समाज

मोलाराम को झूठी ख्याति प्राप्त हुई

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सुदर्शनसिंह (1815-1859 ई.) पवित्र और धार्मिक विचार का व्यक्ति था और उसको कला तथा साहित्य में अनन्य रुचि भी. वह स्वयं एक लेखक था और उसने अपनी स्मृतियां भी लिखी हैं . उसने मोलाराम और उसके साथी मानूक तथा चैतू को भी संरक्षण प्रदान किया . इन चित्रकारों ने हिन्दू ग्रन्थों और पुराणों आदि पर चित्र बनाये, परन्तु मोलाराम के विषय में आनंद कुमार स्वामी ने लिखा हैं कि “उसको झूठी ख्याति प्राप्त हुई. मोलाराम को यह ख्याति इस कारण भी प्राप्त हुई, कि उस समय परचित पहाड़ी चित्रकारों में केवल वह ही जीवित रह गया था. अठाहरवीं शताब्दी के अन्तिम चरण तथा उन्नीसवीं शताब्दी के बहुत से रेखाचित्र तथा रंगीन चित्र जो पहाड़ी शैली के हैं त्रुटि से मोलाराम के नाम से जोड़ दिये गये हैं.” अतः चित्रों के पुनः अध्ययन की आवश्यकता हैं.
(Garhwal School Painting Painters)

1910-11 ई० में आयोजित इलाहाबाद की प्रदर्शनी में डा. आनन्द कुमारस्वामी ने मोलाराम के छः चित्र खरीदे. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के अनुसार मोलाराम के संग्रह में उसके पिता मंगतराम, पितामह हीरानन्द और पड़पितामह श्यामदास तथा उसके अपने पुत्र ज्वालाराम, प्रपौत्र हरीराम तथा शिष्य ज्वालाराम तथा चैतू के बनाये हुये सहस्त्रों चित्र थे. यह निश्चित हैं कि मोलाराम के पास अनेक चित्रकारों के चित्रों का खासा संग्रह था. वह सम्भवतः इन चित्रों पर अपना नाम डाल देता था क्योंकि मोलाराम के प्रपौत्र बालकराम ने लखनऊ में श्रायोजित ‘ऑल इंडिया एग्जीबिशन’ में 1925 ई० के जनवरी मास में मोलाराम के जो रंगीन रेखा-चित्र प्रदर्शित किये वह नितान्त भद्दे और बेकार थे, और उसके पितामह के नाम से जोड़ने योग्य नहीं हैं. मुकुन्दीलाल बैरिस्टर ने मोलाराम के कुछ चित्रों की प्रशंसा की हैं, परन्तु जिन चित्रों को उन्होंने मोलाराम का माना हैं उनमें से कुछ सम्भवतः मोलाराम के बनाये नहीं हैं.

मानकू तथा चैतू की कृतियों को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता हैं कि वह मोलाराम के शिष्य नहीं थे बल्कि मानकू नैनसुख का पुत्र मानकू, गुलेर का चित्रकार था और उसके बनाये चित्र राजा अनिरुद्धचन्द के समय में गढ़वाल आ गये थे अथवा वह स्वयं भी गढ़वाल आया. चैतू नामक चित्रकार को नैनसुख के पुत्र कुशला के पौत्र गुरुदास का पुत्र माना गया हैं. परन्तु यह भी हो सकता हैं कि यह दोनों गढ़वाल के चित्रकार ही हों क्योंकि मानकू तथा चैतू नाम बहुत प्रचलित नाम थे.

एन. सी. मेहता ने गढ़वाल के राजा नरेन्द्र शाह से प्राप्त एक चित्राधार (एलबम) का अध्ययन करते समय मानकू नामक चित्रकार का नाम ‘राधा कृष्ण’ के एक भद्दे चित्र पर संस्कृत के छन्द में पाया. मानकू को कार्ल खण्डालावाला ने कांगड़ा का चित्रकार माना हैं और उनका मत हैं कि उसने गढ़वाल में चित्र बनाये, जो भ्रामक हैं. उसका नाम एक अन्य चित्र – ‘आंख मिचौनी-की पृष्ठिका पर लिखा मिलता हैं. यह चित्र रेखांकन, रंग संयोजन तथा वातावरण की दृष्टि से उत्तम हैं और उन्होंने गुलेर शैली का माना हैं. इस चित्र में चांदनी रात्रि में कृष्ण तथा ग्वाला ‘आंख मिचौनी’ का खेल खेलते दिखाये गये हैं. एक ग्वाल-बालक ने कृष्ण की आंखों को हाथ से ढक रखा हैं और छुपने के लिए पीछे देख रहा हैं – कृष्ण उसका हाथ हटा कर सब देख रहे हैं. यह चित्र भी वातावरण तथा रचना की दृष्टि से गुलेर कांगड़ा शैली का नहीं हैं.
(Garhwal School Painting Painters)

मानूक के समान चैतू के विषय में भी अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई हैं. उसका नाम एन. सी. मेहता संग्रह के एक चित्र ‘यादव-स्त्रियों का अपहरण’ पर अंकित हैं. इस चित्र का रेखांकन उत्तम हैं और चित्र में एक आकृति का डेढ़ चश्म चेहरे को छोड़कर शेष सब आकृतियों के चेहरे सवाचश्म बनाये गये हैं. चैतू के बनाये हुए कुछ चित्र पी. सी. मनक संग्रह तथा ‘भारत कला भवन’, काशी के संग्रह में सुरक्षित हैं. उसके चित्र रेखा, शैली तथा वर्ण विधान के कारण पहचाने जा सकते हैं. यदि वह नैनसुख का वंशज था तो मानकू से पर्याप्त छोटा और परवर्ती होना चाहिए और मोलाराम से भी परवर्ती होना चाहिए.

