पहाड़ में पानी की कमी नहीं. चौमास आते ही पहाड़ की धरती उमड़-घुमड़ बादलों से घिर जाती है. बारिश की फुहारों से तृप्त होने लगती है. वर्षा की रिमझिम यहां की ऊबड़-खाबड़ जमीन पर खड़े पेड़ों की असंख्य प्रजातियों को नवजीवन दे, उनकी गहरी जड़ों तक रिस भूमि को पर्याप्त नमी दे जाती है. चौमास की बारिश नौले धारे और प्राकृतिक रूप से बने नौलों-कुंडों, खाल-बावड़ी, नाले-सरिता को तृप्त कर तीव्र वेग से लहराई-बलखाई नदियों में समा जाती है. उच्च हिमालय के सीमांत में हिमपात होता रहता है. हिमनद जल से सीमांत वासी अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करते है. पहाड़ में न तो पानी कम है और न ही इसमें वास करने वाले जलचर.
(Fishing Policy Uttarakhand)

पहाड़ में जल की उपलब्धता पोखर, तालाब और झीलों, सरिता व नदियों में मौसम के अनुरूप भिन्न-भिन्न रहती है. इसी जल से लोगों की आम जरूरतें पूरी होती हैं तो खेती बाड़ी, पशु सम्पदा व परंपरागत शिल्प से जुड़े हज़ारों काम धंधे जल की आपूर्ति होने पर ही भकार भरते हैं. घर गोठ को संपन्न बनाते हैं.उत्त्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की प्रचुर जल सम्पदा ही तराई-भाबर में बहने वाली नदियों का उदगम हैं.

पहाड़ी इलाकों के जलस्त्रोत यहां के निवासियों के साथ पशु संपदा की दैनिक अवश्यकताओं की पूर्ति तो करते ही हैं साथ ही घट-घराट चलाने के साथ, जगह-जगह फैली गूलों से सिंचाई का अवलम्ब भी बनते हैं. इसी जल सम्पदा में पलती है मछली. यहाँ के जल स्त्रोतों में पायी जाने वाली मछली स्वाद में विशेष गुणवत्ता की मानी जाती रही है. स्थानीय स्तर पर पाई जाने वाली मछली का स्वाद भी अनोखा ही होता है. पर इसकी मांग के अनुरूप पूर्ति हमेशा ही कम बनी रहती है. इसी कारण मछली पालन में नये अनुसन्धानों से नवीनतम तकनीक का प्रयोग करते हुए, पहाड़ में “नील क्रांति” लाये जाने के प्रयास भी होते रहे.

मछली पालन को पहाड़ में की जा रही खेती और पशुपालन से अधिक लाभप्रद पाया गया है. इसका एक कारण तो यह है कि मछली पालन में प्राकृतिक आपदाओँ से खेती के सापेक्ष कम हानि होती है. एक बार मछली पालन के लिए सुरक्षित तालाब या पोंड की तैयारी हो जाए तो मछली के बीज या अंगुलिकायें छोड़ने के बाद उनका विकास स्वयमेव होता जाता है.बस कुछ सावधानियां व निगरानी चाहिए.

उत्तराखंड में मछलियों के उत्पादन हेतु प्रचुर जल संसाधन मौजूद होने के बावजूद पर्वतीय इलाकों में इनकी आपूर्ति, मांग के सापेक्ष बहुत सीमित है. मैदानी इलाकों से ही मछलियों का आयात होता है जिनमें से अधिकांश की गुणवत्ता व स्वाद पहाड़ी इलाकों की मछली के सापेक्ष कम होती है.

