समाज

तब बची गौड़ धर्मशाला ही यात्रियों के लिए इकलौता विश्राम स्थल थी हल्द्वानी में – 1894 में बनी

[एक ज़माने में तराई-भाबर का भी इकलौता बाजार था हल्द्वानी का मंगल पड़ाव]

हल्द्वानी में आने-जाने वालों के लिए इकलौता विश्राम स्थल थी बची गौड़ धर्मशाला. कहा जाता है कि बची गौड़ ने इस धर्मशाला का निर्माण 1894 में कराया था. यह धर्मशाला करीब ढाई बीघे के क्षेत्रफल में बनाई गयी थी. जानकार लोग बताते हैं कि वर्तमान जिलाधिकारी कैम्प कार्यालय, आवास और उनके आसपास के आउटहाउस बची गौड़ की ही ज़मीन पर बनाए गए.

मूल रूप से सतबूंगा, पट्टी रामगढ़ जिला नैनीताल के निवासी बचीसिंह गौड़ हल्द्वानी की बसासत शुरू होने के दौरान ही यहाँ आ गए थे. उस समय लकड़ी के कारोबार के प्रतिष्ठित कारोबारी दानसिंह बिष्ट मालदार और सड़क,पुल निर्माण कार्यों के ठेकेदार बचीसिंह गौड़ थे. कारोबार के अलावा बची गौड़ सामाजिक कार्यों में खुलकर योगदान किया करते थे. अल्मोड़ा, रानीखेत, सतबूंगा तक हर पांच किलोमीटर पर उन्होंने धर्मशालाएं बनवाईं. उन्होंने इलाहाबाद और हरिद्वार जैसे तीर्थनगरों में भी ऐसे ही निर्माण किये.

हल्द्वानी की इस धर्मशाला का बहुत सा हिस्सा फिलाहल दूसरों के कब्ज़े में है. बची गौड़ की धर्मशाला का पूरा क्षेत्र रिकार्डों में शास्त्रीपुंज के नाम से दर्ज है. यहाँ पीपल और बरगद के विशाल पेड़ों के अलावा खुली नहर भी हुआ करती थी. यात्रियों के आवागमन का केंद्र होने के कारण यहाँ मटर, आलू, रायता और छोले-चाय वगैरह के खोमचे लगने शुरू हुए. मटर-छोले बिकने के कारण इसको मटर गली के नाम से पहचाना जाने लगा. आज मटर गली हल्द्वानी का संकरा लेकिन सबसे जाना-पहचाना स्थान है.

बची गौड़ की संपत्ति कई स्थानों पर फैली हुई थी. संपत्ति के वारिस के लिए भी कोर्ट में बरसों तक विवाद चलता रहा. बची गौड़ की सन्ततियां अपने पैतृक स्थान सतबूंगा से पलायन कर हल्द्वानी से सटे हुए कठघरिया के पास बचीनगर में बस चुके हैं. बची गौड़ का परिवार आज भी हर साल सावन और चैत्र के महीनों में भंडारे का आयोजन करवाता है.

(स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी-स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर)

सीरीज जारी रहेगी.

[यह भी देखें : एक ज़माने में तराई-भाबर का भी इकलौता बाजार था हल्द्वानी का मंगल पड़ाव]

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago