे. उन्हें प्रजापति के घर से पेट-भर निमंत्रण मिलते थे, मुट्ठी-भर दक्षिणा मिलती थी, यह एक कारण था. शास्त्रीजी को खैनी खाने की आदत थी. स्कूल में जब कभी उनका तम्बाकू या चूना या दोनों बोल जाते थे, तब प्रजापति हेडमास्टर की नजर बचाकर चुटकियों में वह सब कुछ बाजार जाकर ले आता था, यह दूसरा कारण था.
(Govind Ballabh Pant Stories)
मिस्टर सी० पी० सनलाइट साहब उस मिडिल स्कूल के हेडमास्टर थे. चमड़ा गेहुँए रंग का. सन् 1912 में इंट्रेस में फेल हुए, फिर पढ़ा नहीं. पर प्राइवेट परीक्षा पास करने की आशा कर उसी स्कूल में असिस्टेंट मास्टर हो गए. कुछ महीने बाद विवाह किया और कुछ वर्ष बाद अपने गुरु की बदौलत हेडमास्टरी का भार सिर पर रखने को मिल गया. अंग्रेज पादरियों के साथ संबंध होने के कारण खूब अच्छी अँगरेजी लिखते और बोलते थे. वेश और भोजन भी वैसा ही था. तवे पर सिकी रोटियाँ और दाल उनके पिताजी ही छोड़ चुके थे.
वह सिर की माँग, पतलून की क्रीच और बूट की पालिश पर विशेष ध्यान रखते थे. कोट के रंग की टाई पहनते थे. उनके चश्मे का नंबर शून्य था, और वह अपने सौभाग्य की संख्या सत्रह बताते थे. उनकी बैठक में बैठने के लिये कुर्सियाँ थीं . बैठक के सामने की दीवाल में राफेल की ‘शिशु और माता’ की अच्छी बड़ी तस्वीर लटकती थी. यह उन्हें स्वदेश लौटते समय एक पादरी साहब उपहार दे गए थे. इसके अतिरिक्त और भी कई छोटे बड़े आकृति और प्रकृति के चित्र उनके यहाँ थे. मेज के पास रिवॉलिंवग बुकशेल्फ था. उसमें बाइबिल, शेक्सपियर, मिल्टन, स्कॉट के अतिरिक्त शिक्षा-शास्त्र और स्कूल-प्रबंध पर भी अनेक पुस्तकें थीं . भोजन और शयन के कमरे भी अलग अलग सुसज्जित थे.
(Govind Ballabh Pant Stories)
मिस्टर सनलाइट साहब पढ़ाने में प्रवीण, प्रबंध में दक्ष और शासन में चतुर थे. स्कूल ठीक समय पर आते-जाते थे, और हिसाब-किताब अप-टू-डेट रखते थे. स्कूल के सात घंटों में वह पहले चार घंटे पढ़ाते थे. एक घंटा ऑफिस का काम देखते थे, एक घंटा स्कूल के निरीक्षण का था, और एक घंटा उनके अवकाश का था. आफिस में उन्हें एक क्लर्क भी मिला हुआ था. उनके अंतिम तीन घंटे प्रायः दफ्तर में ही बीतते थे. उस समय वह हिसाब-किताब की जाँच करते थे, टाइप-राइटर खटखटाकर स्कूल का पत्र व्यवहार करते थे. निजी पत्र भी वह वहीं लिखते थे, और उनका दैनिक पत्र भी वहीं खुलता था.
सालाना परीक्षा निकट थी. बीच में एक सोमवार था, दूसरे सोमवार से आरंभ थीं. वह सनीचर का दिन था . प्रजापति के दरजे में शास्त्रीजी थे. स्कूल का अंतिम घंटा था. शास्त्रीजी उसमें हिंदी पढ़ाते थे. आज श्रुत लेख की बारी थी. शास्त्रीजी ने उसे लिखाकर एक बार फिर दुहराया. इसके बाद तमाम लड़के कापियाँ लेकर भड़-भड़ करते हुए उठे, और उनके सामने मेज पर उनका ढेर लगा, उन्हें घेरकर खड़े हो गए. प्रजापति के कुछ वाक्य छूट गए थे. उसने अपने पास के एक लड़के की कापी रोक ली और उसमें से नकल करने लगा. उसने नकल कर दोनों कापियाँ उठाई और शास्त्रीजी की मेज की ओर चला. वहाँ पहुँचकर उसने अपनी दृष्टि शास्त्रीजी की ओर स्थिर की . कापियों के ढेर के बीचों-बीच अपना हाथ डालकर कुछ कापियाँ ऊपर को उठाई, चुपचाप बीच में वे दोनों कापियाँ खिसका दी.
इसके बाद वह सबसे अगली पंक्ति के बीच के डेस्क पर बैठ गया, और जेब से विलायती मिठाई निकाल-निकालकर खाने लगा. पंडितजी के चारों ओर लड़कों का परदा था. हेडमास्टर को मैनेजर साहब के बंगले को ओर जाते हुए उसने देख लिया था.
