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अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 5

गुडी गुडी डेज़

अमित श्रीवास्तव

हीरामन उवाच

‘गुडी गुडी मुहल्ले की निवर्तमान सामाजिकी चार आप्त वाक्यों से मिलकर बनी थी,’ कहता हीरामन, ‘इन्हें ही लोकतंत्र के चार मजबूत स्तम्भ भी कहा जा सकता है. मुहल्ले के लिए चारों वेदों के निचोड़ वाक्य भी यही रहे. इन्हें जपकर, जैसा कि पंडिज्जी अनामिका उंगली से नल के पानी को हिलाकर महज भावना के बल पर संगम बना देते हैं, आदमी चारों धामों के दर्शनों के बराबर सिद्धि प्राप्त कर लेता था. (औरतों के लिए तीर्थ, दर्शन और सिद्धि के बारे में श्री चरणों का उल्लेख होता था जिसमें ‘श्री’ अंदाजन उसका पति ही होता रहा होगा)

ये चार गगरा-में-सगरा वाक्य इस प्रकार से हैं. पहला, सामाजिक ताने-बाने में हर जाति अपने से निम्नतर एक जाति ढूंढ ही लेती है. दूसरा, हर बॉस का एक बिग बॉस होता ही है. तीसरा, ज़रूरत पड़े तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है और चौथा, एव्री डॉग हैज़ अ डे!

हीरामन आगे कहता ‘इन चारों वाक्यों को मिलाकर अगर एक चतुर्भुज बने तो उसके अन्दर की तिर्यक रेखाओं की काट पर पड़ेगा ये मुहल्ला.’ एक उदाहरणनुमा घटना से इस चतुर्भुज और काट को समझने की कोशिश करते हैं. मुहल्ले के बीचोंबीच एक बगिया नुमा पार्क हुआ करता था. शुरुआत बगिया से हुई थी लेकिन बाद में नई ज़रुरत के मद्दे नज़र उसे पार्क में तरमीम करने की ऐतिहासिक कोशिश हुई थी. ज़रूरत और विलासिता के बीच एक बहुत झीना सा पर्दा रहता है,’ कहता हीरामन, जो आपके सांस खींचने और पड़ोसी के सांस छोड़ने भर से उठ जाता है. इसीलिये स्थिरता के लिए पड़ोसी चाहे जितना भी भस्त्रिका करता रहे आपको अनुलोम-विलोम प्राणायाम का ही अभ्यास करना चाहिए.’

अड़ोसी और पड़ोसी के बेमेल इनहेल-एक्सहेल से अंततः जो बना था वो बगिया और पार्क दोनों का गठजोड़ भी था उनसे अलग भी था. चूंकि पहले किये जाने वाले कार्य की महत्ता ज़्यादा होती है और मनुष्य उत्साहित मन से उसमें भाग लेता है, चाहे वो जीवन के संस्कार हों या नित्यकर्म, हम बगिया का बड़ा पार्ट लेते हुए इसे बगियार्क कहेंगे. वहां फूल भी थे, फल भी. छुई-मुई भी, नागफनियाँ भी. झूले भी थे, रनिंग ट्रैक (भले ही वो जूतों की अनवरत खुदाई से उभर आया हो) भी. यहीं होलिका दहन के लिए भुतहा मकान से साल-दर-साल खिड़कियाँ तोड़कर सजाई गईं, यहीं बैठकर प्रेमपत्र लिखे, फेंके, उठाए, छुपाए, फाड़े और गाड़े गए. यहीं बैठकर डकैत डकैती की वो योजना बनाते जिसकी आवाज़ फिजाओं से होती हुई सिर्फ पुलिस के कानों में घुसती थी और वो इच्छानुसार पकड़े जाते थे. `जब सब कुछ हमीअस्तो तो हमने कौन से पाप किये हैं’ ऐसी पवित्र और ज्ञानवर्द्धक सोच के साथ अर्ली मोर्निंग सुअर, दोपहर को गाएं और दिन के किसी भी वक्त मुहल्ले के कुत्ते भी यहाँ अपने-अपने प्रयोजनों से विज़िट करते थे. कुल मिलाकर आदमी, जानवर और योजनाएं जब मुहल्ले में ढूँढने से कहीं नहीं मिलती थीं तो यहाँ पाई जाती थीं.