उत्तराखंड में मछली विकास के लिए अब मुख्यमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना को प्राथमिकता दी गई है. इसे प्रधान मंत्री मत्स्य सम्पदा योजना की तरह ही संचालित किया जायेगा. राष्ट्रीय मत्स्य पालन दिवस पर हुए कार्यक्रम में मुख्य मंत्री ने मत्स्य नीति के सन्दर्भ में घोषणा की कि अब उत्तराखंड में स्वरोजगार के लिए इस नवीन योजना का शुभारम्भ किया जायेगा, साथ ही मछली पालन को कृषि का दर्जा भी मिलेगा.
(Fishing Policy Uttarakhand)

उत्तराखंड में अभी ग्यारह हजार लोग प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से मछली पालन में जुड़े हैं. पशुपालन एवं मत्स्य विकास मंत्री के अनुसार उत्तराखंड में मछली पालन हेतु नई कार्य नीति बनाई जाएगी जिससे अगले पांच वर्षों में मछली पालन से बीस हजार लोग जुड़ सकें. राज्य में मछली पालन की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए मत्स्य पालकों को बाजार की सुविधाऐं प्रदान की जाएंगी. इस उद्देश्य से कुमाऊं और गढ़वाल में एक-एक मत्स्य मंडी खोली जाएगी तो साथ ही साथ मत्स्य व्यवसाय के लिए कृषि की भांति बिजली की दरों का निर्धारण किया जाएगा. पहाड़ के इलाकों में ट्राउट फार्मिंग को प्राथमिकता दी जाएगी. इसी के साथ पिथौरागढ़ और बागेश्वर में मछली उत्पादन के लिए रेजवेज बनाया जाएगा. मुख्य मंत्री द्वारा ढाई करोड़ रूपये की मत्स्य प्रसंस्करण इकाई का शिलान्यास भी किया गया है.

मत्स्य पालन में बेहतर प्रतिफल प्रदान करने वाले 26 मछली पालकों को मुख्य मंत्री द्वारा सम्मानित भी किया गया जिसमें नैनीताल से अनुज चतुर्वेदी व मनमोहन, अल्मोड़ा से बालम सिंह और सुनील सिंह, पिथौरागढ़ से दीप गर्ब्याल और भूपेंद्र सिंह, बागेश्वर से दलीप सिंह और दरबान सिंह, चम्पावत से राम लाल और नारायण सिंह, उत्तरकाशी से कपिल रावत और जयपाल सिंह, टिहरी से सुभाष रावत और सुन्दर लाल, पौड़ी से वीरेंद्र नेगी, जगत सिंह व अरबिंद नेगी, रुद्रप्रयाग से कुंवर सिंह और कमल सिंह, देहरादून से संदीप कपूर और सुभाष क्षेत्री, हरिद्वार से बालेश देवी व मत्स्य जीवी सहकारी समिति, भिस्तीपुर मुख्य रहे. प्रधान मंत्री मत्स्य सम्पदा योजना से मछली पालकों को पुरस्कृत भी किया गया.

भारत में नियोजित विकास के अधीन मछली पालन में उत्तरोतर वृद्धि तो हुई पर इसमें उत्तराखंड का योगदान सीमित ही रहा. जबकि उत्तराखंड विविध नदियों का उदगम स्थल है जिसमें जल प्रवाह की गति आठ हजार पांच सौ घन मीटर प्रति सेकंड से अधिक ही रहती है. मछली पालन हेतु यहां ऐसे स्थान हैं जहाँ नदियों और गधेरों से वर्ष भर जल प्राप्त होता रहता है. कुमाऊं में घाट,नाचनी,थल,मुवानी,पिथौरागढ़,बागेश्वर, कपकोट, सोमेश्वर व कौसानी ऐसे मुख्य स्थान हैं जहां नदियों के समीप तालाब बना मछली पालन से प्राप्त प्रतिफल की बेहतर संभावनायें हैं. गढ़वाल में भागीरथी, अलकनन्दा, टोंस, सौंग, नयार, अलगार, अम्लवा, डोडीताल और यमुना के जलागम मत्स्य विकास हेतु महत्वपूर्ण हैं. पहाड़ में पायी जाने वाली मछली की मुख्य प्रजातियां महाशीर, गोल्डन महाशीर, ट्रॉउट, गूंज, व कलबसु हैं. तालाबों में पाली जाने वाली मुख्य स्थानीय प्रजातियों में कतला, रोहू और मृगल या नैन हैं तो विदेशी प्रजातियों में सिलवर कार्प, ग्रॉस कार्प व कॉमन कॉर्प मुख्य हैं.

