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रामलीला पर्वतीय जनजीवन की ‘लाइफ-लाइन’

रामलीला भारतीय जनमानस की एक ऐसी तस्वीर है, जिसमें कोई भी भारतीय अछूता नहीं है. राम ऐसे जननायक थे कि उन्होंने निर्विवाद रूप से भारतीय संस्कृति के मूल्यों, मर्यादाओं को मानकर अपना जीवन एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है. भारत के प्रत्येक कोने-कोने में रामलीला का मंचन अपनी-अपनी भाषा, वेशभूषा, लय एवं ताल के साथ होता आ रहा है. यह एक ऐसी सदाबहार नदी की भांति आध्यात्मिक व सार्वभौमिक विचाराधारा है जिसमें यद्यपि पानी की मात्रा कम हो सकती है, लेकिन सूख नहीं सकती. राम भारतीय जनमानस के मूल आदर्श है इसीलिये रामलीला का मंचन एवं उसका महत्व प्राचीन समय से आज तक महत्वपूर्ण है.
(Ramleela Life-line of Hills)

यद्यपि विकास संचार माध्यमों, रेडियो, टी.वी., सिनेमा डी.जे.सी.डी. आदि ने मनोरंजन तथा शिक्षाप्रद रामलीला मंचन पर भी अपना प्रभाव डाला है, तथापि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग समयों पर फसल की कटाई के उपरान्त खाली समय का सदुपयोग करते हुए रामलीला का मंचन किया जाता है. आज भी हमारे उत्तरांचल में सीमांत क्षेत्रों तथा अन्या गावों में रामलीला का मंचन/अभिनीत किया जा रहा है. फिर बरसात की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में धान की रोपाई तथा मौसमी फसलों के कारण लोग अपने खेती के कामों में व्यस्त हो जाते हैं.

रामलीला के मंचन के सन्दर्भ में मुझे अपने बचपन की याद है कि रामलीला नवम्बर व दिसम्बर के महीने में होती थी. रामलीला की तैयारियॉं होते ही हम बच्चे बहुत ही आनन्दित होते थे. तब रोशनी की व्यवस्था पेट्रोमैक्सों से होती थी. स्टेज (मंच) लकड़ी के स्लीपरों से बनाया जाता था. दरियों की व्यवस्था होती थी. स्त्रियों एवं पुरूषों के लिए अलग-अलग बैठक की व्यवस्था होती थी. स्वयंसेवी भी रामलीला में अनुशासन की व्यवस्था करते थे. रामलीला मंचन के दौरान शान्ति व्यवस्था, प्रकाश व्यवस्था, पात्रों की चाय पानी की व्यवस्था तथा मंच पर रामलीला के कहॉं से कहॉं तक होने की घोषणा करने वाला उद्घोषक आदि एक सुव्यवस्थित तरीके से अपना-अपना दायित्व निभाते थे.
(Ramleela Life-line of Hills)

मुझे 30-35 साल पहले की रामलीला की याद आती है. जब देवप्रयाग में भगवान राम (रघुनाथ) के मन्दिर के चबुतरे में रामलीला का मंचन होता था, तो रामलीला 50 कि.मी. के दायरे में प्रसिद्ध थी. देवप्रयाग ऋषिकेश से बदरीनाथ मार्ग पर अवस्थित एक प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थस्थल है जहां से ‘गंगा’ बनती है. (अलकनंदा-भागीरथी का संगम है, जिनके मिलने पर नदियों का नाम ‘गंगा’ हो जाता है.)

