(पिछली क़िस्त: माफ़ करना हे पिता – 4)
माँ की मौत के साल बीतते-बीतते पिता जब्त नहीं कर पाये और दूसरी शादी की बातें होने लगीं. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे बताया गया कि मेरी देखभाल कौन करेगा. घर, खेती-बाड़ी सब वीरान हो जायेंगे. यह सब बहाना था, बकवास था.
पिता साफ झूठ बोल रहे थे. कारण शुद्ध रूप से शारीरिक था, इतनी समझ मुझमें तब भी थी (बाकी आज भी नहीं). पिता अपने निजी, क्षणिक सुख के लिये शादी करना चाह रहे थे. मुझे देखभाल की ऐसी कोई जरूरत नहीं थी और खेती-बाड़ी ऐसी माशाअल्लाह कि आम बो कर भी बबूल न उगे. पिता ने बड़ा ही अराजक किस्म का जीवन जिया था. अपनी जवानी का लगभग तीन चौथाई हिस्सा हरिद्वार, मुरादाबाद, बिजनौर जैसी जगहों पर किसी छुट्टा साँड सा बिताया था. बाद में उनके जीजा जी ने पकड़-धकड़ कर उनकी शादी करवायी थी. जहाँ तक मैं समझता हूँ,उनकी शादी उस समय के हिसाब से काफी देर में हुई थी. पिता मुरादाबाद में किसी भाँतू कॉलोनी का जिक्र अक्सर किया करते थे कि गुरू हम वहाँ शराब पीने जाया करते थे….. बाद में मेरे एक दोस्त ने भाँतू कॉलोनी के बारे में जो मुझे मोटा-मोटा बताया, उसे मैं यहाँ जानबूझकर नहीं कह रहा. क्योंकि हो सकता है कि बात गलत हो और भाँतू कॉलोनी का कोई शरीफजादा मुझ पर मुकदमा लेकर चढ़ बैठे. पिता कहते थे कि हमने अपना ट्रांस्फर बिजनौर या मुरादाबाद से देहरादून इसलिये करवाया ताकि हम जौनसार की ब्यूटी देख सकें. देखी या नहीं, वही जानें.
तो पिता ने दूसरा विवाह कर लिया. नतीजतन बाप-बेटे के बीच जो एक अदृश्य मगर नाजुक-सा धागा होता है उसमें गाँठ पड़ गयी, शीशे में बाल आ गया. पिता के पास शायद वह आँख नहीं थी कि उस बाल को देख पाते. उस समय वह सिर्फ अपनी खुशी देख रहे थे. मानो मैं गिनती में था ही नहीं. अगर था भी तो शायद वो मान कर चल रहे थे कि उनकी खुशी में मैं भी खुश हूँ या कुदरती तौर पर मुझे होना चाहिये. मैं इस तरह का बच्चा नहीं था कि पूड़ी पकवान और हो हल्ले से खुश हो लेता, बहल जाता. पिता जो कर रहे थे वह मुझे हरगिज मंजूर नहीं था. लेकिन मैं उन्हें रोक भी नहीं सकता था. विमाता से मैं कई सालों तक हूँ-हाँ के अलावा कुछ नहीं बोला. मजबूरी में बोलना भी पड़ा तो ऐसे कि जैसे किसी और से मुखातिब होऊँ. आज भी किसी संबोधन के बिना ही बातचीत करता हूँ. दोषी मेरी नजर में पिता थे, विमाता की क्या गलती ? पिता ने मेरे लिये अजीब सी स्थिति पैदा कर दी थी. मैं उनकी इस हरकत (शादी) को कभी भी नहीं पचा पाया. जाहिर सी बात कि मैं कोई सफाई नहीं दे रहा, सिर्फ अपनी स्थिति और मानसिक बनावट का बयान कर रहा हूँ. विमाता का व्यवहार कभी मेरे लिये बुरा नहीं रहा. संबंध हमारे चाहे जैसे रहे हों पर मान में मेरी ओर से कोई कमी नहीं और मान मेरी नजर में कोई दिखावे की चीज नहीं.