कई तरह की गोलियाँ, जो मुँह में घुलते-घुलते रंग बदलती थीं, औरेंज-लेमन-ड्राप्स आदि कई प्रकार की मिठाइयों से वह जेब भर लाता था. वह बीच-बीच में उन्हें खाता और खिलाता रहता था. वह एक तरह की पिपरमिट की टिकियाँ भी लाता था. उनके बीच में अँगरेजी-वर्णमाला का एक-एक अक्षर भी अंकित होता था. शास्त्रीजी के सामने बह बेधड़क उन्हें मुँह में डालता जाता था. वह जब उसे खाने से मना करते थे, तो उनसे कहता था- पंडितजी, यह विलायती मिठाई है, जलेबी नहीं है, क्या आप देखते नहीं, इसके बीच में अक्षर छपे हैं. यह खाते वक्त पढ़ी जाती है और पढ़ते समय खाई जाती है. वह एक टिकिया उनके सामने रखकर कहता- लीजिए, आप भी इसे पढ़िए और चखिए. इसमें है क्या, चीनी और पिपरमिंट. इससे धर्म न जायगा. यह गले को साफ करती है कि पढ़ने में उच्चारण स्पष्ट हो. इससे साँस और हवा सुगंधित होती है कि आस-पास के लड़कों का भी मन पढ़ने में लगा रहे .
(Govind Ballabh Pant Stories)
वह मिठाई खाते-खाते इधर-उधर मित्रों की ओर भी फेंकने लगा. वे उसे हाथों से चूम-घूमकर मुख में रखने लगे. कई लड़कों का ध्यान उसकी ओर बँट गया. वे पंडितजी की ओर से आँखें फेर-फेरकर उससे मिठाई माँगने लगे. लोचन उससे मिठाई माँगता-माँगता थक गया था, पर उसने उसे एक टुकड़ा भी नहीं दिया था. एक बार “ले” कहकर उसने उसकी ओर मिठाई फेकने की कृति प्रकट की थी. लेकिन उसके हाथ पसारने पर झट दूसरे की ओर फेक दी. इसी प्रकार एक बार और उसने लोचन को ठगा. फिर लोचन ने उसकी ओर नहीं देखा और पंडितजी की तरफ अटल ध्यान लगाया.
प्रजापति ने कई बार उसे मिठाई का प्रलोभन दिया, पर लोचन ने न उसकी ओर अपनी दृष्टि की, न हाथ ही बढ़ाया. प्रजापति ने अंतिम बार लोचन से कहा- विद्या की शपथ, इस बार जरूर दूंगा. ले लोचन ! सालाना परीक्षा में मेरे आस-पास तेरी सीट हुई, तो बतावेगा न? लोचन ने मानो सुना ही नहीं . उसकी कापी शुद्ध हो चुकी थी, उसमें एक भी गलती नहीं मिली थी. प्रजापति ने फिर कहा- ले, लेता क्यों नहीं? इस बार धोखा दूँ, तो कभी विश्वास ही न करना.
लोचन ने अपने दोनों कानों में अपने दोनों हाथों की तर्जनियाँ कोच ली. उसके प्रजापति की ओर के हाथ में उसकी कापी भी थी. प्रजापति को यह अवहेलना अच्छी न लगी. उसने “अरे ले” कहकर एक मिठाई की गोली खींचकर उसके हाथ से मारी.
(Govind Ballabh Pant Stories)
लोचन के उसी हाथ में अँगूठे के पास हॉकी की स्टिक लगी थी. वह घाव अभी बिलकुल पूरा नहीं हुआ था, पर लोचन ने पट्टी खोल दी थी. उसी घाव पर प्रजापति का निशाना लगा. लोचन ने चीत्कार छोड़ी- दैया रे दैया. उसके हाथ से उसकी कापी मेज़ की दिशा में गिर पड़ी. उसने कान के पास हाथ को कई बार झटककर दूसरे हाथ से उसकी कलाई दबाई.
उसके हाथ से जब कापी छूट रही थी, उसी समय दरजे का मॉनीटर पंडितजी के लिखने के लिये दूसरी दावात मेज़ पर रख रहा था. कापी उसी के हाथ पर गिरी और उसके हाथ की दावात उस खुले हुए हाजिरी के रजिस्टर पर पड़ी, जिसका टोटल जोड़ते हुए शास्त्रीजी ने दरजे में प्रवेश किया था. उनका टोटल मिला नहीं था. इसी से वह रजिस्टर उन्होंने खुला हुआ ही मेज़ के एक ओर रख दिया था.
मॉनीटर ने रजिस्टर को बचाने के मतलब से उठाया. दावात कुर्सी की ओर बल खाती हुई शास्त्रीजी की गोद मे गिर पड़ी. दावात से बिखरी हुई रोशनाई ने शास्त्रीजी के रजिस्टर में भी छायाचित्र बनाया, और उनके सफेद कोट, कुरते और धोती में भी बेल-बूटे काढ़े.
सबसे पहले उन्हें रजिस्टर की चिंता करनी पड़ी. क्योंकि महीने के अंत में उन्हें हेडमास्टर साहब की ओर से हर काट कूट पर धमकियाँ और हर दाग-धब्बे पर फटकारें मिलती थी. उन्होंने उसी क्षण रजिस्टर पर पड़ी रोशनाई के उपर खड़िया की बत्ती फेर दी, और उसे बंद कर दिया. फिर क्रूद्ध हो डंडा हाथ में लेकर घुमाया और सबसे बैठ जाने को कहा. सब लड़के कूदते और शोर मचाते हुए अपनी-अपनी जगह चले गए. प्रजापति सबसे पहले पहुँच चुका था.
