Featured

1972 के विधानसभा चुनाव में पिथौरागढ़ की जनता ने निर्दलीय उम्मीदवार डी. के. पाण्डे को भारी मतों से विजयी बनाया

यदि आज किसी विधायक को आबकारी मंत्री बना दिया जाए तो उसका बेडा पार. मंत्री हो जाने की बात तो दूर की, यदि किसी दमदार विधायक को शराब का ठेकेदार विरोध में खड़े होने वालों को खरीदने की जिम्मेदारी भी दे दे तो सिर कढ़ाई में यह फर्क है तब और अब में कि जब गोवद्धन तिवारी को आबकारी मंत्री का पद भार सौंपा गया था तो वो रो पड़े थे और तीन माह तक उन्होंने इस विभाग का पद नहीं संभाला. Forgotten Pages from the History of Haldwani-21

जब नेताओं के मिजाज के रंग बदलने की बात सामने आती है तो एक अलग ही नजारा सामने आता है जो दल शासन में होता है वह शराब की नीलामी कराता है जो विरोध में होता हैं सड़कों पर शोर मचाता है, जेल जाने का नाटक करता है. श्याम लाल वर्मा जैसे कद्दावर नेता शराब की नीलामी के विरोध में जहॉं धरने पर बैठते थे, वहीं उन्हें शराब की नीलामी के प़क्ष में नैनीताल मे जूलूस निकालते हुए भी देखा गया. Forgotten Pages from the History of Haldwani-21

स्व. गोवर्द्धन तिवारी की साफ -सुथरी राजनीति की साख का ही परिणाम था कि उनके पुत्र वर्तमान में चल रही धींग – मुश्ती की राजनीति में स्थान नहीं बना सके. उनके दूसरे पुत्र विजय कुमार तिवारी ने हल्द्वानी से ‘लोकालय’ नाम से एक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया, जो अब भी प्रकाशित हो रहा है.

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि पहले कांग्रेस पार्टी का ही वर्चस्व था वहीं धीरे-धीरे अन्य दलों विशेषकर भाजपा ने भी धर्म के नाम पर अपनी पैठ बनाई लेकिन बुनियादी परिवर्तन किसी पार्टी में नहीं आया. बसपा हो या उक्रांद, सबके चेहरे सामाजिक बैमनस्यता को लेकर ही इस कथित प्रजातंत्र को हांकते नजर आए हैं. दरअसल प्रजातंत्र  की लोक हित में ‘आत्मोत्सर्ग’ की मूल भावना का हान्स हो जाना ही इस दुगर्ति का कारण बना है.

आजादी के बाद सुविधाभोगी राजनीति ने जहां स्वतंत्रता सेनानियों की (अपवाद को छोड़ कर) भीड़ में इजाफा कर अपराधियों को तक लाभान्वित कर डाला, अब उत्तराखण्ड में राज्य आंदोलनकारियों के नाम पर राजनीति की जाने लगी है. ईमानदारी से यदि देखा जाए तो इस स्वतः स्फूर्त आन्दोलन में आन्दोलकारी का चयन करना और हजारों-हजार की आन्दोलकारी भीड़ को किनारे कर स्वयं को आन्दोलनकारी कहना निहायत घटिया बात होगी. हां इस आन्दोलन में मरने वाले, मुजफ्फरनगर कांड के पीड़ित तथा कुछ चन्द लोगों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. लेकिन हमारे लिए ऐसा प्रजातंत्र आया कि सब कुछ पा जाने की होड़ में दसों को धक्का मार कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं. एक उम्मीद जगी थी कि उत्तराखण्ड क्रान्ति दल तमाम बिसंगतियों के जाल को तोड़कर बाहर आएगा.

1979 में जब उत्तराखण्ड क्रांति दल पृथक राज्य की मांग के साथ राजनीति में उतरा तब डॉ. डी. डी. पन्त, इन्द्रमणि बडोनी, जसवंत सिंह बिष्ट, विपिन त्रिपाठी जैसे ईमानदार लोग इसमें दिखाई दिए लेकिन अब सुविधाभोगी राजनीति ने इस दल और इस दल से जगी उम्मीद को पूरी तरह ध्वस्त कर रख दिया है. राजनीति के चेहरा दिन प्रति दिन विद्रूप और भयावह होता जा रहा है. प्रजातंत्र के नाम पर जिस तरह अराजकता बढ़ती जा रही है उससे लगता नहीं है कि प्रजातंत्र जिन्दा रह पाएगा. बढ़ता आतंकवाद शायद इसी अराजकता का परिणाम है.

