उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यह पोस्ट पिछले माह अपनी फेसबुक पर लगाई थी. पूर्व मुख्यमंत्री ने यह पोस्ट इन्वेस्टर्स समिट समाप्त होने के अगले दिन लगाई थी. जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री अभी भी उत्तराखंड की राजनीति में सक्रिय हैं तो पोस्ट में राजनीति छौंक का होना लाजमी है इसके बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री ने कुछ ऐसी बातें भी लिखी हैं जो राज्य के समृद्ध परंपरागत व्यंजनों और बाजार को जोड़ती है. यह बात जरुर है कि इस तरह की बातें नेता विपक्ष में रहकर ही खूब करते हैं पर विपक्ष के नेताओं की बातें भी पढ़ी और सुनी जानी चाहिये. यहां पढ़िये पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की फेसबुक वाल से एक माह पुरानी पोस्ट – सम्पादक
(Food of Uttarakhand)
8 और 9 दिसंबर 2023 को फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट देहरादून में आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट की व्यंजन सूची देखी, इन व्यंजनों को ही देश के सर्व शक्तिशाली लोगों से लेकर राज्य में पधारे हुए सभी मेहमानों को परोसा गया, इस सूची को आप भी जरा गौर से देखिएगा, एक बार नहीं, दो-तीन बार देखेयेगा, उसमें बड़ी मुश्किल से मडुआ और झंगोरा एक किनारे पर दुबके से अपना स्थान बना पाये हैं.
मेरी समझ है कि इन्वेस्टर्स समिट में केवल विशुद्ध उत्तराखण्डी व्यंजन जिसमें हरिद्वार का चावल, बुरा-घी और धुले मास की दाल सहित विभिन्न उत्तराखंडी व्यंजनों को परोसा जाना चाहिए था. स्वीट डिश में उत्तराखंडी जैविक गुड़ के साथ अरसा, बाल मिठाई, सिंगोड़ी और डीडीहाट का खैंचुआ, आगरा खाल की रबड़ी को स्थान मिलना चाहिए था. आतिथ्य सतकार के एक भव्य समारोह में हमारे लिए अवसर था कि हम अपने व्यंजन, आभूषण, संस्कृति, कला, हस्तशिल्प को प्रदर्शित करें, कुछ किया भी गया, ऐसा नहीं है कि कुछ नहीं किया गया. लेकिन व्यंजन जिसे लोग याद रखते हैं वहां हम संकोच दिखा गये, डेढ़ दर्जन के करीब राष्ट्रीय व्यंजनों के साथ हमारे दो-एक खोये से लग रहे होंगे, अपने घर में बेगानेपन का एहसास तकलीफ पहुंचाता है. यदि हम इन्वेस्टमेंट की दृष्टि से भी देखें व्यंजन व्यवसाय उत्तराखंड में एक बड़ा सेक्टर बन सकता है, जिसमें रोजगार और आर्थिक समृद्धि, दोनों देने की बड़ी क्षमता है.
(Food of Uttarakhand)
हर साल लगभग 3 करोड़ लोग चारधाम, कावड़ और तीर्थाटन सहित पर्यटक के रूप में हमारे राज्य में पधारते हैं. इनमें से कितने प्रतिशत लोगों से हम अपने उत्तराखंडी परंपरागत व्यंजनों का परिचय करवा पाए हैं, शायद 001 प्रतिशत! बद्रीनाथ जी में भी लोगों को इडली-डोसा, छोला-भटूरा या लंगर की पूरी, आलू, सूजी का स्वाद चखना पड़ता है. लंगर जितने भी लगते हैं सब स्थानीय प्रशासन के परमिशन से लगते हैं, लंगर लगाएं लेकिन उत्तराखंडी व्यंजनों का लंगर लगाएं. जितना प्लास्टिक का कचरा हर साल उत्तराखंड आने वाले स्वादु लोग छोड़कर के जा रहे हैं उसको साफ करने में जो राज्य का व्यय हो रहा है और जो पर्यावरणीय क्षति हो रही है उसका अनुमान लगाया जाए तो हमको धार्मिक पर्यटन और दूसरे पर्यटनों से उतनी आमदनी नहीं हो रही है, जितना नुकसान हो रहा है.