पहाड़ी इलाकों में छोटे -छोटे सीढ़ी नुमा खेत होने के कारण यहां मैदानी इलाकों की भांति बड़े तालाब बनाना संभव नहीं हो पाता .इसलिए उपलब्ध भूमि के हिसाब से छोटे संचय तालाब बनाए जाते हैं. सहायक नदियों के साथ गाड़ -गधेरों व झरनों से बहते पानी को गूल -नहर से लाकर संचय तालाबों में वर्ष भर के लिए जमा किया जाता है.
(Fishing Policy Uttarakhand)

नये तालाब बनाने में ऐसी भूमि का चुनाव किया जाता है जिसमें दोमट या चिकनी मिट्टी सिमार वाली जगह पर हो.एकसार भूमि की कमी से पहाड़ों में बड़े तालाब बनाना संभव नहीं होता . ऐसे में सामान्य रूप से कम से कम एक नाली भूमि पर मछली पालने के लिए तालाब ही उचित विकल्प होता है जो मछलियों के पनपने हेतु उपयुक्त रहता है. अधिक जगह होने पर तो इससे बड़े तालाब भी बनाए गए हैं. मछली पालने के लिए जो तालाब बनाए जाते हैं, उसकी लम्बाई और चौड़ाई तीन और एक के अनुपात में रहती है . सबसे अच्छा तालाब वह बनेगा जिसकी चौड़ाई पांच मीटर से ज्यादा न हो. लम्बाई इसी अनुपात में ज्यादा रखी जा सकती है.ज्यादा लम्बाई रखने से मछली अपनी स्वाभाविक गति से तैरती हैं. वहीं चौड़ाई कम हो तो तैयार मछली को जाल चला कर पकड़ने में आसानी होती है. तालाब इस तरह बनाए जाते हैं कि उसमें पानी का स्तर एक मीटर तक तो बने ही रहे.

मत्स्य के बीज डालने से पहले सभी सावधानियों के साथ तालाब तैयार कर लिए जाते हैं. तालाब पूर्ब -पश्चिम दिशा में बनाना सबसे अच्छा माना जाता है जिससे मछलियों को सूरज की रोशनी ज्यादा मिल पाती है. तालाब की गहराई पश्चिमी किनारे में कम व पूर्ब में अधिक रखी जाती है. तालाब में पानी आने व निकास के रस्ते को मजबूती से बना उसके दोनों सिरों पर जाली जरूर लगती है जिससे उसमें पानी में पनपने वाले कीट न पनपें व जल में पलने वाले अन्य जलचर प्रवेश न कर पाएं. तालाब के बिल्कुल समीप पेड़ों की डालियां भी काट देते हैं ताकि तालाब को पर्याप्त रोशनी मिल सके. जल में पनपने वाली सिमार और काई को भी हटाते रहते हैं, तभी तालाब के भीतर सूरज की रोशनी पर्याप्त मात्रा में जा पायेगी. जिस तरह फसल उगाने के लिए खेत में खाद डाली जाती है उसी तरह मत्स्य पालन में भी खाद व उर्वरकों का प्रयोग तालाब की मिट्टी को पोषक लवण प्रदान करने में सहायक होता है. खेतिहरो के तालाब की सौइल टेस्टिंग कर उन्हें यह बताना भी जरुरी हो जाता है कि उनके तालाब के पानी को किन पोषक पदार्थों व उर्वरकों की जरुरत है जिससे उनके द्वारा पाली जा रही मछलियों की वृद्धि संभव हो सके.

