गुडी गुडी डेज़
अमित श्रीवास्तव
हीरामन उवाच-2 (बजाए जा तू प्यारे हनुमान चुटकी)
अजीब सी बातें करने लगा था हीरामन. असम्बद्ध बोलता. बोलता तो बोलता ही चला जाता चुप लगाता तो लगता व्रत धारण कर रक्खा है. कभी इशारे करने लगता कभी लिखने बैठ जाता. लिखता भी तो अक्षरों-शब्दों की जगह चित्र बनाता जो उसके अनुसार मंदिर-स्कूल-एयरपोर्ट-ट्रेन होते और दिखने के अनुसार वेन डायग्राम के अनसुलझे समीकरण. बे-सिर पैर की कहानियां सुनाता.
आपको यकीन नहीं आ रहा? बानगी चाहिए? एक दिन उसने एक अजीब सी कहानी सुनाई. देखिये शायद इससे यकीन हो सके आपको. उसने कहा कि- ‘एक राजा था. एक बार उसके राजमहल में किसी कारण से बहुत अंधकार हो गया. प्रकाश के सारे तरीके समाप्त हो गए. न तेल बचा न लकड़ी. अब क्या हो? सारे उपाय फेल. अंधेरा बढ़ता गया, डर बढ़ता गया. राजा ने चारों तरफ नज़र दौड़ाई. उसे एक किताब दिखी. फिर क्या था राजा ने उसे फाड़ा और जला लिया. थोड़ी देर को उजाला हुआ और फिर…
तुम लोग क्या जानो… जानते हो वो किताब कौन सी थी? वो किताब थी अंधकार दूर करने के एक सौ एक उपाय. मालूम? राजा को चाहे जलाने आए न आए लेकिन क्या नहीं जलाना, आना चाहिए!’
मुझे तो लगता है कि हीरामन पगला गया है. ये भी कोई कहानी हुई भला? आपको नहीं लगता? एक दिन की बात और सुनिए. सिर पकड़ कर बैठा था हीरामन. पूछने पर पहले देर तक मुस्कुराता रहा जो होठ, नाक और आंखों की बेमेल सेटिंग्स की वजह से रोने जैसा लग रहा था. फिर एकटक शून्य में किसी अदृश्य विलेन को घूरने लगा. घूरते-घूरते जब प्रतीत हुआ कि आंखों से ही किसी को थप्पड़ मार देगा उसने पलक झपकाई, एक लंबी सांस ली और बोलने लगा ‘आजकल नव निर्माण कार्य चल रहा है. पता नहीं मकान बना रहे हैं या दुकान. जगह-जगह ईंट-गारा-सीमेंट बिखरा पड़ा है. कहीं जाना हो तो पायंचे चढ़ा कर कूदी मार कर जाना पड़ता है आजकल. अजीब निर्माण है. रंगाई-पुताई भी हाथ के हाथ चल रही है. कहीं पेंट के डब्बे औंधे पड़े हैं, कहीं किसी किनारे कोई पत्थर पर बुरुश रगड़ रहा है. तारपीन की तेज़ गंध वातावरण को नशीला बना रही है. गाना गाने का मन कर रहा है मालूम?
काम बड़ा है, निर्माण बड़ा है, जैसा कि बताते हैं, इसलिए ठेका भी बड़ा है. मेन ठेकेदार ने बहुत से सहायक ठेकेदार रख छोड़े हैं, सहायक ठेकेदारों ने अपने सहायक. उन्होंने भी अपने. कुल मिलाकर लग यही रहा है कि कुछ-कुछ ठेका सबको मिला है. काम का बंटवारा कैसा है, किसको क्या करना है, इसकी जानकारी नहीं हो पा रही है. कल ईंट सप्लायर चिनाई करता दिखा था, आज चिनाई करने वाला झूमर टांग रहा था.
वैसे निर्माण का ठेका पहले किसी और कम्पनी के पास था. ठेकेदार को कम्पनी कहा जा सकता है. इसमें शंका नहीं होनी चाहिए. लगभग हर बार उसका रिन्यूवल हो जाता था. इस बार के टेंडर में इस ठेकेदार की कम्पनी ने कुछ अच्छे ल्यूकरेटिव ऑफ़र दिए इसलिए परचेज़ कमेटी इंकार नहीं कर सकी. बताते हैं उसके पास विकल्प ही नहीं थे. आगे भी इसी को ठेका मिलने की बाई डिफॉल्ट सिचुएशन बन रही है ऐसा एक्सपर्ट कह रहे हैं. एक्सपर्ट आउट साइड एलीमेंट की तरह काम करते हैं. दूर रहकर ऑडिट/ मूल्यांकन करते हैं और उनकी रिपोर्ट परचेज़ कमेटी कभी पढ़ती नहीं, ऐसा बताते हैं.
मैंने पिछले दो-तीन सालों में कई बार जाकर पूछा कि क्या निर्माण है, कितना हुआ क्या हुआ? हर बार कम्पनी के बन्दों या छोटे-मझोले ठेकेदारों में से कोई एक मुझे पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन दिखाने लगता है जिसमें तमाम खूबसूरत तस्वीरे हैं. मालूम? अब तो ठेकेदार ही नहीं कोई मजदूर भी अपना काम छोड़कर उठता है और स्लाइड शो चला देता है. कुछ पूछने की ज़रुरत ही नहीं. मेरा चेहरा देखते ही पिक्चर चालू.