(Govind Ballabh Pant Stories)
इसके बाद शास्त्रीजी ने बोर्ड की खूटी पर से झाड़न निकाला. उससे मेज पर गिरी रोशनाई पोछ डाली. कपड़ों पर के धब्बे सूख चुके थे. मॉनीटर लोचन के पास खड़ा उसे धीरज दे रहा था. उसने अपने रूमाल से उसके आँसू पोछ डाले थे. घाव केवल दुख गया था, उससे रक्त नहीं निकला था.
अब शास्त्रीजी ने मेज़ पर डंडा पटककर कहा- बोलो, यह शरारत किसने की?
सब लड़कों से पहले बड़ी आवाज़ में प्रजापति ने कहा- हम नहीं जानते.
फिर सब लड़कों ने उसी का अनुकरण किया. लोचन भी प्रजापति के डर से इस प्रकार चुप खड़ा था, मानो उत्पादी लड़के को जानता ही न था.
शास्त्रीजी ने फिर पूछा- मॉनीटर, तुम बताओ, इसका हाथ किसने दुखाया, दावात किसने गिराई.
मॉनीटर ने कुछ लज्जित होकर कहा- पंडितजी, दावात तो गिरी मेरे हाथ से है, पर उसे मैंने नहीं गिराया. किसी ने मेरे हाथ के ऊपर कापी फेक दी, जिससे वह रजिस्टर पर गिर पड़ी.
शास्त्रीजी को फिर रजिस्टर की याद आई, और फिर उन्हें सनलाइट साहब की धमकियों का खयाल हुश्रा. उन्होंने ज्वालामय होकर कहा- अच्छा, नहीं बताओगे तुम? कापी किसने फेकी?
प्रजापति मन-ही-मन कह रहा था- वाह, क्या निशाना मारा है. लोचन का हाथ, फिर इस हाथ की कापी, दावात, रजिस्टर, मेज और पंडितजी के कपड़े. वह इस गड़बड़ में अनुपम आनंद ले रहा था और ईश्वर से बार-बार यही मनाता था कि हे परमेश्वर ! हेडमास्टर साहब आज अब स्कूल में न आवें . उसके हिसाब से स्कूल की आखिरी घंटी अब तक बज जानी चाहिए थी, पर उसे समय बड़ा लंबा मालूम देने लगा.
(Govind Ballabh Pant Stories)
लोचन ने कहा-“पंडितजी, कापी मेरे हाथ से गिरी . उसे मैं अपने चोट लगे हुए हाथ में थामे था. हाथ के दुखने पर कापी अपने आप उससे गिर पड़ी . मेरा उस पर बस ही नहीं रहा.
हेडमास्टर साहब बड़ी देर हुई तभी लौटकर आ गए थे. वह आकर कुर्सी पर बैठे-बैठे – स्टेट्समैन के पन्नों पर ऊँध रहे थे. उनका क्लर्क इंस्पेक्टर साहब की किसी पूछ-ताछ का उत्तर मशीन पर खटखटा रहा था.
“दैया रे ! दैया !” की चीत्कार सुनकर हेडमास्टर साहब का दिवा-स्वप्न भंग हुआ. वह अखबार दूर रखकर उठे और बेत हाथ में लिया. दरजे में अपना पाठ न सुनाने वाले लड़के को हेडमास्टर साहब इतना बुरा न समझते थे, जितना उसमें अनियम और अशांति फैलाने वाले को गिनते थे. ऐसे अवसर पर वह उसे खूब पीटने में जरा भी संकोच न करते थे. फिर भी. इसकी सीमा थी. प्रजापति उस सीमा के बाहर था. प्रजापति के ऊपर वह सोच-समझकर ही बेत छोड़ते थे, उसकी आई हुई शिकायतों को यों ही टाल जाते थे.
उन्होंने कुछ देर तक आफिस से ही शास्त्रीजी के दरजे की घटना सुनी . जब उन्होंने मामले को गंभीर और शास्त्रीजी को दोषी का पता लगाने में अक्षम समझा, तब वह उस दरजे की ओर चले. प्रवेश-द्वार पर पहुँचते ही उन्होंने चारर जल्दी-जल्दी बेत की चोटें मारकर तीव्र स्वर में कहा “ऑर्डर, ऑडर. खामोश. क्या मामला है?”
सब लड़के स्तब्ध हो गए. उन्होंने दरजे में प्रवेश किया और लड़कों ने चुपचाप उठकर उनका सम्मान किया . मॉनीटर अपनी जगह पर बैठ चुका था और लोचन शांत होकर अपनी जगह जाने लगा था.
हेडमास्टर साहब ने कहा- कहाँ जाते हो? यहीं पर खड़े रहो.
लोचन वहीं खड़ा रह गया. हेडमास्टर साहब शास्त्रीजी के कपड़ों पर होली खिली हुई देखकर मन-ही-मन हँसने लगे. उन्होंने प्रजापति की ओर देखा और उसे अपराध से अपरिचित, गंभीर भाव से पुस्तक के पत्र उलटते हुए पाया. वे उसे इस शरारत में शामिल न समझ, कुछ कठोर होकर अपराधी के अनुसंधान में लगे. कापी लोचन के हाथ से गिरी, यहाँ तक उन्होंने ऑफिस से सुना था. उन्होंने लोचन को ही अपराधी समझा, और गरजकर उससे पूछा- तुमने क्यों मॉनीटर के हाथ पर कापी गिराई?