नवम्बर व दिसम्बर माह की सर्दी में रामलीला का मंचन धूमधाम से होता था. सारे इलाके में रामलीला का प्रचार प्रसार होता था. रात में देवप्रयाग बस स्टैण्ड पर बस खड़ी करके ड्राईवर-कंडक्टर रामलीला देखने बड़ी भक्तिभाव से आते थे तथा रामलीला कमेटी को यथाशक्ति दान भी देते थे. जब रामलीला में श्रीराम के विवाह का दिन होता था तो ऐसा अनुभव होता था कि सचमुच किसी की शादी हो रही है. रामचन्द्र जी की बारात में लगभग सारा कस्बा अपनी शिरकत करता था. महिलायें भी भगवान राम की बारात फूल फैंकती थी. तब सारा इलाका राममय होता था. हारमोनियम, तबले की संगत में रामलीला की चौपाईयां लयताल के साथ गायी जाती थीं. सीता स्वयंवर हो या परशुराम-लक्ष्मण संवाद, बाली-सुग्रीव का युद्ध हो या अशोक वाटिका में हनुमान जी का उत्पात, सीताहरण हो या मेघनाथ लक्षमण युद्ध. रामवन गमन का दृश्य हो या कैकेयी का कोप भवन, दशरथ का विलाप आदि दृश्य रामलीला के सम्पूर्ण साहित्य व रस से सरोवार होते थे. बच्चे होने के नाते हम लोग भावुक दृश्यों में रो जाया करते थे. ऐसी रामलीला 30-35 साल पहले होती थी. रामलीला के पात्रों के प्रति भगवान जैसी श्रद्धा रखी जाती थी. रामलीला मंचन के दौरान पात्र भी बुरी आदतों से परहेज रखते थे. (बीड़ी, शराब,भांग आदि) ताकि जिस पात्र को वे अभिनीत करें वह वास्तविकता के नजदीक जान पडे़. भावुक दृश्यांं में महिलाओं की सिसकियॉं रामलीला के प्रति उनकी भक्तिभावना का परिचायक थी.
(Ramleela Life-line of Hills)

रामलीला में भक्ति, एव सद्चरित्र एवं मूल्यों के साथ-साथ कॉमिक (प्रहसन) का भी प्रचलन था. समसामयिक घटनाओं पर आधारित हास्य भूमिका करने वाले पात्रों की जोरदार मांग रहती थी. छोटे बच्चे तो अधिकांशतया कामिक-कामिक… चिल्लाने लगते थे. बीच-बीच में उद्घोषक रामलीला कहॉं तक आज चलेगी तथा दानदाताओं की सूची भी पढ़ते जाते थे. इससे रामलीला कमेटी तथा पात्रों का खर्चा, कपड़े रंगमंच सज्जा कलाकारों व वाद्य यंत्र बजाने वालों की चाय पानी भी हाती थी. यह एक ऐसी परम्परा हमारे उत्तराखण्ड में थी कि लोग स्वेच्छा से रामलीला के मंचन में कपड़े, पैसे, समान से सहायता करते थे तथा भारतीय संस्कृति के इस वाहक परम्परा का निर्वाह करते थे.

कालान्तर में समय के साथ मनोरंजन के साधनों में अत्यन्त प्रगति हो जाने पर रामलीला के प्रति लोगों का झुकाव कम हो गया है. इस रामलीला को कुछ आधुनिकता परस्त समय की बरबादी व अनावश्यक मानते हैं. लेकिन आज भी ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में रामलीला मंचन होता है. आधुनिक वाद्ययंत्रों, प्रकाश व्यवस्था से रामलीला का भव्य रूप हो गया है. कॉंमिक का स्थान फिल्मी नृत्यों व गानों ने ले लिया है. तथापि रामलीला का वर्चस्व कायम है. अब प्रोफेसनल लोग रामलीला में काम करने का पारिश्रमिक ले रहे हैं, फिर भी भक्ति भावना से ओत-प्रोत लोग रामलीला को मनोरंजन का सर्वमान्य हल देखते हैं. हमारे उत्तरांचल में ग्रामीण क्षेत्रों में जो लोग पढ़े लिखे नहीं हैं, लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं, लेकिन वे रामायण, महाभारत व पौराणिक कहानियों को मुंहजुबानी याद रखते हैं और नाती पोतों को सुनाते हैं. यद्यपि वे साक्षर नहीं हैं किन्तु वे शिक्षित है. इसका श्रेय हमारी रामलीला मंचन को ही जाता है. दादी नानी से सुनती आई कथायें मां अपनी बेटी, तथा बेटी अपनी बेटी, पोती को सुनाती. यह परम्परा एक अच्छी शिक्षित महिला का निर्माण करती है. प्रौढ़ शिक्षा का मूलमंत्र भी यही है.

आज रामलीला का स्वरूप जैसा भी हो, रामलीला हमारे संस्कारों व चरित्र में रची बसी है. इस समृद्ध परम्परा को हमें संरक्षित रखना होगा ताकि आज की सिनेमाई संस्कृति में यह परम्परा विलुप्त न हो.
(Ramleela Life-line of Hills)

पुरवासी के तेइसवें अंक में छपा डॉ. सोहन लाल भट्ट का लेख.

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Girish Lohani

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