इन्वेस्टर्स समिट में देश के प्रख्यात उद्योगपति श्री सज्जन जिंदल ने इस व्यथा को समझकर केदारनाथ सफाई अभियान में एक भारी निवेश की बात कही है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए. हम अपने आइडियाज, अपनी सोच और समझ को इंट्रोड्यूस नहीं कर रहे हैं. छोटे राज्य का यही तो अर्थ है कि आप धीरे-धीरे अपने आइडियाज को आगे बढ़ाइये और लोगों को उन आइडियाज पर लेकर के आइये. आखिर वह भी तो लोग हैं जिन्होंने लंदन और अमेरिका जाकर समोसा-ढोकला सर्किट खड़ा कर दिया है, आज समोसा व ढोकला अंतर्राष्ट्रीय पहचान हैं, बंगाली रसगुल्ला एक स्पष्ट पहचान है.
राजस्थान, घी चूरमा बाटी को परोसता ही परोसता है, यदि आप राजस्थान के रिसॉर्टस में जाइए. यहां तक कि बिहार ने भी अपने सत्तू को इंटरनेशनलाइज कर दिया है उसके स्वाद और गुणों को खूब मार्केट या खानपान की शौकीनों से स्वीकृति करवा ली है और अब आप देखिएगा आने वाले दिनों में लिट्टी चोखा भी आपको देश के बाजारों में ठेलियों में बिकता हुआ दिखेगा. खैर पंजाब और वहां के खाने की तो जितनी तारीफ करूं वह कम है. क्योंकि उन्होंने उसको बड़ा सरल, सहज, मगर अपनी जबरदस्त पसंद बनाकर के रखा है. आपको पंजाब के किसी भी होटल के बोर्ड और मेनू कार्ड में आपको रशम-भात, इडली-बड़ा, डोसा व सांभर नहीं मिलेगा. वहीं के पंजाबी व्यंजनों के बोर्ड आपको लगे हुए मिलेंगे और उसी में से अपनी पसंद बनानी होती है. यदि कोई और व्यंजन आप चाहते हैं तो उसके लिए विशेष ऑर्डर दिया जाता है. कश्मीर के कुछ गउस्तआवए के स्वाद का कोई मुकाबला नहीं, मगर उनकी मार्केटिंग भी हमारी तरह ही ढीली-ढाली है. इसलिये अब धीरे-धीरे कश्मीर के बाजारों में भी गुस्तावे के स्थान पर पंजाबी व्यंजन अपना स्थान बना रहे हैं. उत्तराखंडी व्यंजनों में भी अपार स्वाद के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए उपयोगिता है. लेकिन हम इसकी मार्केटिंग नहीं कर पा रहे हैं और मार्केटिंग के जो अवसर होते हैं उसमें हम संकोच कर जाते हैं और वही संकोच मुझको 8-9 दिसंबर को मेहमानों को परोसे जाने वाले फूड मेनू में दिखाई दिया.
(Food of Uttarakhand)
कहीं यह सब मेरी बातों से आप यह अंदाज न लगाने बैठ जाइए कि मैं कोई खानपान विशेषज्ञ हूं. सत्यता तो यह है कि मैंने चूल्हे देवता के कभी ठीक से दर्शन किये ही नहीं. मैं जिन वस्तुओं को खाते हुए दिखाई देता हूं, वो तुम मेरी श्रीमती जी या हमारी जो घर की सहायिका हैं, कभी-कभी मेरी बेटी या कुछ और लोग बनाते हैं तो मैं उन व्यंजनों को खाते हुए अपनी वीडियो आपके साथ साझा करता हूं, उसके पीछे मेरा एक लक्ष्य यह है कि जो उत्तराखंडी जैविक उत्पाद हैं उन जैविक उत्पादों की बाहर पहचान आगे बढ़ सके. मैंने ऐसा छोटा सा प्रयास गेठी, सिंघाड़े की कचरी, नींबू की सन्नी, बिच्छू घास की कापली, सूप और चाय, अब चंद्रा की कापली और चाय के साथ करने जा रहा हूं.