(Govind Ballabh Pant Stories)
लोचन- मैंने जान-बूझकर कापी नहीं गिराई. किसी ने मेरे चोट लगे हुए हाथ को दुखा दिया, इसी से कापी गिर गई .”
हेडमास्टर साहब अब जरा शंकित हुए. वह अभी तक प्रजापति को उस षड्यंत्र में शामिल न देखकर आश्चर्य कर रहे थे. उस दरजे की अशांति और गड़बड़ के साथ प्रजापति का नाम जुड़ा हुआ था, हेडमास्टर साहब इस बात को अब जानते थे. वह सारी शरारत की जड़ पर अब पहुँचे, और निश्चय करने लगे, लोचन का हाथ दुखाने में जरूर प्रजापति ही का हाथ है . इस कारण उन्होंने कुछ नरम पड़कर कहा- तुम्हारा हाथ किसने दुखाया?
प्रजापति ने तीक्ष्ण दृष्टि से लोचन की ओर देखा और उसकी सारी क्षति पूरी कर देने का नीरव संदेश पहुँचाया. लोचन ने हेडमास्टर साहब को उत्तर देना प्रारंभ किया, नहीं वह उससे भी पहले रुक गया था. हेडमास्टर साहब को अब पूरा निश्चय हो गया कि जरूर प्रजापति ही अपराधी है. उसे सजा देने में हेडमास्टर साहब डरते थे. कदाचित् यह उसके पिता की इकट्ठी की हुई संपत्ति का प्रभाव हो. हेडमास्टर साहब ने साधारण रीति से फिर पूछा- डरते क्यों हो लोचन! कहो, तुम्हारा हाथ किसने दुखाया?
लोचन ने हाथ की पीड़ा का फिर अनुभव कर कहा- मुझे नहीं मालूम, मैंने नहीं देखा. मेरा ध्यान पंडितजीकी ओर था.
हेडमास्टर साहब ने सारे दरजे से पूछा, किसी ने नहीं बताया वे यही चाहते भी थे कि प्रजापति अपराधी न प्रमाणित हो. अंत में उन्होंने प्रजापति से हंसकर कहा- क्यों प्रजापति, तुमने इसका हाथ दुखाया?
प्रजापति उनकी दुर्बलता को पकड़कर शांत-भाव से उठा, और बोला- नहीं साहब, मैं वो बड़ी देर से पुस्तक देख रहा हूँ.
(Govind Ballabh Pant Stories)
अंत में हेडमास्टर साहब ने सारा दोष शास्त्रीजी के सिर पर रखते हुए कहा- शास्त्रीजी, मैं कई बार आपसे कह चुका हूँ, लड़कों को इस तरह अपनी मेज़ के चारों ओर खड़ाकर कापियाँ शुद्ध न किया कीजिए. इस तरह आधा दरजा काम करता है और आधा आपकी दृष्टि की ओट में उत्पातों में नियुक्त होता है. भविष्य में हरएक की सीटों पर जाकर ही कापियाँ शुद्ध की जावें .
शास्त्रीजी बोले- मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है. मुझे हरएक की सीट पर जाने में कुछ भी आलस्य नहीं . पर एक निवेदन है, विद्यार्थी अपनी ग़लती के सुधार से भी सीखता है और दूसरे की भूल देखकर भी ठोकर से बचता है. सब लड़कों को मेज के चारों ओर इकट्ठा करने से मेरा मतलब है, वे सब अपनी-अपनी भूलों को देखने के साथ-ही-साथ आपस में एक दूसरे के दोषों पर भी ध्यान देकर अपना सुधार करें.
स्कूल की अंतिम घंटी बजी. और दिन सब लड़के सबक चाहे पूरा हो या न हो, घंटी बजते ही शास्त्रीजी से पहले उठ कर उधम मचाते हुए भाग जाते थे. पर आज हेडमास्टर साहब और उनके डंडे के कारण सब मूक और स्थिर थे. हेडमास्टर साहब ने सब लड़कों को जाने का संकेत दिया. वे बड़े विनयशील और धीरता के साथ अपना-अपना बस्ता बग़ल में दाबकर विदा हुए.
(Govind Ballabh Pant Stories)
सब लड़कों के चले जाने के बाद उन्होंने शास्त्रीजी से कहा- आपकी बात में तत्त्व जरूर है, पर हमें करना तो वही है, जो इंस्पेक्टर साहब को पसंद है. उन्होंने अपनी पिछली रिपोर्ट में भी इस प्रथा को बहुत निकम्मी और गंदी बतलाया है. शिक्षा की नवीन प्रणाली भी इसे अनुमोदित नहीं करती. शास्त्रीजी ने निस्तेज होकर कहा- जैसी आपकी आज्ञा हो.
हेडमास्टर साहब आफिस में से अपना टोप और चश्मा पहनकर घर को विदा हुए. शास्त्रीजी ने रजिस्टर उठाकर आफिस में रख दिया, और अपनी स्कूली पाठ्य पुस्तकों का बंडल सँभाल, कपड़ों पर के धब्बों को किसी तरह छिपाकर घर चले . यह पुस्तकों का भार हेडमास्टर को छोड़कर और प्रायः सभी मास्टरों को, हर स्कूल के दिन, घर से स्कूल और स्कूल से घर तक, ढोना पड़ता था. यह इस बात की साक्षी थी कि वे दरजे में पाठ पढ़ाने से पहले घर से स्वयं उसका अनुशीलन करके आए हैं.