पहाड़ में पूर्ववृत एक अकेली या एक प्रजातीय मछली का पालन किया जाता रहा. इनके बीज या अंगुलिकाऐं सरकारी संस्थाओं के द्वारा वितरित किये जाते रहे. यह बीज कॉमन कार्प के होते थे जिनसे प्राप्त उत्पादन दर काफी कम होती थी. फिर कई प्रकार की मछलियों की “बहुप्रजातीय मत्स्य पालन”की विधि पर जोर दिया गया. मत्स्य वैज्ञानिक बताते हैं कि कई प्रजाति की मछलियों का चयन कर उन्हें तालाब में पालने में उन मछलियों के आहार ग्रहण की आदत पर निगरानी रखना जरुरी हो जाता है. साथ ही इनकी वृद्धि की दर, एक दूसरे को बिना नुकसान पहुंचाने वाली मछलियों का चयन, इनको दिए जाने वाले पूरक आहार के साथ मत्स्य बीजों की सुलभता पर भी ध्यान देने की जरुरत रहती है.इनके साथ ही स्थानीय स्तर पर पायी जाने वाली किस्म को भी ध्यान में रखना जरुरी है. ऐसा न हो कि बाहर से ला कर डाली गई मछलियां लोकल प्रजाति का सफाया कर दें.इसका ताजा उदाहरण नैनीताल की झील है जिसमें एक बार बाहर से लाई गई मछली डालने पर वह तेजी से तो बढ़ी, साथ ही पहले से पनप रही स्थानीय मछलियों को खाती भी गईं.

पहाड़ों में मछली उत्पादन की वृद्धि के लिए मत्स्य विज्ञानियों ने लगातर प्रयोग कर सिद्ध किया है कि एक प्रजातीय मत्स्य पालन से चार गुना अधिक प्रतिफल बहुप्रजातीय मत्स्य पालन से प्राप्त होता है. पहाड़ी इलाकों में कतला, रोहू, व नैन मुख्य स्थानीय प्रजातियां हैं. दूसरी और सिलवर कार्प, ग्रास कार्प व कॉर्प बाहर से लाई गई प्रजातियां रहीं. रोहू, कतला और नैन सामान्यतः गरम पानी में पायी जाने वाली मछलियां हैं. बहु प्रजातीय मत्स्य पालन में यदि फरवरी माह में इन्हें तराई से अंगुलिकाओं के रूप में ला पहाड़ में बने तालाबों में अन्य मछलियों की मात्रा से एक निश्चित अनुपात में डाल दिया जाये तो यह तेजी से बढ़ती हैं और आठ माह के भीतर इनका वजन पांच सौ से सात सौ ग्राम तक हो जाता है. पहाड़ में फरवरी के बाद ही तालाबों में पानी का तापमान पंद्रह डिग्री से अधिक हो पाता है तभी पाली गई मछलियां तेजी से बढ़ पाती हैं.

स्थानीय व विदेशी मछलियों की आहार ग्रहण करने की आदत तालाब की भिन्न-भिन्न सतहों पर अलग-अलग होती है. कतला और सिल्वर कार्प सतह में रह कर, रोहू तालाब के बीच या मध्य सतह, मृगल और कॉमन कोर्प निचले स्तर या तल्हट से अपना भोजन लेती हैं. ग्रास कॉर्प जलीय पौधों से अपना आहार ग्रहण करतीं हैं. विविध प्रकार की मछलियों को तालाब में पालने से वहां उपलब्ध आहार का बेहतर उपयोग भी संभव होता है.

ऐसे तालाब जिनमें अधिक प्लवन या प्लेक्टॉन हों उसमें सतह पर रहने वाली मछलियां जैसे कतला और सिल्वर कॉर्प तेजी से पनपती हैं.यदि वनस्पति प्लवक अधिक हों तो सिल्वर कार्प की अच्छी वृद्धि देखी जाती है. ऐसे तालाब जो ज्यादा गहरे हों और उनमें जलीय वनस्पति अधिक हो उनमें मृगल और कॉमन कॉर्प तेजी से पनपती हैं. जलीय वनस्पति पर ग्रास कार्प मछली अन्य की तुलना में तेजी से बढ़तीं हैं. बड़े वजन की मछलियों के वजन ग्रास कार्प (1-1.5किलो )सिल्वर कार्प (800ग्राम )कतला व रोहू (700ग्राम )नैन, सिल्वर कार्प, मिरर कार्प (500ग्राम )व स्केल कार्प (250gram)औसत रूप से अनुमानित हैं.