हुआ यों कि एक दफ़ा इतने लोगों की नाक के नीचे बगियार्क से फूलों की चोरी होने लगी. पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया पर जब मामला लगभग रोज़ का हो गया तो लोगों का माथा, जिस अदृश्य तरीके से परम्परा थी, ठनका. जानवरों की नाक के नीचे जो चीज़ होती है उसका वो जाने लेकिन आदमियों ने उसी चीज़ की ऐंठन के लिए इतिहास रंग रक्खा है. इसलिए ज़िम्मेदार लोगों ने बैठक की और निर्णय लिया कि आओ इसका पता लगाएं. पता लगाने का काम जैसा कि आप सोच रहे हैं सिर्फ डाक-तार विभाग का नहीं होता ऐसा मुहल्ले के लोगों को पहले से पता था. उन्होंने इस काम के लिए इन्दर बहादुर जी को चुना. इन्दर पति-पत्नी, सास-बहू और घरेलू झगड़ों के एक्सपर्ट सलाहकार थे. उन्हें लगाई बुझाई कार्यक्रम के प्रवक्ता के तौर पर जाना जाता था और आजकल वो कानाफूसी केंद्र के मैनेजर की ज़िम्मेदारी भी संभाले हुए थे. मतलब ये कि लोगों का जानना (मानना नहीं जानना) था कि उनकी नजरों से कुछ नहीं बच सकता. लोगों का मानना (जानना नहीं मानना) था कि उनकी दो आंखें और बारह के आस पास हाथ तो होंगे ही और जानकारी के मामले में वो भगवान से बस दो तीन सीढ़ी ही नीचे ठहरेंगे.

एक टीम बनाई और काम पर लग गए इन्दर. फौरी तौर पर पतारसी के बाद ज़िम्मेदार लोगों के कान में जो बात उगली वो अजब थी. उनका मानना और हेंस प्रूव्ड टाइप जानना था कि कोई भी माई का लाल, एन्ड ऐज़ अ मैटर ऑफ फैक्ट बाप का हरा भी, जन्मजात साधू या चोर नहीं होता बल्कि वक्त, हालात और समय (इन्दर पर्यायवाचियों के उस्ताद भी रहे. एक ही प्रसंग के जितने सन्दर्भ हो सकते हैं इनके पास उससे ज़्यादा भावार्थ होते थे) उसे ऐसा बना देते हैं! जिसने भी फूलों की चोरी की है उसने सिर्फ फूलों को ही नहीं चुराया है/होगा बल्कि यही बात देखने की है कि क्या? उनके इस अजीब निष्कर्ष से एक बात जो उन्होंने मानी पर नहीं जताई और जो ज़िम्मेदार लोगों की रीड बिटवीन द लाइंस की कानूनी मजबूरी की वजह से जान ली गई वो ये थी कि चोरी दरअसल फूलों की नहीं पत्तियों की हो रही थी. पत्तियाँ नोचने की जल्दबाजी में फूल भी टूटकर हाथ में आ जा रहे होंगे. चूंकि उनका मानना था कि मामले का सम्बंध फूलों से ज़्यादा पत्तियों का था/हो सकता था इसलिए वो कुछ भी यकीन से नहीं कहते/ कहना चाहते थे. आख़िरी बात कहते-कहते वो चेहरे उदासीन हो उठे और भाषा से दार्शनिक जब स्वगत में उन्होंने कहा ‘मैं जानता हूँ कि तू चोर है मगर यूं हीं/कभी-कभी मेरे दिल में…’