उस दिन प्रजापति ने लोचन को अपने घर ले जाकर भर पेट मिठाई खिलाई. दूसरा सनीचर आया. बीच में इतवार और तीसरे दिन से परीक्षा का प्रारंभ था. परीक्षा का समय-विभाग नोटिस बोर्ड में चिपका दिया गया. आज लड़कों के रोल-नंबर भी प्रकाशित किए गए. हॉल में परीक्षार्थियों की सीटें लगा देने के उद्देश्य से उस दिन स्कूल में सब लड़कों की हाजिरी ले लेने के बाद ही छुट्टी दे दी गई. प्रजापति भी समय-विभाग और अपने रोल नंबर को कापी में लिखकर परीक्षा की चिंता करता हुआ घर लौट गया.
(Govind Ballabh Pant Stories)
आज उसे एक क्षण-भर को भी फुरसत न थी. उसने किताबों के “जरूरी” पाठों और पंक्तियों में लाल, नीली और काली पेंसिलों के चिह्न और रेखाएँ बना रक्खी थीं. अब उसकी दो दिन की चिंता यही थी कि वह सब ‘जरूरी’ किस माध्यम से स्कूल के अंदर, परीक्षा-भवन में, ले जाया जाय.
कुछ उसने अपनी स्मृति पर छोड़ दिया, कुछ पास बैठने वाले लड़कों के सहायता-वचन के सुपुर्द किया, कुछ हिस्सा संक्षिप्त कर उसने परचों पर लिखा, जो कुछ नहीं लिखा गया, उन पुस्तकों के पेज हो फाड़कर उसने संग्रह किए और कुछ पुस्तकें ही उसने जेब में रखकर परीक्षा-भवन में ले जाना निश्चित किया.
उस दिन सबके स्टूल और डेस्क लगा दिए गए. स्कूल के हॉल में सब परीक्षार्थियों के बैठने की जगह न थी, इससे कुछ सीटें हॉल से संलग्न एक और दरजे में भी रख दी गई. उस दरजे में हेडमास्टर साहब ने स्वयं गार्ड बनकर चौकसी करना निश्चित किया. स्कूल के तमाम परीक्षा में चोरी करने वाले लड़कों की सीटें वहीं रक्खी गई. प्रजापति को यह भेद किसी प्रकार मिल गया था.
इतवार के दिन सब लड़कों के डेस्कों पर लड़कों के रोल नंबर, नाम और दरजे की चिटें चिपका दी गई.
प्रजापति ने कुछ अँधेरा होने दिया. वह कई दिन से खेलने और टहलने नहीं गया था. स्कूल की ओर चला . स्कूल के बाहर, सदर फाटक के पास, फील्ड में, अभी तक दो-चार लड़के खेल ही रहे थे . उसने दूसरा रास्ता लिया, और स्कूल के पीछे पहुंच गया. वहाँ स्कूल की लोहे के काँटों से जड़ी दीवाल के बाहर एक इमली का पेड़ था. वहाँ पर वह ठहर गया, और एक परिचित चाटवाले की नजर बचाकर पेड़ पर चढ़ गया. पेड़ की एक शाखा स्कूल की सीमा के भीतर फैली हुई थी. प्रजापति उसकी सहायता से स्कूल की हद में कूद गया.
दूर एक कोने में चौकीदार की झोपड़ी थी. उसने वहाँ जाकर देखा, वह रोटी सेंकने में तल्लीन था. उसने उसके सामने के आटे पर दृष्टि की, वह पर्याप्त था. पंद्रह-बीस मिनट से पहले वह उसकी रोटियाँ नहीं बना सकता था. प्रजापति भागकर सदर रास्ते की ओर आया. फिल्ड खाली हो गया था, स्कूल का पथ शून्य था.
(Govind Ballabh Pant Stories)
इसके बाद उसी तीव्र गति से प्रजापति फिर स्कूल के पीछे की ओर चला गया. उधर ही उसका दरजा था. वहाँ बिलकुल ही सन्नाटा था. तीस गज की दूरी पर बिजली के तार के खंभे मे जो बल्ब जलता था, उसकी क्षीण ज्योति स्कूल के अंदर के वृक्षों ने रोक ली थी. प्रजाति के दरजे के द्वार पर और सामने अधेरा था.
वह अपने दरजे के दरवाजे पर गया और धीरे-धीरे उसे खटखटाने लगा. इस दरवाजे का भेद चौकीदार और प्रजापति के सिवा और शायद ही किसी को मालूम हो . बात यह थी, द्वारों के ऐंठ जाने के कारण उसके नीचे की चिटकनी कभी लगती ही न थी. चौकीदार ने उस पर परिश्रम करना छोड़ दिया था. वह केवल उसके ऊपर की चिटकनी बंद करके चल देता था.