उत्तराखंड बनने पर सरकार द्वारा समय समय पर मत्स्य पालन व इसके विकास हेतु कई सुविधाऐं प्रदान की गईं. इससे पहले मत्स्य पालन, कृषि विस्तार प्रणाली का ही एक भाग था.1950 में खाद्य उत्पादन बढ़ाओ कार्यक्रम के आरम्भ होने पर मत्स्य पालन समप्रसारण हेतु ‘केंद्रीय अंतरदेशीय मत्स्य अनुसन्धान संस्थान’ की स्थापना बैरकपुर में की गई जिसका उद्देश्य मछली पालन की अभिवृद्धि हेतु मछली के बीजों का वितरण और इसका प्रचार -प्रसार करना था. जिन राज्यों में मछली के बीज उपलब्ध न हों वहां इस संस्थान के द्वारा बीज का वितरण प्राथमिकता रखी गई. संस्थान के प्रयास से पश्चिमी बंगाल में ‘मत्स्य बीज सिंडिकेट’ की स्थापना हुई. फिर दूसरी योजना में 19 ‘मत्स्य पालन सम प्रसारण इकाइयां’ बनाई गईं.1976 में इन इकाईयों को बंद कर दिया गया और इसके सभी दायित्व ‘राज्य मत्स्य पालकों की विकास समिति’ के हवाले कर दिया गया.
(Fishing Policy Uttarakhand)

1973 में केंद्रीय सरकार ने ‘मत्स्य पालकों की विकास एजेंसी’ गठित की जो मछली पालन में रुचि रखने वालों का चयन कर उन्हें मछली पालन का प्रशिक्षण दे. इसके साथ ही ग्राम पंचायत के तालाबों को पट्टे पर देना, बीज उपलब्ध कराना तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा ऋण की सुविधा इसके द्वारा तय की गई.1978 में विश्व बैंक परियोजना लागू हुई जो उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाकों, पश्चिमी बंगाल उड़ीसा और मध्य प्रदेश में पालकों को ऋण की सुविधा देने के साथ आधुनिक ‘कार्प हैचरी काम्प्लेक्स’ के अंतर्गत ‘राज्य मत्स्य विकास निगम’ की स्थापना करे. पांचवी योजना में केंद्र द्वारा ‘संप्रसारण योजना’ लागू की गई थी जिसका उद्देश्य मछली पालकों को सेवा किट व दृश्य -श्रव्य सहायक यँत्र वितरित किये जाने थे. इससे पूर्व 1965 से भारतीय कृषि अनुसन्धान, दिल्ली द्वारा ‘राष्ट्रीय प्रदर्शनी परियोजना’ (एन डी पी) आरम्भ की गईं. इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य, “देखना ही विश्वास है” रहा. वैज्ञानिकों द्वारा तालाबों में जा कर नई व सुधरी हुई तकनीक का प्रदर्शन कर मछली पालकों को प्रशिक्षित करने पर जोर दिया गया .

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की पचासवीं वर्षगांठ पर “प्रयोगशाला से खेत तक” योजना में नई तकनीक को किसानों तक पहुंचाते भूमिहीन ,लघु व सीमांत किसानों को मत्स्य पालन का प्रशिक्षण दिया जाता रहा. प्रशिक्षण को जरुरी समझते हुए 1974 में ‘कृषि विज्ञान केंद्र’ बनाए गए जो सामुदायिक खेती, बागवानी, पशु पालन और मछली व्यवसाय की बेहतर ट्रेनिंग दे सकें. कोचीन और भुवनेश्वर में तो ऐसे मत्स्य संस्थान खुले ही, उत्तराखंड में भीमताल व चम्पावत में शीत मत्स्य अनुसन्धान केंद्र खोला गया.पहाड़ी इलाकों में बहते जल में मछली पालन हेतु अनुदान दिया गया तो साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर या निजी क्षेत्र में मछली पालने हेतु इनके बीज व हैचरी स्थापित करने के लिए लिए गये बैंक ऋण पर अनुदान भी नियत किया गया. चम्पावत में भी मछली विकास सम्बन्धी प्रशिक्षण सुविधा दी गईं.