अब मैं पिनालू अर्थात अरबी की कचरी की भी वकालत कर रहा हूं और पिनालू अर्थात अरबी के पत्तों के जो पत्यूड़े हैं, उसके गाभे की जो कापली है, इन सब चीजों को इसलिए मैं अपने खान-पान का हिस्सा बनाता हूं और उसके वीडियो आप सबके साथ साझा करता हूं ताकि उनके उत्पादकों को इसका लाभ मिल सके. जिस गेठी की कभी कोई पहचान नहीं थी, आज वह गेठी 60-70 रुपये किलो बिक रही है, यह एक छोटा सा उदाहरण है और भी बहुत सारी चीज़ें हैं जिनको प्रचारित-प्रसारित करने में मेरा थोड़ा सा प्रयास सफल रहा है. ऐसा नहीं है कि अब मैं कोई भोजन विशेषज्ञ हूं बल्कि खाने के मामले में मैं बड़ा लापरवाह हूं. मेरी तो आधी से ज्यादा जिंदगी सड़क में, गाड़ी और रास्ते में खाते-खाते बीती है, सबसे कम समय मैं खाने में लगाता हूं, लेकिन वह मेरी अपनी मजबूरियां हो सकती हैं. मगर जो उत्तराखंड के व्यंजनों का क्षेत्र है उसकी गुणवत्ता पूर्णतः स्थापित है. हमें उसे खान-पान के बड़े बाजार का हिस्सा बनाना है.
उत्तराखंड में दसों तरीके के व्यंजन हैं, झंगोरे की खीर तो यूं ही हमने बात कह दी क्योंकि उस समय झंगोरे कोई पूछता नहीं था तो मैंने कहा कि झंगोरे को आगे लाओ, क्योंकि उसके चावलों में जो तासीर है वह तासीर और दूसरे चावलों में नहीं है, इसलिये कोदो झंगोरा खाएंगे के कॉन्सेप्ट से प्रेरित हरीश रावत ने सरकारी तौर पर झंगोरे की खीर को बढ़ावा दिया और घी संक्रांत को राज्य सरकार की ओर से उत्तराखंडी व्यंजन संक्रांति के रूप में मनाए जाने लगा. घी सक्रांत का मतलब व्यंजन त्योहार, कुछ तो लोग होंगे हमारे जिन्होंने सक्रांत का नाम फुलदेई, घी सक्रांत, हरेला, चैतोला रखा, मैंने भी घी सक्रांत का संदेश क्या है उस संदेश को समझकर उसको प्रचारित किया. तीन साल लगातार हमारी सरकार ने सरकार की तरफ से व्यंजन प्रतियोगिताएं रखी और लोगों को आमंत्रित किया, यहां तक की नैनीताल और टिहरी में ऐसे समारोहों का आयोजन किया. जिसमें हमने बहुत सारे नामचीन सैफ जैसे श्री संजीव कपूर आदि को बुलाया.
(Food of Uttarakhand)
झंगोरे की खीर विशाल फूड मार्केट में एक थोड़े से कहीं कोने में आगे आने का प्रयास कर रही है, लेकिन और भी बहुत सारे व्यंजन हैं हम क्यों नहीं उनको आगे ला पा रहे हैं और अपने घरों की व्यंजन शाला का हिस्सा क्यों नहीं बना रहे हैं, यह मेरा बड़ा भारी दर्द है. नेशनल, इंटरनेशनल कुछ दिनों के बाद तो चांद और मंगलयान पर ट्रैवल करने वाले भी उत्तराखंडी होंगे तो उनकी रसोई में क्यों नहीं उनके अपने व्यंजन स्थान बना पा रहे हैं, यह एक बड़ा एक प्रश्न है? हम जब कभी मिलते हैं तो एक-दूसरे से इन बातों पर चिंता और दुःख जाहिर करते हैं. हमें अपने व्यंजनों, कला-संस्कृति आदि पर गर्व भी है. मगर जब सामूहिक प्रयासों की बात आती है तो हमारा भाव रंज लीडर को बहुत हैं, मगर आराम के साथ वाला चरितार्थ हो जाता है.
