गरीब तो बहुत होते हैं पर वह निहंग किस्म का गरीब किसान निपट्ट दरिद्र. क्या करता कम कम खेत भी पानी जानवर की कमी से बंजर बने थे. बस यह था कि साल में खेत लाल कर देने वाले वाला हिसाब था कोई संतान भी नहीं थी. कंगाली में आटा गीला, क्या आटा ही नहीं था.
(Folk and Environmental Stories Uttarakhand)
एक दिन गर्मी में हल जोतते-जोतते वह किसान पस्त पड़ गया. होने ही वाला ठैरा महराज. खाना नहीं पहिनना नहीं, फिर यह मेहनत . फिर सुस्ताने के लिए वह एक पेड़ की छाँव में गया. वहीं वह अपनी छुईं क्वीड़ लगाने जाता था. वहाँ उसने गड़गड़ कर लोटा ऊपर करके लोटे से पीना पीया और बाद में बचा पानी पेड़ की जल में डाल दिया, कहकर, ले तू भी पी. उस जड़ में कैलाश से आए शिवजी कुछ दिनों के लिए भक्तों के वरदान माँगने से और पार्वती जी की किड़-किड़ से परेशान होकर विश्राम कर रहे थे.
पहाड़ के घर जंवाई हुए. घर जॅवाई की क्या इज्जत ! किच-किच से माथा उनका गरम था. अब सर पर पानी पड़ा तो शान्ति आई. ताप कम हुआ तो अपनी आदत से वह प्रगट होकर किसान से बोले, “बोल रे तुझे क्या चाहिए. यहाँ भी नहीं छोड़ा तूने. तुम आदमी लोग बहुत परेशान करते हो. जल्दी बोल मुझे टैम नहीं है.” अब किसान तो हकबक रह गया. क्या करे वो क्या कहे वह! मुँह खुला-का-खुला. जब अचानक कुछ मिल जाए तो बड़े-बड़े गोल हो जाते हैं, वह तो निखद किसान ठैरा.
ख़ैर किसी तरह इन्द्रियों को सावधान कर, वह वचन बोला- महाराज आप जो चाहें आपके दर्शन हो गए वही काफी. अब गरीब को तो माँगना भी तो नहीं आनेवाला हुआ. देखा ही नहीं ठैरा उसने कुछ! उसे क्या पता? अब शिवजी भी तो शिवजी ठैरे. देर होते देख उन्हें रीस भी जल्दी आनेवाली ठैरी, हैं हो! बहुत दिनों से भाँग भी नहीं चढ़ाई थी फिर पेड़ की जड़ में रहने से शरीर भी कुड़मुड़ हो गया था तो बाले – अब तू यह कहता रौ. मैं जाता हूँ. तेरे बस का कुछ नहीं. बस ये है इस पेड़ से जो तू माँगेगा मिलेगा. इस पेड़ में इतने दिन रहा तो इसे भी कुछ ताकत देनी ठैरी, वैसे मुझे शरण दी तो अपने-अपने आप हो गई ठैरी. हाँ! इससे कभी किसी के लिए बुरा मत माँगना. जब मांगा तो ताकत खतम समझ. शिवजी तो अपना त्रिशूल थामकर चले गए कैलाश और फिर किसान के दिन फिर गए. यही कहते हैं सैपो…
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कब किसके दिन फिर जाएँ, कब किन बरबाद हो जाए कुछ पता नहीं. कभी राजा भी रंक हो जाए कभी रंक पी राजा. माया जाल हुआ हो! यह संसार… किसान के मजे आ गए. पेड़ से उसने पहिले यही माँगा कि मेरे खेत लबाबलब हो जाएँ खूब ऊपजाऊँ. किसान ही जो ठहरा. फिर धीरे-धीरे और भी माँगा. उसकी जनानी की तो बहार आ गई. चेहरे में रंग आ गया. पानी पूरे मुँह में चढ़ गया. फिर बच्चा भी हो गया. फिर बढ़िया सा मकान. नौकर-चाकर. औरी जो हो गया ठैरा. फिर किसान की जनानी की और शान हो गई. धीरे-धीरे उसको आने लगा घमंड. धन की तीस हुई. वह पेड़ से इतना माँगने लगी कि पेड़ भी परेशान. वह सोचना लगा कि यह शिवजी ने अच्छा वाला मुझ पर डाल दिया. एक तो यहाँ इतने दिन मुसीबत के रहे भी. फिर जाते समय यह मुसीबत डाल गए. मै इस किसान की औरत की माँग जो पूरी करूं या फिर अपने खाना बनाऊँ. मेरी जड़ फल पत्तियाँ सब परेशान हैं.
किसान परिवार ने इतना माँगा कि उनके बच्चों को देखकर गाँव वाले कहते- देखो मंग खदुआ जा रहे हैं. एक दिन इसी पर लड़ाई किसान की जनानी की पड़ोस की जनानी से हो गई. एक बात पर चली तो फिर दूसरी बात आ गई. एक दूसरे की पोल-पर-पोल खुली. इस पर किसान की औरत रीस में आकर पेड़ से माँग बैठी कि सारे गाँव वालों के खेत बांजा पड़ जाएँ. पेड़ ने सोचा-ओहो यह हुआ हो डबलों की माया. बिना मेहनत के जब सब मिल जाता है तो ये ही हाल हो जाता है. दूसरे का बुरा भी सोचने को टैम मिल जाता है.
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उसने शिवजी को याद किया तो शिवजी आ गए. पेड़ ने अपनी सारी व्यथा बतलाई और कहा अब तो किसान को देना भी नहीं बनता. आपने ही शर्त लगाई थी वरदान में! शिवजी ने कहा-तब फिर क्या सोचना उसने दूसरे का बुरा सोचा इसलिए अब देना बन्द. पर तुमने बोझ सहा बहुत परेशान हुए मेरे कहे का मान रखा इसलिए वरदान देता हूँ कि तुम्हारे फल, फूल, पत्ते, जड़, डाल सब काम आएँगे.
पेड़, जड़ पकड़कर और भी बैठ गया – ये शिवजी वरदान दे गए या श्राप अब तो ये लालची मानुस तो मेरा कुछ न छोडेंगे पर अब वह क्या करता? शिवजी तो निकल गए. पर वह अभी भी कल्पवृक्ष च्यूरे का पेड़ बनकर शिवजी के वरदान को निभा रहा है.
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प्रभात उप्रेती द्वारा संकलित ‘उत्तराखंड की लोक एवं पर्यावरण गाथाएं’ से साभार.
किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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