उत्तराखंड सरकार ने मत्स्य पालन के विकास हेतु जिन सुविधाओं को स्थापित किया उनमें तालाबों को दस साल के लिए पट्टे पर देने की व्यवस्था की गई. इसके साथ तालाबों का सुधार व पहाड़ी व मैदानी भागों में नये तालाबों का निर्माण मुख्य रहे. मत्स्य पालकों के तालाबों में मिट्टी व पानी की जाँच की निःशुल्क व्यवस्था और मछली पालन हेतु तकनीकी प्रशिक्षण पर भी जोर दिया गया.इसके साथ ही ‘इंटीग्रेटेड फिश फार्मिंग’ जिसमें मुर्गी व बतख भी सम्मिलित थे के साथ ‘प्रानसीड छोटी हैचरी’ को स्थापित करने पर भी ऋण व अनुदान की व्यवस्था की गई. इसके अलावा ‘मत्स्य जीवी सहकारी समितियों ‘के गठन के साथ जलाशय प्रबंध व्यवस्था हेतु कई सुविधा प्रदान की गईं.

पहाड़ी इलाकों में मछली चाव से खाई जाती है जिसकी अधिकांश आवक मैदानी इलाकों के जलाशयों व नदियों से होती है. इन्हें बर्फ में सुरक्षित कर लाया जाता है. पहाड़ में मछली की व्यापक मांग बनी रहती है पर पहाड़ के जल स्त्रोतों से प्राप्त मछलियों की आपूर्ति हमेशा कम ही बनी रहती है. पहाड़ में पायी जाने वाली मछलियों को नदियों व उनकी सहायक नदियों के किनारे या गाड़-गधेरों से जाल डाल कर या कांटे से पकड़ा जाता है. अधिक मछली प्राप्त करने के लालच में प्रायः इनके स्त्रोत में ब्लीचिंग डाल कर पकड़ा जाता है वहीं डायनामाइट व कारतूस के साथ जल प्रवाह में करंट डाल भी एकत्रित किया जाता है. इन विधियों से पहाड़ी इलाकों में पायी जाने वाली मछली की कई प्रजातियां विलुप्त होती जा रहीं हैं. इसके साथ ही उनके अंडों व अंगूलिकाओं के समाप्त होने का खतरा भी पैदा हो गया है .अनियंत्रित तरीकों से मछली का दोहन करने से पहाड़ की कई मत्स्य प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं जिनमें असैला एवं महाशीर मुख्य हैं.

कम पूंजी से अधिक प्रतिफल प्राप्त करने हेतु एकीकृत मत्स्य पालन विधि पहाड़ में बेहतर संभावनाऐं रखती है. इसमें खेती एवम पशुधन आदि के अवयवों के साथ जल संसाधन व जमीन का मछली पालन में उपयोग होता है तो वहीं दूध, सब्जी, फल, अंडा, मांस भी मछली के साथ साथ प्राप्त होता है. ऐसी तीन प्रकार की एकीकृत मतस्य पालन प्रणलियां प्रचलित भी रहीं हैं जिनमें 1. मछली सह पशु /पक्षी पालन 2. मछली सह कृषि बागवानी व 3. मछली सह कृषि /पशु पालन के साथ जलीय पौंध सह मछली पालन व बहुव्यवसायी समन्वित मछली पालन किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के अनुपयोगी पदार्थों व अवशिष्ट का उपयोग संभव बनता है.