आज सबसे ज्यादा देश भर में यदि किसी जनसंख्या के अनुपात में देखिए तो सबसे ज्यादा व्यंजन शास्त्री (सैफ) उत्तराखंड के लोग हैं, टिहरी में घनसाली, चम्याला एरिया तो सैफ देने वाली धरती हो गई है, सारे साउथ ईस्ट और ईस्टर्न कंट्रीज में वहीं के लोग होटल में सैफ के रूप में दिखाई देते हैं. हिंदुस्तान भर में कोई ऐसा बड़ा होटल नहीं है, जहां पांच-दस उत्तराखंडी महत्वपूर्ण स्थानों पर काम करते हुए न मिले हों! व्यंजन और व्यंजन परोसने के काम से जुड़े हुए लोगों की इतनी बड़ी फौज सहित सारे नामचीन उत्तराखंडी अपने किसी भी व्यंजन को राष्ट्रीय मेनू में सम्मिलित नहीं करवा पाए हैं.
उत्तराखंड के ही किसी होटल में देख लीजिए कि आपको इनके मेयू कार्ड में भी उत्तराखंडी व्यंजन का नाम नहीं दिखाई देगा, जब हमारे यहां के होटल में ही किसी उत्तराखंडी व्यंजन का नाम नहीं होगा तो भैया आगंतुक ऑर्डर क्या देगा? मैं सरकार से भी आग्रह करना चाहता हूं कि होटल इंडस्ट्री से बातचीत कर उनके कठिनाई को समझें और उनको प्रोत्साहन दें. मैंने देखा कि मसूरी में एक होटल है THE BRENTWOOD के नाम से उस होटल में उत्तराखंडी अनाज और दालों की भी बिक्री होती है और खाने में भी एकाध चॉइस उत्तराखंडी व्यंजन की रहती है.
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अब मैं अपने व्यंजन बनाने वालों से आग्रह करना चाहता हूं कि भैया कोई व्यंजन तो ऐसा निकालो जो चलते-फिरते रास्ते में, ठेली में, ढाबे में भी मिल सके. जम्मू श्रीनगर हाईवे में एक छोटा सा स्थान है जहां भदुरवा राजमा और चावल, घी के तड़के के साथ मिलते हैं. बड़े-बड़े लग्जरी गाड़ी वाले भी उसका आनंद लेते हैं. हमारे राज्य में भी ठेलियों और ढाबों में कड़ी-चावर, राजमा-चावल तो मिल जाता है, परंतु फाड़ू (डुबका), चुड़काणी, कापली-भात नहीं मिलता है. यदि सरकार प्रोत्साहन स्वरूप ठेली व ढाबों वालों को सस्ते दर पर चावल उपलब्ध करवाये और उनसे कहे कि आप बाजार मूल्य पर फाड़ू-आत, चुड़काणी-भात, कापली-भात बेचो तो वो खुशी-खुशी इस काम को करेंगे. आप देखिए एक ही झटके के अंदर हजारों लोग नगर पालिकाओं के अंदर लाइसेंस लेने आयेंगे और फाड़ू-भात, घी, मिर्च की कुड़की और जखिया के तड़के के साथ अपनी खुशबू बिखेरने लगेगा.
पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रास्तों में पराठों की खुशबू यात्रियों का मोहती हैं. उत्तराखंड में हमारी भरवा रोटी अर्थात गेहूं-मडुवे की मिस्सी रोटी में दाल भरकर बनने वाली जैविक भरवा रोटी किसका मन नहीं मोह लेगी! यूं भी उत्तराखंडी भरवा रोटी और लघड़ (पूरी) अपने स्वाद के लिए विख्यात है. सड़कों के किनारे ढाबों में यदि इनकी बिक्री को प्रचलन में लाया जाए और उनके साथ मूली-आलू की थिचवाणी, भांग-भंगीरे, तिमूरू की चटनी बार-बार प्रत्येक स्वादों को अपने साथ जोड़ेगी.
