[यह आलेख हमारे पाठक प्रबोध उनियाल ने आज यानी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भेजा है. उनका एक लेख हम पहले भी छाप चुके हैं – द लायन किंग: यदि आपस में ही हम लड़ते हैं तो फायदा किसका होता है]
एक और स्वाधीनता दिवस हम सब 15 अगस्त को मनाने जा रहे हैं. लहराते तिरंगे की शान ही निराली है. हम सब भारतीय अपने राष्ट्र ध्वज से गौरवान्वित हैं. (Food for Thought on Independence Day)
हर बार इस राष्ट्र की नींव में हजारों नए बच्चे शामिल होते हैं. उनकी आंखों में बेहतर कल का एक नया सपना है. लेकिन आजादी के बाद भी यह बच्चा गुमसुम है और उदास है उसकी पीठ में लदा भारी-भरकम बस्ता और पाठ्यक्रम का बोझ उसे निश्चित ही परेशान करता है. यह उसकी भयावह स्थिति है. (Food for Thought on Independence Day)
इन बस्तों में भरी किताबों के बीच उसकी तख्ती, मुल्तानी मिट्टी, वह कलम -दवात, जमीन से जुड़ी टाट-पट्टी, उसका बचपन, भावुक, निश्चल प्रेम सब कुछ आज कहीं खो गया.
सच मानिए! हम भी जल्दी में हैं. इस अति बौद्धिकता के युग में हमें अपने बच्चे का दिमाग बढ़ाना है. उसे कम से कम अपनी अवस्था से 10- 15 साल के आगे का दिमाग लगाना है. इस होड़ में उसे शत-प्रतिशत अंक लाने हैं.
बच्चे का स्वास्थ्य चौपट हो जाता है, वह ऐनक पहनने लगता है, सर्दी से परेशान है और खेल की दुनिया से कोसों दूर — वह गंभीर है, उसकी उछल कूद का नामोनिशान नहीं है, प्रकृति से दूर है और हृदय से भी दूर होता जा रहा है. माता पिता की परछाई से भी दूर – इन पोषक तत्वों से वह साल में कितनी बार मिलता है, जरा सोचिए!
उसके आसपास के रिश्ते- नातों का संसार ढह गया. समाज उसे क्या देगा? वह हर बार यह सोचता है. उसकी मन की सारी संचार व्यवस्था ठप हैं. इस बच्चे को सीधे एवरेस्ट पर चढ़ना चाहते हैं हम.
स्वाधीनता राष्ट्र की और राष्ट्र के चेतना पक्ष की है. बच्चे की सोई अवचेतना खिलने से पूर्व ही अ-चेतन हो जाती है. उसके विकास का सूरज उसके बस्ते के पीछे कहीं ढल रहा है. उसकी अपनी स्वतंत्रता क्या है ? क्या वह घर /परिवार /जाति -धर्म की सीमाओं को लांघकर खुलकर खेल सकता है.
अब स्कूल, स्कूल नहीं हैं, मानों बच्चों के सामुदायिक बाड़े हैं? एक बाड़े के बच्चे दूसरे से नितांत अलग दिखाए जाते हैं. एक दूसरे से ना मिल जाए इसलिए गणवेश भी अलग अलग हैं. इस अंतर से बालमन में मतभेद ही पैदा हुए हैं.
ऐसे में स्वतंत्रता दिवस की उस बच्चे के लिए क्या अर्थवत्ता है यह सोचना होगा? अपने बच्चे के बेहतर भविष्य को लेकर वह बच्चा उसका बाप दोनों चौराहे पर खड़े हैं, शायद ट्रैफिक की लाल बत्ती के हरा होने की इंतजार में!
आइए स्वतंत्रता दिवस की इस बेला पर उसकी स्वतंत्रता के बारे में भी
कुछ मिलकर सोचें. उसको बचपन में ही जल्दी से बड़ा करने की होड़ से बचें. उसका बचपन
उसके साथ रहे – बिल्कुल हँसता, गाता व मुस्कराता सा.
जय हिंद,जय भारत
-प्रबोध उनियाल
प्रबोध उनियाल पत्रकार व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. “बच्चों का नजरिया”( मासिक पत्रिका ), स्मरण (स्मृति ग्रंथ) व स्मृतियों के द्वार (संस्मरणात्मक लेखों का संग्रह) के संपादक हैं.
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