एक दिन की बात है . प्रजापति खेल से तृप्त होकर किसी विचार को लिए, अपने दरजे के उसी दरवाजे पर बैठा हुआ था. बैठे-बैठे वह वहाँ पर गुनगुनाने लगा. गाते-गाते अपने सिर से दरवाजे पर ताल भी देने लगा. कुछ देर में ऐसा हुआ कि ऊपर की चिटकनी खुल गई, और वह द्वारों के साथ स्कूल के अंदर जा पहुँचा. वह सँभल गया, उसे ठेस भी नहीं लगी. बंद स्कूल के भीतर एक रास्ता पाकर वह मन-ही-मन प्रसन्न हुना, और विचारने लगा, किसी दिन जरूर इसका उपयोग किया जायगा. वह किसी प्रकार द्वार को अटकाकर अपने घर चला आया . उसने यह बात किसी पर भी प्रकट न की.
(Govind Ballabh Pant Stories)
आज उसके उपयोग की बारी आ गई थी. उसने फिर खटखटाया. बीच-बीच में दरवाजे को अपनी ओर भी खींचता जाता था. एक बार उसका परिश्रम सफल हुआ, और दरवाजा खट से खुल गया . दरवाजा वैसे ही छोड़कर वह एक बार फिर चौकीदार और स्कूल के सामने अपनी दृष्टि दौड़ाकर भाग पाया.
उसने दरजे के भीतर प्रवेश कर दरवाजा बंद कर लिया. इसके बाद उसने मोमबत्ती जलाकर उसकी मदद से हॉल मे अपने एक मित्र का डेस्क और उससे संलग्न कमरे में अपना डेस्क खोज लिया. उसने पहचान के लिये अपने मित्र के डेस्क के ऊपर अपनी टोपी और अपने डेस्क के ऊपर दियासलाई की डिबिया रख दी. इसके बाद उसने मोमबत्ती बुझा दी, और अँधेरे में हेडमास्टर साहब के प्रबंध में संशोधन करने लगा.
वह सावधानी से हॉल के पिछले कोने में गया. वहाँ पर जो डेस्क लगा था, उसने उसे अपने सिर पर उठाकर एक अलग स्थान में रक्खा, उसकी जगह में अपना वह दियासलाईवाला डेस्क रख दिया, और उस डेस्क को अपने डेस्क के स्थान में ले गया. इसके बाद उसने अपने समीप का एक दुसरा डेस्क उठाया, और उसके और उस टोपीवाले डेस्क के स्थानों का आपस में परिवर्तन कर दिया. उसने एक बार फिर दियासलाई जलाकर देख लिया कि कहीं कोई भूल तो नहीं रह गई.
(Govind Ballabh Pant Stories)
इसके बाद वह बाहर आया, और उस खुले दरवाजे को पञ्चरों की मदद से अटका दिया कि कहीं हवा लगने से खुल न जाय. वह ज्यों ही वहाँ से जाना चाहता था कि उसे सामने से दो लड़के उसी ओर आते दिखाई दिए . वह दबे पैर झपटकर दफ्तर की ओर बढ़ा और नोटिस-बोर्ड के सामने दियासलाई जलाकर टाइम-टेबिल पढ़ने लगा.
वे दोनो आनेवाले वहीं पर आ पहुँचे. उनमें से एक ने प्रजापति को पहचानकर कहा- कौन, प्रजापति, क्या टाइम टेबिल देख रहे हो? तुम्हें दिन-भर पढ़ने से फुरसत नहीं मिली, क्यों?
प्रजापति ने दूसरी दियासलाई जलाते हुए कहा- और अपनी तो कहो, तुम्हें क्यों यही वक्त पसंद हुआ?
आगंतुक ने जेब में से मोमबत्ती निकाली, और प्रजापति की जलती हुई दियासलाई से उसकी शिखा मिलाते हुए बोला- हम दोनों छुट्टी लेकर गाँव गए थे न पाँच रोज बाद आज अभी वापस आए हैं.” उसकी मोमबत्ती जलने लगी थी, प्रजापति ने दियासलाई फेक दी. इसके बाद उस विद्यार्थी ने मोमबत्ती टाइम-टेबिल की ओर बढ़ाई और प्रजापति से कहने लगा- “लो, अब आराम से देखो.”
प्रजापति ने जाने का उपक्रम कर कहा- मैं देख चुका हूँ, टाइम-टेबिल तो मैं सनीचर के दिन ही उतार ले गया था. कुछ गलती रह गई थी, उसे ठीक करने आया था. अब कोई जरूरत नहीं है.
दूसरा विद्यार्थी पेंसिल से एक कागज पर टाइम-टेषित की नकल करने लगा. प्रजापति उन्हें छोड़कर आगे बढ़ा . उसने देखा, चौकीदार रोटो सेंक चुका था, और मुंह पर का पसीना पोछता हुआ ‘मैं बैरी सुगरीव पियारा’ गा रहा था.
(Govind Ballabh Pant Stories)
दूसरे दिन सुबह आठ ही बजे खा-पीकर प्रजापति परीक्षा देने के लिये स्कूल चला. आज उसका अँगरेजी का परचा था. अँगरेजी को किताब की ‘की’ उसके कोद की भीतरी जेब में थी. एक जरूरी कहानी का अँगरेजी में संक्षिप्त सार उसके एक जूते के अंदर था. एक जरूरी कविता का गद्य-रूप उसके दूसरे जूते में था. कुछ नोट्स उसकी हथेलियों में लिखे थे. कुछ किताब से फाड़े हुए पत्र उसके कुरते की जेब और टोपी में थे. अँगरेजो की कलम सँभालकर वह चला. एक अलग निबसी उसने रख ली थी.
