अशोक पाण्डे

कुमाऊँ का छोलिया नृत्य

कुमाऊं का सबसे जाना-माना लोक नृत्य है छोलिया. इस विधा में छोलिया नर्तक टोली बनाकर नृत्य करते हैं. माना जाता है कि नृत्य की यह परम्परा एक से दो हज़ार वर्ष पुरानी है. नर्तकों की वेशभूषा और उनके हाथ में रहने वाली ढाल-तलवारें बताती हैं कि यह नृत्य युद्ध के प्रतीक के रूप में कुमाऊं में अस्तित्वमान रहा है.

इस नर्तक-टोली के साथ संगीतकारों का एक दल अलग से चलता है जो मशकबीन, तुरही, ढोल, दमामा और रणसिंघा जैसे लोक-वाद्य बजाती हुई चलती है. संगीत और नृत्य की जुगलबन्दी वाली यह पुरानी विधा अब शहरी विवाहों की बारातों तक सीमित हो कर रह गयी है.

नर्तकों का शारीरिक कौशल इस कला में इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्हें युद्धरत सैनिकों के उन दांव-पेंचों की नक़ल करनी होती है जिसमें वे छल के माध्यम से शत्रु को परास्त करते हैं. संभवतः इसी कारण इसे छोलिया (अथवा छलिया) का नाम दिया गया.

युद्धभूमि के दृश्यों और उसकी अनेक रणनीतियों का अनुकरण करने वाले इस नृत्य का आविष्कार संभवतः राजपरिवारों के मनोरंजन के लिए हुआ होगा.

फोटो: जयमित्र बिष्ट

छोलिया नृत्य के बाजगी बताते हैं कि नर्तकों को गति देने के उद्देश्य से अनेक तरह की तालें हैं जिन्हें अलग-अलग समय के लिए नियत किया गया है. तो इस नृत्य की रफ़्तार को नियंत्रित करने का काम मुख्य ढोल वादक का ही होता है. दस से पंद्रह या अधिकतम बीस लोगों की छोलिया टोली का रिवाज़ रहा है. लगातार नृत्य से टोली थक न जाए इसके लिए नृत्य को कुछ देर विराम देकर बीच-बीच में कुमाऊनी लोकगीतों चांचरी और छपेली के बोल भी गाये जाते हैं.

माना जाता है कि पुराने समय की राजसी बारातों में वर-पक्ष वाले राजा के सैनिक युद्धकला के अभ्यास का कलात्मक प्रदर्शन करते हुए आगे-आगे चला करते थे. छोलिया को उसी परम्परा की अनुकृति कहना गलत नहीं होगा. नर्तकों की टोली के आगे सफ़ेद और लाल रंग के ध्वजों को ले जाने की भी रिवायत रही है जिन्हें निसाण (निशान) कहा जाता है. दूर से दिखाई दे जाने वाला यह निसाण बरात के आ जाने की सूचना का काम करता था.

छोलिया नर्तकों, जिन्हें छोल्यार भी कहा जाता है, की पोशाक भी दर्शनीय होती है. पोशाक और सज्जा में लाल-नीले-पीले वस्त्रों की फुन्नियों और टुकड़ों की मदद से सजाया गया सफ़ेद घेरेदार चोला, सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा, कपडे का रंगीन कमरबंद, घुँघरू और चन्दन-सिन्दूर का कलात्मक श्रृंगार मुख्य होते हैं. नर्तकों को नृत्य के समय अपने चेहरे के हावभावों के माध्यम से खिलंदड़ी, चतुरता और शारीरिक चपलता को प्रदर्शित करना होता है.

एक समय इस नृत्य के कलाकारों के सम्मुख रोजीरोटी का सवाल बहुत बड़ा हो गया था लेकिन आजकल की कुमाउनी शादियों-बारातों में, विशेषतः नए शहरी केन्द्रों में उनकी संख्या को लगातार बढ़ता हुआ देखा जा सकता है. यह अलग बात है कि अधिकतर बारातों में वे एड-ऑन का ही काम करते हैं क्योंकि बैंडबाजे वालों के प्रति लोगों का रुझान अभी कम नहीं हुआ है. तो इलेक्ट्रोनिक उपकरणों से लैस बैंडबाजे वालों की तेज़-रफ़्तार वाली ताजा फ़िल्मी धुनों के सामने खासे निष्प्रभावी लगते छोलिया नर्तक हालांकि अब बारातों में बुलाये जाने लगे हैं, उन्हें वह सम्मान मिलना बाकी है जिसके वे सही मायनों में अधिकारी हैं.

छोलिया नृत्य हमारी पुरानी विरासत का कलात्मक अंग है जिसे लगातार सरकारी और गैर-सरकारी प्रोत्साहन दिए जाने की ज़रूरत है.

-अशोक पाण्डे

वाट्सएप पर हमारी पोस्ट प्राप्त करें: Watsapp kafal tree

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • पहले यह अज़ीबो-गरीब पोशाक नहीं थी हमारे छोलैतियों की। न जाने क्या सोच कर उन्हें फ्रिल वाले झगूले और टोपी पहना दी गई।

Recent Posts

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

4 hours ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

5 hours ago

नीचे के कपड़े : अमृता प्रीतम

जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी ‘नीचे के कपड़े’ उसका नाम…

7 hours ago

रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी: तोता

एक था तोता. वह बड़ा मूर्ख था. गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था.…

21 hours ago

यम और नचिकेता की कथा

https://www.youtube.com/embed/sGts_iy4Pqk Mindfit GROWTH ये कहानी है कठोपनिषद की ! इसके अनुसार ऋषि वाज्श्र्वा, जो कि…

2 days ago

अप्रैल 2024 की चोपता-तुंगनाथ यात्रा के संस्मरण

-कमल कुमार जोशी समुद्र-सतह से 12,073 फुट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ को संसार में…

2 days ago