लिखा-पढ़ी से जुड़ा उत्तराखण्ड में कौन होगा जो इस शख़्स को नहीं जानता होगा. साहित्य-संस्कृति-पत्रकारिता का कोई भी आयोजन हो पुंडीर भाई खोली के गणेश की तरह सबसे पहले स्थापित हो जाते थे. बल्कि कहना चाहिए कि बिछ जाते थे. इस सबके बावजूद उन्हें मंच पर या प्रथम पंक्ति में बैठा हुआ कभी नहीं देखा जाता था. आयोजन में सबसे पहले आना, सबका मुस्कुरा कर स्वागत करना और सबसे बाद में समेट कर जाना तो जैसे उनके व्यक्तित्व का हिस्सा ही बन गया था. Fondly Remembering Surendra Pundir
लेखक-पत्रकार-शिक्षक के रूप में तो मैं उन्हें जानता ही था लेकिन उनकी क्षमताओं का असली परिचय मुझे तब मिला जब मैं लगभग दस साल पहले उनके साथ हल्द्वानी में प्रख्यात भाषाविद्, संस्कृति-मर्मज्ञ और ज्ञानकोश जैसी सैकडों महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक डी. डी. शर्मा जी से उनके आवास पर मिला था. तभी यह रहस्य भी उद्घाटित हुआ था कि शर्माजी ने अपने सृजन में जौनपुर की जो भी जानकारी दी है उसका प्रमुख स्रोत सुरेन्द्र पुंडीर ही हैं. एक घण्टे की उस मुलाकात में उन्होंने पुंडीर भाई के भेजे पिछले नोट्स की फाइल निकाल कर बहुत सारे बिन्दुओं पर चर्चा की. Fondly Remembering Surendra Pundir
टिहरी में शिक्षा-परियोजना में रहते हुए शिक्षक मास्टर-ट्रेनर के रूप में मैंने भी उनका भरपूर उपयोग किया और उन्होंने भी एक नवयुवक के समान उत्साह से प्रशिक्षण सम्पादित करने में पूरा सहयोग प्रदान किया.
लगभग दो साल पहले उन्होंनें फोन करके कहा था भाईजी जौनपुर के लोकगीतों पर काम कर रहा हूँ. जल्दी ही किताब निकलेगी, आपने इसकी भूमिका लिखनी है. सहमति देते हुए अपने अनुभव के आधार पर मैंने सुझाया था कि जौनसार और जौनपुर के लोकगीतों में बहुत कम अंतर है तो एक साथ क्यों नहीं निकालते. उस समय उन्होंने आनाकानी की थी कि जौनसार पर अलग से काम करूंगा. एक अगली मुलाकात में उन्होंने बताया था कि अब वो जौनसार-जौनपुर को एक साथ लेकर काम कर रहे हैं. समय साक्ष्य के प्रवीण भट्ट जी से कल जानकारी ली तो उन्होंने बताया कि यमुना घाटी के लोकगीत नाम से उनकी किताब प्रकाशनाधीन है. विश्वास है कि सुरेन्द्र पुंडीर की इस किताब का भी उनकी दूसरी किताबों की तरह अध्येता-पाठक उत्साह से स्वागत करेंगे.
आंदोलन हों या आयोजन, जब भी होंगे, सुरेन्द्र पुंडीर जैसे निष्काम भाव से समर्पित कार्यकर्ता के मुस्कुराते चेहरे को सदैव तलाशा जाएगा, शिद्दत से कमी भी महसूस होगी. एक व्यक्ति, एक संभावना के समय से पहले चुपचाप विदा लेकर पत्रकारिता, शिक्षा, साहित्य, सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में एक अपूरणीय रिक्तता छोड़ गए हैं, सुरेन्द्र पुंडीर. देहरादून-मसूरी की दिवंगत विभूतियों को अपने आत्मीय लेखों के जरिए सदैव याद करते थे पुण्डीर भाई. आज आपको इस रूप में सम्बोधित करते हुए बहुत कष्ट हो रहा है. आपने सिर्फ़ शरीर नहीं छोड़ा दर्जनों प्रोजेक्ट्स को भी छोड़ दिया है जिन्हें करने की सामर्थ्य जौनपुर क्षेत्र में फिलहाल किसी में दिखाई नहीं देती. Fondly Remembering Surendra Pundir
अलविदा पुंडीर भैजी तुम ही त बोल्दा छा कि जौनपुर मा बसिग्यों पर बडियारगढ़-गढ़वाल तैं बि बिसरै नि सकदू. क्या गढ़वाल अर क्या जौनपुर, तुम सैरा उत्तराखण्ड का छा भैजी अर सैरा उत्तराखण्ड तैं तुमारि मयाळि सूरत देखीक सारो मिल्द छौ. विनम्र श्रद्धांजलि.
-देवेश जोशी
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). इस्कर अलावा उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197 और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.
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