वह स्कूल पहुँच गया. पर अभी स्कूल नहीं खुला था. उसने स्कूल के पिछले भाग में जाकर देखा, वह द्वार उसी प्रकार बंद था. उसके कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद जब चौकीदार ने स्कूल खोला, तो प्रजापति उसके साथ ही अंदर प्रविष्ट हुआ. चौकीदार इधर-उधर के दरवाजों को खोलने लगा. प्रजापति ने अपने दरजे में जाकर वह खुला द्वार बंद कर दिया. इसके बाद प्रजापति हॉल में आया और चौकीदार के सामने अपनी सीटट खोजने का बहाना किया. उसे पाया और उसमें बैठ गया.
कुछ याद आते ही चौकीदार उसे खोजता हुआ वहाँ पर आ पहुंचा था, कहने लगा- आपने तो सुबह भी नहीं होने दी इतनी जल्दी बैठकर क्या करोगे? चलिए, बाहर चलिए. हेडमास्टर साहब कल जाते वक्त मुझसे कह गए थे कि मास्टरों के आने तक हॉल में किसी भी विद्यार्थी को न आने दें. प्रजापति उठते हुए कहने लगा- तुम्हारे हेडमास्टर साहब के हुक्मों की बड़ी मार है, ये जीने न देंगे क्या?
चौकीदार और प्रजापति दोनों बाहर चले. मार्ग में चौकीदार बोला-“बाबू, सिगरेट न पिलाओगे? इसके बाद वह उसकी जेब की ओर हाथ बढ़ाने लगा. प्रजापति ने जल्दी से बाहर की ओर भागकर कहा- चल मूर्ख ! मैं कहीं सिगरेट पीता हूँ क्या? चौकीदार कहने लगा- “कल कहाँ से दी थी? अच्छा, जेब दिखाओ.”
प्रजापति की जेब में पुस्तक थी. वह फील्ड की ओर भागते हुए कहने लगा- बोलो मत, आज परीक्षा का दिन है, फिर ले लेना
चौकीदार घंटा बजाने लगा . क्रमशः लड़के, मास्टर और हेडमास्टर आए. कापियाँ दी गई, परचे बँटे, परीक्षा आरंभ हुई. सात दिन उसे परीक्षा में सम्मिलित होना पड़ा. वह बड़े आनंद से पुस्तकें और परचे अपने साथ लाता और उस कोने में बैठकर नक्कल करता था ! आस-पास के लड़कों से कान-फूसी कर उत्तर मालूम करता. उसकी चोरी कदाचित् मास्टर में से किसी को भी मालूम नहीं हुई. हेडमास्टर माहब को यह भी सुध नहीं रही कि प्रजापति की सीट कहाँ-से-कहाँ चली गई.
(Govind Ballabh Pant Stories)
परीक्षा समाप्त हुई, पर अभी परीक्षाफल नहीं निकला था. मास्टर लोग कापियों को शुद्ध कर नंबर देने में जुटे हुए थे. इसी बीच में प्रजापति के पिता को रेल-विभाग में कहीं बाहर एक बहुत बड़ा ठेका मिल जाता है. वह वहाँ अपने एक खास आदमी का सदैव रहना जरूरी सममाने लगे . वह स्वयं वहाँ सदा नहीं रह सकते थे. उन्होंने एक दिन यह भार प्रजापति के सिर पर रख देना निश्चित किया, उनकी समझ में प्रजापति काफी बड़ा हो गया और पढ़-लिख भी गया था. प्रजापति भी उसी क्षण तैयार हो गया. वह पुस्तक पढ़ाई और परीक्षा से पूरी तृप्त हो चुका था. उसके पिता ने हेड मास्टर साहब से ये सब बातें जाकर कह दी.
हेडमास्टर साहब ने उत्तर दिया- अच्छी बात है, पर जल्दी क्या है. पाँच-सात दिन ठहर जाइए, परीक्षाफल निकलने दीजिए, तभी सार्टिफिकेट दूंगा, तब तक आप लड़के को स्कूल से छुड़ा लेने की एक अर्जी मेरे पास भेज दीजिएगा.
प्रजापति के पिता उस पर राजी हो गए, दूसरे दिन तमाम स्कूल के लड़कों और मास्टरों को यह विदित हो गया कि प्रजापति अब पाँच-सात रोज स्कूल में और रहेगा, फिर चला जायगा. इस कारण उसके प्रति सबकी प्रीति बढ़ चली. इस चिर-बिछोह को कल्पना कर प्रजापति के मनःराज्य में बड़ा अद्भुत परिवर्तन हो गया. अब दरजे में वह धीर और शांत रहने लगा.
शास्त्रीजी घर पर प्रजापति के दरजे की परीक्षा की कापियाँ शुद्ध कर रहे थे. प्रजापति की कापी सामने आई कुछ पेज देखने के बाद अचानक उनको उस कापी के बीच में, हिंदी की किताब का, एक फटा पत्र मिलता है . प्रजापति ने उस पत्र से कुछ नकल किया होगा, पर जल्दी में वह उस पेज को उसी के अंदर भूल गया . शास्रीजी ने कुछ सोचकर उस पत्र को मोड़ा और अपनी जेब में रख लिया. शायद हेडमास्टर माहब को उस चोरी का पता देने के लिये नहीं. शास्त्रीजी ने उसके शेष उत्तर देखकर नंबर जोड़े. उनका योग बारह हुआ. पूर्णाङ्क पचास थे, वह फेल हो गया.