24 मार्च 1911 के दिन जन्मे,  मूल रूप से ढोलीगांव निवासी प्रबुद्ध अधिवक्ता डी. के. पाण्डे जब रूस की यात्रा से लौटे तो पं. गोविन्द बल्लभ पंत ने दो बार उनके पास मंत्री बनाने का प्रस्ताव भेजा, जिसे उन्हेंने ठुकरा दिया. पांडे जी पृथक पर्वतीय राज्य के समर्थक थे और इसी मांग को लेकर वे कई बार नैनीताल – बहेड़ी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े. उस समय उत्तराखण्ड क्रांति दल जैसी न कोई संस्था थी और न पृथक राज्य की मॉग करने वालों का कोई संगठन. अलबत्ता कामरेड पी.सी.जोशी ने पृथक राज्य की बात अवश्य की थी और उसका एक प्रारूप भी तैयार किया था.

पांडे जी ने के. सी. पन्त के खिलाफ कई बार चुनाव लड़े लेकिन हर बार भारी मतों से हार गए. उन्हें हार जाने में कोई कष्ट नहीं होता था. वे न केवल हल्द्वानी क्षेत्र में, वरन तराई भर में काफी लोकप्रिय थे. किन्तु वे किसी राजनैतिक दल के प्रत्याशी न होने के कारण इतने बड़े संसदीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को नहीं जुटा पाते थे. साथ ही उस समय कांग्रेस पार्टी का ही वर्चस्व हुआ करता था और लोग आंख मूंद कर कांग्रेस प्रत्याशी के नाम पर मतदान किया करते थे.

राजनैतिक स्वार्थ भी लोकप्रियता को पीछे छोड़ देता है. इसके अलावा जिन समर्थकों की भीड़ उनके पास जुटती थी वह निष्ठावान नहीं थी. वे उनसे प्रचार के लिए धन तो ले लेते थे लेकिन गाड़ियों में बैठकर इधर-उधर घूमते रहते और मस्ती करते. शाम को जमघट जुटता तो वे उनकी स्थिति मजबूत होने की डींगें हांकते. पांडे जी मस्त किस्म के आदमी थे और वे उनकी दावत-पानी का इंतजाम कर देते.

पिथौरागढ़ में महाविद्यालय में एक विवाद के चलते सज्जनकुमार नामक एक छात्र की पुलिस की गोली से मौत हो गयी. इस बात से पुलिस प्रशासन को लेकर वहॉ भारी रोष फैल गया. इस केस की पैरवी के लिए पांडे जी पिथौरागढ़ गए. उनकी वाकपटुता पूर्ण पैरवी ने अधिकारियों को पसीना-पसीना कर दिया. इसका प्रभाव ने केवल पिथौरागढ़ शहर में, वरन् पूरे इलाके में ऐसा हुआ कि 1972 में विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ खड़ा होने के लिए उन्हें पुरजोर तरीके से आमंत्रित किया गया. नैनीताल जिले के तमाम अधिवक्ताओं के अलावा अन्य लोग उन्हें चुनाव लड़ाने के लिए पिथौरागढ़ पहुंच गए. मैंने पिथौरागढ़ में रह कर उनकी प्रचार सामग्री प्रकाशित करने का काम अपने हाथ में ले लिया. उनके पक्ष में माहौल ऐसा बना कि कांग्रेस पार्टी के लोग भी खुले तौर पर और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से उनके साथ हो गए.

पूर्व विधायक हीरा सिंह बोरा तब कांग्रेस प्रत्याशी थे. बाद में पिथौरागढ़ से ही कांग्रेस विधायक के रूप में चुने गए लीलाराम वर्मा तब सरकारी वकील थे और उनका सोरघाटी प्रिंटिंग प्रेस नाम से एक छापाखाना था. देखरेख के अभाव में वह घाटे पर ही चलता था. उसी प्रेस में मैंने स्वयं पांडे जी के लिए प्रचार सामग्री छापना शुरू कर दिया. उस समय पिथौरागढ़ में बिजली की व्यवस्था जनरेटर से हुआ करती थी और दिन में 12 बजे से रात्रि 12 बजे तक बिजली मिला करती थी. इसी अवधि में छपाई का काम भी हो सकता था. बहरहाल पांडे भारी मतों से विजयी हो गए, किन्तु विधानसभा में एक निर्दलीय विधायक क्या कर सकता था. 21 अक्टूबर 1976 को पांडे जी का निधन हो गया. उनके निधन के बाद उनके पुत्र कमल किशन पांडे विधायक निर्वाचित हुए. Forgotten Pages from the History of Haldwani-21

जारी…

पिछली कड़ी का  लिंक

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

14 hours ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

17 hours ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

2 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

2 days ago

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

3 days ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

3 days ago