एक गांव में एक बहुत बूढ़ा अपने छोटे लड़के, बहू और अपनी औरत के साथ रहता था. उसके दो लड़के और भी थे, पर वे नौकरी की तलाश में बाहर चले गए थे और वहीं बस गये थे. बूढा अपने समय में बहुत प्रतिष्ठित भला मददगार आदमी था. वह जितना सीधा था उतनी ही औरत बहुत कर्कशा और दुष्ट थी. रात-दिन बुड्ढे को कोसती रहती थी. कच करती हमेशा कहती रहती- पागलैई भैया पागलैई भैया…
(Folk Stories of Uttarakhand)
धीरे-धीरे वृद्ध वाकई पागल हो गया. छोटा लड़का जिसके साथ वह रहता था, उससे नाराज था क्योंकि सेरे जमीन उसे बँटवारे में नहीं मिली थी. उसे यह भी दुख था कि बुड्ढे को उसे पालना पड़ रहा है. अन्य दो भाई तो हाथ झाड़कर अपने परिवार सहित शहर में मजे मार रहे हैं. मुसीबत उसके सर.
छोटे लड़के और बूढी माँ की खूब पटती थी. बुढ़िया बूढ़े से इसलिए भी नाराज थी कि उसने कभी अपने समय में अपने पद का लाभ नहीं लिया और पैसे नहीं कमाए. बस एक ही सुकून बूढ़े को था कि उसकी छोटे लड़के की बहू बहुत अच्छी पूरी सेवा भाव वाली थी. वह बूढ़े को कभी-कभी घास के ढेर में छिपाकर कभी गुड़ ले आती थी.
बूढ़े को तम्बाकू पीने का बहुत शौक था. वह समय-समय अपने समय में तैयब जी के किमाम वाला सुगन्धित तम्बाकू खूब पीता था. दूर-दूर से उसके सुगन्धित तम्बाकू की एक कश लेने बहाने से लोग उसके घर आते थे. वह अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में कभी-कभी उन खुशबूदार दिनों के जमवाड़ों को याद करता था.
एक दिन ऐसे ही एक व्यक्ति दूरदराज से आया और किसी जमाने में अपने पर बुड्ढे जी द्वारा किए उपकार के बदले उसे उसने एक खुशबूदार पिंडी भेंट की. बुड्ढे जी के जीवन तंतु खुल गए और उस दिन से रात दिन चिलम चढ़ी रहती थी और मधुर आवाज की गुड़गुड़ी में बिखरी याद सोच चलती रहती थी और बुढ़ापे में यह हुआ कि बुड्ढे जी को जोरदार खासी हो गई. रातभर खट-खट करते रहे तो बूढी और बेटा उन पर बरस पड़े, रात दिन खांसते रहते हो. तुम्हारा तो कोई काम नहीं है? हमें तो काम काजी जीव, हमें नींद चाहिए. तुम्हारा क्या ! काम के न धाम के दुश्मन अनाज के. दिनभर तोड़ते रहते हैं हम जिस्म. तुम्हारा क्या खाना भकसोरा और हडी गए.”
(Folk Stories of Uttarakhand)
बुड्ढे जी को डाँट तो पड़ ही रही थी कि अचानक बुढिया की एक नजर सिरहाने में छिपाए अम्बरी तम्बाक की पिंडी पर पड़ी. दोनों की आखों में चमक आई. लड़के ने कहा- ओहो! यह है मजा. तभी खाँसते रहते हो रातभर! जस तम्बाकू बन्द…
बुड्ढे जी चिल्लाते रहे- इसे छोड़ दो इसे छोड़ दो. इसके बिना में पागल हो जाऊँगा. पर दोनों ने वह पिंडी छीन ली. बुढ़िया ने कहा – अब कितने बौल्याओगे! क्या कसर छोड़ी है. पागल क्या हो जाओगे वह तो पागल हो ही. पागलैये भया…
फिर बूढे के बेटे ने उस तम्बाकू की मौज मारनी शुरू की. बुड्ढे जी उसकी महक संघ-सूंघकर पागल हो जाते, चिल्लाते पर कौन सुनता. इधर-उधर घूमते सर पटकते लार टपकती रहते, बहू खाने लाती तो नहीं खाते. बहू ने पति से कहा भी की कुछ खा नहीं रहे मर जाएंगे. बेटे ने कहा- अरे रहने दो. तम्बाकू न पी के अभी तक कोई नहीं मरा. ये मरेंगे…
पर अमल को तप्ति नहीं हो पाई. और जीवन की आस धूमिल हुई तो क्या जीना? बूढ़ा इतना दु:खी हुआ कि उसने अपनी बहू से कहा- ब्वारी मुझे बस बाहर उस पहाड़ की चोटी तक ले जा दे. मैं फाल मार के मर जाना चाहता हूँ.
(Folk Stories of Uttarakhand)
ब्वारी ने कहा- ये आप क्या कह रहे हैं? आत्महत्या तो पाप है. ये आप मुझसे क्यों करा रहे हैं?
बूढ़े ने कहा- जब जीवन नरक हो जाए तो फिर जीना पाप है. जीवन तो जीने के लिए होता है उसे ढोना पड़े तो क्या?
ब्बारी चुपचाप चली गई.
दूसरे दिन लोगों ने देखा कि बूढ़ा मर गया. उसकी बुढ़िया और बेटे ने खूब हल्ला मचाया खूब रोए और पीपल पानी के दिन श्राद्ध जब कर रहे थे तो खूब पकवान बनाए. सारे गाँव को बुलाया था. तभी पंडितजी ने कहा- जजमान हो! तुम्हारे बौज्यू को तम्बाकू बहुत पसन्द था. उसे भी श्राद्ध में रख दो. उनकी आत्मा तृप्त होगी.
बेटे ने कहा- हाँ, हाँ ये पंडितजी आपने ठीक कहा. उसने अपनी औरत से तम्बाकू लाने को कहा तो उसने जोर से कहा- इसे ही कहते हैं पंडित जी! जिंदे को लात मरे को भात.
यह लोककथा प्रभात उप्रेती की किताब ‘उत्तराखंड की लोक एवं पर्यावरण गाथाएं’ से ली गयी है.
(Folk Stories of Uttarakhand)
किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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सटीक और जीवंत शीर्षक ।