एक जगह प्लास्टर चल रहा था. पहले भी वहां प्लास्टर हुआ था जो जगह-जगह से झर चुका था. मिस्त्री सतह को पूरा साफ़ किये बिना बस एक पतली परत बिछा रहा था. मैंने मिस्त्री से कहा- ‘देखो तुम ऊपर-ऊपर से लगा रहे हो अन्दर का वैसा ही रह जा रहा है.’
उसने आज स्लाइड शो नहीं दिखाया. शायद बिजली नहीं थी. ओवरलोडिंग से कहीं शार्ट सर्किट हो गया था. वो बोला- ‘अपन से क्या मतलब? तू उससे क्यों नहीं पूछता जिसने नीचे-नीचे लगाया था. अपन का ठेका बाहर-बाहर का है.’
एक जगह कुछ लोग मिलकर फाउंडेशन स्टोन उखाड़ रहे थे. मैंने पूछ लिया- ‘इसे क्यों उखाड़ रहे हो?’
जवाब आया- ‘क्यों? हम न लगाएं अपना नाम?’
मैंने कहा- ‘वो तो ठीक है पर ये तो नींव खुदने के समय का है. जिन लोगों ने बुनियाद रक्खी उनके नाम का पट. तो क्या तुम लोग दुबारा नींव खोदोगे?’
-‘अरे पागल है क्या तू’ उसमें से सबसे पढ़ा-लिखा टाइप ठेकेदार बोला ‘इतना टाइम किसके पास है? कौन देखता है? वैसे भी नींव दिखाई नहीं देती.’ फिर मिस्त्रियों से मुखातिब हुआ और कहा ‘कुछ नहीं बस फिनिशिंग टच दे दो हो जाएगा काम.’
आर्किटेक्ट भी वहीं मिल गया. उसने पुराना नक्शा हथिया रक्खा था. उसे देख-देख कर मैंने कहा- ‘साहब जब यही डिज़ाइन बनानी थी तो…’
आर्किटेक्ट ने मुंह बिचकाया और बोला- ‘बेटर कंसल्ट द कस्टमर!’
बाशिंदे कस्टमर हैं अब. उनसे पूछना बेकार है. उन्हें कहाँ इतनी फुर्सत? मैंने सोचा मेन ठेकेदार को बताना चाहिए.
मेन ठेकेदार बिजी रहता है. उसे यहाँ-वहां जाना पड़ता है. हर समय वहां नहीं रह पाता जहां उसे रहना चाहिए. जिस काम पर मजदूर-मिस्त्री-सामान के सप्लायर्स को डांटना चाहिए उसपर शाबाशी देता है, जहां पीठ थपथपानी चाहिए वहां क्लास लगा देता है. बड़ा काम है गड़बड़ हो जाती है. पूछता है कितना काम हुआ? फिर जवाब सुनने से पहले निर्माण की तरफ पीठ करके सेल्फी लेता है. सेल्फी में, जैसा कि तकनीकि रूप से अवश्यम्भावी है, उसका चेहरा बड़ा और साफ़ नज़र आता है पीछे का दृश्य छोटा और अक्सर धुंधला. वो लोगों को स्क्रीन साफ़ करने को कहता है. वो नज़र के इलाज का सुझाव देता है. वो सुझाव की घोषणा करता है. वो सुझाव के नियम बनाता है.
वो बात करने को कहता है. बात नहीं करता वो बोलता है. कुछ भी पूछने पर वो घड़ी देखता है फिर कैलेण्डर. फिर एक बयान जारी करता है. वो कहता नहीं जारी करता है. मालूम? उसकी ट्वीट पर बहुत कुछ चलता है. मैंने उससे शिकायत करनी चाही- ‘ये तो छलावा हो रहा है? आपको पता नहीं है शायद. यहाँ बताया कुछ और जा रहा है, दिखाया कुछ और जा रहा है, कराया कुछ और जा रहा है. कुछ पूछने पर आपके मिस्त्री, मजदूर, छोटे-मझोले ठेकेदार, आर्किटेक्ट सब कैसे और क्या जवाब दे रहे हैं.’
ठेकेदार मुस्कुराया. उसकी मुस्कराहट बुद्ध के जैसी है. उसने कहा- ‘उन्होंने कम से कम जवाब तो दिया वो कुछ और भी दे सकते थे. वो ये भी कह सकते थे कि बजाए जा तू प्यारे हनुमान चुटकी…’ फिर वो चुटकी बजाने लगता है. सबलोग मुग्ध हो जाते हैं. सब चुटकी बजाने में लग जाते हैं. घिसी हुई उँगलियों से आवाज़ नहीं आती बस भद्दे इशारे निकलते हैं.
निर्माण चलता रहता है. मालूम?’
ये लम्बा एकालाप हीरामन बस एक सांस में ले गया. लगातार बोलता रहा और जब रुका तो देर तक ख़ामोश रहा. फिर हमारी आंखों में अपनी आंखें आलमोस्ट डालकर फुसफुसाया ‘ये ठेका किसे मिला है मालूम?’ हमारे न कहने पर खट से बोला ‘मामू तुमे मालूम होना चइये… होना चइये… होना ही चइये’ और आंखें हमारी आंखों से निकाल कर कंचे की तरह गोल-गोल घुमाने लगा. बताइए… ये पागलपन के लक्षण नहीं तो और क्या हैं?
आपके पास इस बीमारी का कोई इलाज हो तो बताएं.
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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