उन्होंने अचानक स्कूल से सदा के लिये प्रजापति की विदाई का ध्यान किया. उन्होंने उस पर दया की, चार नंबर और बढ़ाकर उसे पास कर दिया. सब मास्टरों के मन में अलग-अलग यही भाव उपजा. सबने उसके प्रति वही कृपा दिखाई. दो-एक विषयों में नकल करके वह पास भी हो गया था.
परीक्षाफल की सूची तैयार हुई. प्रजापति को प्रत्येक विषय में उत्तीर्ण देखकर हेडमास्टर साहब को शक होता है. वह उसकी परीक्षा की सब उत्तर कापियाँ इकट्ठा करके शाम को अपने घर ले गए . उन्होंने बारीकी के साथ उनकी फिर जाँच की और परीक्षकों को उसे नंबर देने में हद से ज्यादा उदार पाया.
(Govind Ballabh Pant Stories)
इंस्पेक्टर साहब बड़े पुराने अनुभवी थे. स्कूल अपनी दुर्बलनाओं को जहाँ पर ढक रखता था, उनकी स्कूल में आकर सबसे पहले वहीं पर दृष्टि पड़ती और वह तुरंत ही उसे प्रकट कर देते थे. हेडमास्टर साहब ने विचार किया, अबकी बार इंस्पेक्टर साहब आकर इसी दरजे की कापियाँ माँगेंगे, और जिन कापियों की जाँच करेंगे, उनमें एक यह भी होगी. उन्होंने फिर कुछ भी नहीं सोचा. बावर्चीखाने में अँगीठी सुलग गई थी. उन्होंने एक-एक कर वे सब का कापियां उसमें जला दी.
दूसरे दिन परीक्षाफल प्रकट हुआ और प्रजापति सब विषयों में सफल घोषित हुआ. तीसरे दिन प्रजापति हेडमास्टर साहब से अपना सार्टिफिकेट लेकर विदा हुआ. उसने एक-एक कर सभी मास्टरों से विदा ली. वह शास्त्रीजी के पास भी गया. शास्त्रीजी ने उसे देखा और दरजा छोड़कर बाहर आए . बाहर आकर उन्होंने कहा- मैं स्वयं तुमसे मिलना चाहता था. तुमसे मुझे कुछ कहना है.
प्रजापति चकित और स्तब्ध खड़ा रहा. शास्त्रीजी ने अपनी जेब से वह फटा पत्र निकाला. प्रजापति ने उसे देखकर अपना माथा नीचा कर लिया. शास्त्रीजी ने स्नेह-भरे स्वर में कहा- नहीं प्रजापति, लजित होने की कोई बात नहीं. यह विद्यार्थी जीवन की भूल है, भविष्य-जीवन के लिये इससे उपदेश ले सकते हो, जाओ संसार में प्रवेश करो. पर यह याद रखना पत्र फाड़कर इस तरह चोरी करोगे, तो तुम्हारे जीवन की पुस्तक खंडित हो जायेगी. कितनी सुंदर यह कविता है, तुम इसे फाड़कर फेंक दोगे क्या?
(Govind Ballabh Pant Stories)
कविता का शीर्षक था- जीवन का गीत. किसी अँगरेजी कविता का अनुवाद था. प्रजापति चुप रहा, शास्त्रीजी ने कहा- लो, इस फटे पत्र को उसी पुस्तक में चिपका देना. इससे किसी निर्धन विद्यार्थी का काम चल जायगा. प्रजापति ने उनके हाथ से वह पत्र लेते हुए कहा- नहीं, मैं इसका लोभ करूँगा. मैं इसे सोने के चौखटे में लगाकर सदैव अपनी आँखों के सामने रखूंगा. परमेश्वर करे, जब मेरे हृदय में चोरी का भाव उठे, इसके दर्शन से वह नष्ट हो जाय, और मैं कभी किसी चीज की चोरी न करूं.
शास्त्रीजी ने कहा- अगर ऐसा कर सको, तो तुम्हारी पुस्तक का यह फटा पत्र तुम्हारे लिये सबसे बड़ी परीक्षा का सार्टिफिकेट है. कदाचित् संसार का कोई भी विश्वविद्यालय इसे न दे सकता हो. प्रजापति ने उस फटे पत्र को स्वयं सँभाला, और शास्त्रीजी को प्रणाम कर विदा हुआ. शास्त्रीजी चकित होकर उसे देखते ही रहे, ऐसा नटखट लड़का कितनी जल्दी शांत और गंभीर हो गया. प्रजापति ने जाते-जाते अधीर होकर स्कूल की ओर दृष्टि की, अब वह उस जीवन में कभी पुस्तक लेकर वहाँ न जायगा. उसकी आँखें छलछला उठीं, वह अपने को बिलकुल परिवर्तित देखने लगा.
(Govind Ballabh Pant Stories)
गोविन्द वल्लभ पन्त
साहित्यकार गोविन्द वल्लभ पन्त हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ नाटककारों में जाने जाते हैं. उनकी यह कहानी पहली बार ‘सुधा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…
तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…
चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…