मेरा एक ड्रीम आइडिया था कि अपनी चौड़ी होते हुये नेशनल हाईवेज के किनारे जगह-जगह उत्तराखंडी फूड सराय और क्राफ्ट सराय विकसित किए जाएं. हमारे दक्षिण पूर्व के देशों में ऐसी सैकड़ों सराय लाखों महिलाओं को आजीविका के साथ जोड़े हुए दिखेंगे. हमने सहस्त्रधारा क्षेत्र और हल्द्वानी क्षेत्र में एक मार्ट इसी तर्ज पर विकसित किया था. आप देखिएगा हमारी बहनें जो अन्नपूर्णाएं हैं, बुनियादी जन्मजात पाक शास्त्री हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी पाक कला में पारंगतता लेती हैं तो उनमें क्षमता है कि वह हमारे व्यंजनों की खुशबू को राष्ट्रीय स्तर पर स्थान दिलवा सकेंगी. गुजरात के अंदर भी समोसा आदि-आदि जो गुजराती व्यंजन हैं सब वहां की बहनों की देन हैं, उन्होंने सारी दुनिया को अपना समोसा और ढोकला खिला दिया. उत्तराखंड के अंदर भी हमारी बहनों में यह क्षमता है कि वो भरवा रोटी, भरवा पूरी, फाड़ू-भात, चुड़काणी-भात को बुलंदियां दे सकती हैं. एक बार सशक्त राज्य प्रयास की आवश्यकता है. इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को बाजार मूल्य से सस्ते दामों पर आटा, चावल, दाल आदि उपलब्ध करवानी पड़ेंगे उन्हें आर्थिक प्रोत्साहन भी देने पड़ेंगे.
हमें एक बार सैद्धांतिक रूप से इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि व्यंजन भी एक सेक्टर है जहां संभावनाएं बनाई जा सकती हैं. हमने 2014 में इंदिरा अम्मा भोजनालयों के साथ शुरुआत की थी जिसका आज गला घोंटा जा रहा है. जब तक शीर्ष स्तर पर हम इरादा दिखाएंगे नहीं state must show its intent by action & decisions. हमको अपने व्यंजनों को पहचान देनी है, हमको अपने उत्पादों को पहचान देनी है.
प्रधानमंत्री जी ने कल इन्वेस्टर्स समिट में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही लोकल-वोकल से ग्लोबल की तरफ बढ़ो! यह एक सशक्त मंत्र है. मैं भी 2014 से इसे गुन-गुना रहा हूं. बस अंतर इतना है कि मैं घर गांव का जोगड़ा हूं, प्रधानमंत्री जी आन गांव के सिद्ध हैं. प्रधानमंत्री जी ने कहा हाउस ऑफ हिमालयाज के साथ इसको ग्लोबल भी बनाइए. मैं कांग्रेसी हूं और मोदी जी के विचारों का घोर विरोधी हूं. मगर जो बात सबके हित में है तो मैं उसकी सराहना करता हूं. हमने हिमाद्री आदि कई ब्रांड खड़े किये और आज अच्छा है कि श्री पुष्कर सिंह धामी जी ने उसको हाउस ऑफ हिमालयाज का नाम दिया. हिमालय से बड़ा दुनिया के अंदर कोई बड़ा ब्रांड नाम नहीं है, इंटरनेशनली भी नहीं है. जब आपने हिमालयाज दामन थामा है तो जरा कस कर के थामिये और उड़ान भरिये. हिच-किचाते हुए हाथों से तलवार नहीं संभाली जाती, हमें प्रहार योजनाबद्ध तरीके से करते हुए आगे बढ़ना पड़ेगा
(Food of Uttarakhand)
उत्तराखंडियत जिंदाबाद !!
हाउस ऑफ हिमालयाज जिंदाबाद!!
नोट- यह पोस्ट पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के फेसबुक से साभार ली गयी है.
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Absolutely correct message
बात तो सही है पर अपनी सरकार के रहते ये सब क्यों नहीं करा गया ? वैसे आजकल कितने उत्तराखण्डी अपना खाना चाहते हैं और जो खाना चाहते हैं उनके लिए अनाज उगाने लायक़ जमीन ख़त्म हो रही है। सीधी सी बात है कि बिकता वो है जो ज़्यादा मात्रा में और कम क़ीमत में दुकानदार के लिए उपलब्ध है। क्या हम अपने घर से शुरुआत करेंगे कि हफ्ते में कम से कम ३ दिन बिलकुल पहाड़ी खाना खाएँगे