विमाता की एक बात ने मुझे तब भी काफी प्रभावित किया था. शादी के एकाध महीने बाद वह एक दिन पूड़ी पकवानों की सौगात लिये मेरी ननिहाल अकेले जा पहुँची कि मुझे अपनी ही बेटी समझना, इस घर से नाता बनाये रखना. ऐसी बातें जरा कम ही देखने में आती हैं. आज मेरे संबंध ननिहाल में चाहे तकरीबन खत्म हो गये हों पर गाँव में मेरा जो परिवार है उनके ताल्लुकात मेरी जानकारी में अच्छे हैं, सामान्य हैं.
इस शादी से पिता शुरूआती दिनों के अलावा कभी खुश नहीं रह पाये. साल भर भी नहीं बीतने पाया कि लड़ाई-झगड़े शुरू हो गये. मनमुटाव का ऐसा कोई खास कारण नहीं, बस झगड़ना था. पिता महिलाओं के प्रति एकदम सामंती नजरिया नहीं रखते थे (उनके कद के हिसाब से सामंती शब्द कुछ बड़ा हो गया शायद). गाँव में उनका मजाक इसलिये उड़ाया जाता कि यह आदमी अपनी बीवी को तू नहीं तुम कह कर पुकारता है. बावजूद इसके झगड़ा होता था. हाँ पिता काफी हद तक टेढ़े थे, कान के कच्चे और कुछ हद तक पूर्वाग्रही भी. ऐसे लोग हर जगह होते हैं जो दोनों पक्षों के कान भर कर झगड़ा करवाते और खुद दूर से मजा लेते हैं. विमाता का भी यह दूसरा विवाह था, एक तरह की अल्हड़ता मिजाज में काफी कुछ बची रह गयी थी और सौंदर्यबोध का सिरे से अभाव. हालाँकि अपनी नजर में कोई भी फूहड़ नहीं होता, सभी का अपना-अपना सौंदर्यबोध होता है. पिता बड़े सलीकेदार, गोद के बच्चे को भी आप कह कर बुलाने वाले और कबाड़ से जुगाड़ पैदा करने वाले आदमी थे. नहीं निभनी थी, नहीं निभी.
पिता के दिमाग की बनावट बेहद लचकदार थी. वो कई मामलों में वैज्ञानिक सोच रखने वाले, परम्पराओं के रूप में कुरीतियों को न ढोने वाले व्यक्ति थे. उनका गाँव वालों से कहना था कि हमें मडुवा-मादिरा जैसी परम्परागत और लगभग निरर्थक खेती को छोड़ ऐसी चीजें उगानी चाहिये कि जिनकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है. खुद हमें इन चीजों को खरीदना पड़ता है. मसलन हल्दी, अदरक, गंडेरी, आलू, दालें वगैरा. फलों के पेड़ और फूल भी. हमें शहरों में जाकर बर्तन मलने, लकड़ी बेचने जैसे जिल्लत भरे कामों के करने की जरूरत नहीं है. जहाँ तक जंगली जानवरों द्वारा फसल को नुकसान पहुँचाने की बात है, अगर सारा गाँव इस काम को करने लगेगा तो बाड़ और पहरे का भी इंतजाम हो जायेगा. एक अकेला आदमी ऐसा नहीं कर सकता. उनके दिमाग की बनावट को समझने के लिये एक और मिसाल देने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा. गाँव में कोई किसी को लोटे के साथ अपने खेत में बैठा देख ले (रिवाज दूसरे के खेत में ही बैठने का है) तो गरियाने लगता है कि अरे बेशर्म तुझे गंदगी फैलाने को मेरा ही खेत मिला ? बैठा हुआ आदमी बीच में ही उठ कर किसी और के खेत में जा बैठता है. पिता के विचार इस बारे में जरा अलग और क्रांतिकारी थे. उनका कहना था कि एक तो तुम उसके खेत को इतनी महान खाद मुफ्त में दो और बदले में गाली खाओ, क्या फायदा ? क्यों न धड़ल्ले से ससुर अपने खेत में जाकर बैठो. खुला खेल फर्रुखाबादी.
(जारी)
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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