चोरी का मामला थोड़ा पेचीदा हो गया. सिर्फ निगरानी या जांच से सुलटने वाला नहीं रहा. इस फूल बनाम पत्ती के मद्देनज़र एक अनुसन्धान कमेटी बनाए जाने का प्रस्ताव आया. माना गया. राजा, मंत्री, चोर, सिपाही सबके लिहाज़ से ऐसे प्रस्ताव माकूल बैठते थे इसलिए मान लिए जाते थे. कमेटी का सरदार दत्तू फड़कर को चुना गया. दत्तू फड़कर का नाम दत्तू फड़कर नहीं था ये बात तो आपको भी पता होगी. उनमें सबसे ज़्यादा दिखने-दिखाने वाली चीज़ दांत थी. दत्तू के आगे और ऊपर के दो कृन्तक दांत अनावश्यक रूप से लम्बे थे और होठों की पूरी कोशिशों के बाद भी उनकी पकड़ से बाहर निकल आए थे. ओष्ठ्य और दंत वर्ग में परम्परागत संघर्ष में होठ कोमल होने की वजह से उसपर दांत की गड्ढेनुमा छाप उभर आई थी. जब वो चुप रहते तो दांतों की जोड़ी इसी गड्ढे में विश्राम कर रही होती. दत्तू जब बोलते तो पहले दो-तीन बार होठों से दंतजोड़ी को सहलाते. ऐसा शायद वो आवश्यक चिकनाई पाने के लिए करते हों पर लगता ऐसा कि स्टार्ट ले रहे हैं. शरीर विज्ञान में इसी को फड़कना कहते हैं. दत्तू ज़हीन महीन और प्राचीन थे. जवानी के बहादुरी के किस्से लोगों को और कमोबेश खुद इनको भी ज़ुबानी याद थे.

`तुम दिन को अगर रात कहो हम रात कहेंगे’ वाले कमिटमेंट के साथ उन्हीं ज़िम्मेदार लोगों से पहला ज़रूरी सवाल पूछा कि बताओ मुल्जिम किसे बनाना है?’ जवाब में नाम मिला या इशारा इसके पुख्ता प्रमाण नहीं हैं लेकिन दत्तू ने आनन में अनुसन्धान की अंतरिम रिपोर्ट जारी करते हुए गजोधर के सर इल्जाम धर दिया. गजोधर ऐरे थे, फानन में सकपका गए. दत्तू इतने कन्विक्शन से बोलते थे कि गजोधर को सच में लगने लगा कि चोरी उन्होंने ही की है? वो तो उनके गैरे दोस्त लालमन ने उन्हें समझाया और याद दिलाया कि आप तो अचकन पर फूल लगाते हैं पत्ती थोड़ी न. तो आप क्यों चुराएंगे?

दर्शनशास्त्र के उस वाले सिद्धांत के साथ जिसमें कहा गया है कि ‘मानो तो मैं गंगा माँ हूँ/ना मानो तो बहता पानी’ दत्तू ने दूसरा मौलिक प्रस्ताव रक्खा कहो तो चोरी को सिर्फ स्वामित्व की अदला-बदली नाम दे दें और ये साबित कर दें कि वो हुई ही नहीं’ जवाब में इशारा मिला या समय इसके भी पुख्ता प्रमाण नहीं हैं लेकिन तात्कालिक तौर पर चुपा गए दत्तू. फिर समझदारी या सलाह से उन्होंने अनुसन्धान के लिए वो चीज़ माँगी जो इधर लोगों के पास इफ़रात थी. समय. मिल गया. पूरी रिसर्च कर डाली गई. पहले इस बात पर अनुसन्धान किया कि किस बात पर अनुसन्धान करना है. फिर उस बात पर अनुसन्धान किया. फिर इस अनुसन्धान पर अनुसन्धान किया. साइड बाई साइड इस बात का भी अनुसन्धान किया गया कि निगरानी कैसे हो? उधर दत्तू को ऑन ट्रैक रखने के लिए इन्दर बाबू से काम वापस नहीं लिया गया था. उनको इस अनुसन्धान की निगरानी करने का काम भी सौंपा गया. इसके ऊपर का परम् सत्य ये था कि दोनों ही टीमों में आपसी सम्बन्धों के अनगिनत परम्यूटेशन कॉम्बीनेशन थे. कोई किसी का सगा था कोई किसी का मुँहलगा. अब मामला ये बना कि निगरानी पर अनुसन्धान किया जा रहा था और अनुसन्धान पर निगरानी. जिसको निगरानी पर लगाया था उसकी निगरानी हुई और जिसे अनुसन्धान करना था उसका अनुसन्धान. सिस्टम की पारदर्शिता के लिए इस चेक एंड बैलेंस एंड बाँट एंड डंडी को आदर्श बताया गया है. चेक एंड बैलेंस से कई डिग्री ऊपर का मामला है. इसे पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते हैं.

लोगों पर इसका अपवर्तन अजीब ही होता. लोग घर से निकलते तो निगरानी वाले घूरने लगते, घर में घुसते तो अनुसंधान वालों की पूछताछ के बाद. सोते तो नींद में भी पीछा होता लगता, जागते तो डायरी और पेन लिए किसी को खटिये पर झुका पाते. कुछ ही दिनों में लोग ये भूल गए कि मामला फूलों की चोरी का था. उन्हें लगने लगा था कि कोई चीज़ है जो जाती है, टकराती है, फिर वापिस आती है, टकराती है, फिर जाती है.

उधर बगियार्क में अब फूल पत्तियों की चोरी की जगह पेड़ों की जड़ें खुदी हुई मिलने लगीं थीं और जिम्मेदार लोगों की बैठक इस बात की होने लगी थी कि इसपर पहले निगरानी बैठाई जाए या अनुसन्धान.

हीरामन आँखे शून्य में गड़ाता और बताता कि ‘लोगों को तो भूलने की नेमत मिली है लेकिन मैं याद रखने के लिए अभिशप्त हूँ. इस पूरे मामले की एक दूर की कड़ी बतकुच्चन मामा से जुड़ रही थी. आपको तो पता ही है कि बतकुच्चन सुग्गा मिश्रा के मामा ठहरे. जब वो अपने घर यानि सुग्गा के ननिहाल में थे तो वहां के बगीचे की सारी हरी पत्तियाँ चुरा कर चूरा कर देते थे फिर एक लाल दवाई में उसे घिसकर पीते थे. जाने कैसी कब्ज़ थी उनकी और जाने कौन था वो सलाहकार डॉक्टर जिसने ये नुस्खा बताया था कि बस पत्तियों के काढ़े से मिटती थी वो कब्ज. जब वो बगीचे में घुसकर पत्तियाँ तोड़ते थे तब अनुसंधान टीम के कुछ सदस्य इनके लिए चहारदीवारी पर खड़े होकर चौकीदारी किया करते थे. तो समझो ये नातेदारी आज की नहीं है। और हां, यही वो मिथकीय समय था जब सुग्गा मिश्रा को उनके मामा और बतकुच्चन को उनका भांजा प्राप्त हुआ था.’

हीरामन को इतिहास से बाहर खींचकर ये पूछने पर कि वो सब तो ठीक है पर फूलों, पत्तियों का क्या हुआ, क्या सही चोर पकड़ा, पीटा, घसीटा गया, हीरामन एक हल्की खंखार के बाद आख़िरी खुलासा सा करता ‘मानोगे नहीं लेकिन फूलों की चोरी वास्तव में एक साक्षात भ्रम था. दरअसल उन्हीं दिनों मुहल्ले में सद्भावना भवन नाम से एक मल्टीपरपज़ कम्युनिटी हॉल बनाया जा रहा था. फूलों पत्तियों की चोरी का माहौल बनाकर, ध्यान भटकाकर असली चोरी वहां हुई थी. ये बहुत बाद में पता चला कि वहां नींव से ईंटें चुरा ली गईं थीं.’

इस खुलासे के बाद हमेशा हीरामन को बड़ी तीव्र ग़ुस्ल की ज़रूरत महसूस होती और वो कहानी आधी छोड़कर चला जाता. गजोधर, लालमन और हम पूरी कहानी जानने के लिए हीरामन के ग़ुस्ल से बाहर आने का इंतज़ार करते रह जाते.

आज भी वो इंतज़ार जारी है क्योंकि ग़ुस्ल जारी है क्योंकि चोरी जारी है.

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

 

अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता). 

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Girish Lohani

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