चैतू के कुछ भद्दे चित्र उपलब्ध हैं जो पौराणिक कथा रुकमिणी-प्रणय पर आधारित हैं. एन. सी. मेहता के अनुसार यह चित्र चेतू की प्रारम्भिक रचनाएं हैं जो भ्रामक विचार हैं. अनुमानतः यह चित्र उसने गढ़वाल के राजघराने के लिये नहीं बल्कि किसी साधारण कलाप्रेमी के लिए बनाये और वह गढ़वाल का चैतू था. इन चित्रों का कागज, रंग तथा जिल्द, जिसमें यह चित्र बंधे हैं, बहुत निम्न कोटि के हैं और गढ़वाल के हैं. उसके दो उत्तम चित्र ‘सती का तप’ धौर महादेव की सभा’ क्रमशः मनक और ‘भारत कला भवन’ संग्रह में सुरक्षित हैं. यह चित्र शैली की दृष्टि से रुक्मिणी-प्रणय कथा के चित्रों में बहुत उत्तम हैं, और इनमें चैतू की कला शैली की समस्त विशेषताओं का पूर्ण रूप से विकास दिखाई पड़ता हैं.
(Garhwal School Painting Painters)

चैतू ने अपने चित्रों में प्राकृतिक दृश्यों को अधिक महत्व नहीं दिया हैं. उसकी आकृतियों में सरल रंग और रेखांकन में छन्दमय गोलाई हैं. उसको रेखा पर पूर्ण अधिकार था और उसने शक्तिशाली रेखा का प्रयोग किया हैं यह सारी विशेषताएं गुलेर शैली के प्रतिकूल हैं. उसने अपने चित्रों में अलंकरण की अपेक्षा विषय को प्रमुखता प्रदान की हैं. उसने महान पुरुषों की आकृतियों को अनुपात में बड़ा आकार प्रदान किया हैं. उसका एक अन्य चित्र, जिसमें राम और लक्ष्मण राजधानी अयोध्या को छोड़कर वन जा रहे हैं, सुन्दर हैं.

एन. सी. मेहता ने इस चित्र का विवरण देते समय उसके सरल रंग विधान की ओर संकेत किया हैं. इस चित्र में सफेद, पीले तथा लाल रंग प्रमुख हैं, जो राजस्थानी शैली के द्योतक हैं. चैतू ने स्त्रियों के कपड़ों की फहरन बड़ी सुन्दरता के साथ दिखाई हैं. चैतू ने गीत-गोविन्द, बिहारी तथा मतिराम की काव्य रचना पर आधारित चित्र भी बनाये. उसके चित्र गुलेर शैली की अपेक्षा बहुत सशक्त और सरल हैं.

जैसा पहले बताया जा चुका हैं ढबाला में कांगड़ा के राजा अनिरुद्धचन्द के आने से (लगभग 1830 ई. में) कांगड़ा की कला और कलाकर भी सम्भवतः गढ़वाल आ गये. इस प्रकार कांगड़ा के चित्रों का संग्रह भी गढ़वाल में आ गया. गढ़वाल की पर्वतीय कला पर कांगड़ा कला का गहरा प्रभाव पड़ा और राजा सुदर्शनशाह के काल में स्थानीय प्रतिभा की जागृति हुई.

मोलाराम के पश्चात उसके वंश में चित्रकला का व्यवसाय चलता रहा और मोलाराम के पुत्र ज्वालाराम (1788-1808 ई.), पड़पोत्र तुलसीराम, हरीराम तथा बालकराम तक इस परिवार में वंश परम्परागतरूप से चित्रकला का व्यवसाय चलता रहा. तुलसीराम की मृत्यु 1950 ई० में हुई और साथ ही चित्रकला भी इस वंश से लोप हो गई. अनुमानतः गढ़वाल शैली के चित्रों का अच्छा संग्रह गढ़वाल के स्व. नरेश नरेन्द्रशाह के उत्तराधिकारी महाराजा मानवेन्द्रशाह के पास सुरक्षित हैं, वैसे कुछ चित्र स्व. वैरिस्टर मुकुन्दीलाल के निजी संग्रह में भी हैं.

गढ़वाल शैली के कुछ चित्र ‘भारत कला भवन’ काशी में सुरक्षित हैं. देहरादून निवासी कैप्टन सूरबीर सिंह के पास भी गढ़वाल शैली की कृतियां बताई जाती हैं. 1774 ई. में रूहेला सरदार हाफिज रहमत खां के पतन के बाद बरेली, रामपुर, धामपुर, नजीबाबाद के रुहेला चित्रकार भी गढ़वाल में आ बसे थे जिनसे रुहेला प्रभाव भी इस शैली में व्याप्त हो गया था और रुहेला चित्र भी गढ़वाल आ गये जो शैली तथा विधान में सर्वथा भिन्न हैं और सरलता से पहचाने जा सकते हैं.
(Garhwal School Painting Painters)

प्रकाश बुक डिपो बरेली से प्रकाशित डॉ. अविनाश बहादुर की किताब ‘भारतीय चित्रकला का इतिहास’ से साभार

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