मत्स्य पालन में बाहर से दिए जाने वाले भोजन, खाद, उर्वरक पर अधिक खर्च होता है जो कुल लागत के पचास-साठ प्रतिशत रहता है. एकीकृत मत्स्य पालन करते हुए इसे काफी कम किया जा सकता है. एक व्यवसाय का अवशेष दूसरे व्यवसाय में उपयोग किये जाने से लागत कम हो जाती है. इस प्रकार खेती और पशुधन आदि के अवयवों का उपयोग कर मछली के साथ ही मॉस, अंडा, फल, सब्जी, दूध व अनाज प्राप्त होता है तथा पशुओं का अपशिष्ट भूमि की उर्वरता बढ़ाने में सहायक होता है.
(Fishing Policy Uttarakhand)

पहाड़ में मछली पालन करते हुए लागत कम होने व ऊँची आय प्राप्त होना तब संभव है जब मछली की परंपरागत किस्मोँ के साथ इसकी उन्नत प्रजातियां पाली जाएं. इनके बीज व अंगुलिकाओं के चयन में पूरी सावधानी रखी जाये. मत्स्य पालन हेतु स्थाई जल स्त्रोत हों तथा तालाबों की साफ सफाई के साथ उनको सुव्यवस्थित रखा जाए. तालाब में जल का न्यूनतम स्तर एक मीटर तो अवश्य रहना चाहिए साथ ही उनमें अवांछित जीव-जंतु व हानिकारक वनस्पतियों का उन्मूलन कर दिया जाए. मत्स्य बीज संग्रह से पहले तालाब की तैयारी हो जाये. फिर हर महिने तालाब में यदि जरुरी हो तो खाद व जैविक उर्वरक डाले जाएं. मछलियों के लिए रोज पूरक आहार की व्यवस्था की जानी जरुरी है.

पहाड़ी इलाकों में सामान्यतः मछली फरवरी से अक्टूबर की समय अवधि में बढ़ती हैं जिसके बाद ही इनकी बिक्री की जाती है. कुशल मछली पालक प्रायः बिक्री से दो दिन पहले मछलियों को आहार देना बंद कर देते हैं तथा बादल घिरे होने तथा तेज धूप में तालाब में जाल नहीं चलाते. बिक्री के लिए सुबह ही मछली निकाली जाती है. जब सारी मछलियां तालाब से निकाल ली जाएं तब तालाब की साफ सफाई के बाद उसमें चूने व जैविक खादों का प्रयोग कर उसे फरवरी के लिए तैयार कर लिया जाता है ताकि नई अंगुलिकाऐं डाली जा सकें.

उत्तराखंड में मत्स्य विकास हेतु अभी जो योजनाएं चल रहीं हैं उनमें प्राकृतिक जल स्त्रोतों में मछलियों का संरक्षण व संवर्धन मुख्य है जिसके अंतर्गत स्थानीय लोगों के सहयोग से जलाशयों को विकसित किया जाना है. दूसरी परियोजना अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए मछली पालन में स्वरोजगार का प्रशिक्षण है इसमें मैदानी भाग में 0.20 हैक्टर पर 70,000₹ की लागत से बनाए फिशरी पोंड पर 49,000₹ अर्थात कुल के 70% का अनुदान दिया जाता है.पहाड़ में 60,000 ₹ का फिशरी पोंड बनाने पर 0.01 हैक्टर इकाई पर 70% अर्थात 42,000 का अनुदान नियत किया गया है.पहाड़ी इलाकों में 200 वर्ग मीटर के आदर्श मछली के पोंड बनाने पर पहले वर्ष डेढ़ लाख ₹ का अनुदान दिया जाता है जब कुल तीन लाख ₹ का निवेश किया जा रहा हो. छोटे कुंड जो पचास मीटर के हों उनमें पचास हजार की लागत का आधा अर्थात पचीस हजार ₹ अनुदान दिया जाता है. पचास मीटर के और छोटे कुंड बनाने पर कुल पचास हजार ₹ व्यय का आधा अर्थात पचीस हजार ₹ का अनुदान दिया जायेगा. इसमें एक लाभार्थी ऐसी तीन इकाईयां बना सकता है. इस योजना में प्रशिक्षण,स्थलीय निरीक्षण व मछली पालन पर गोष्ठी करवाने का भी विधान है. केंद्र द्वारा 75% सहायता मिलने वाली योजना में मैदानी इलाकों में बड़े तालाब बनाने के लिए तीन लाख पचास हजार ₹ के निवेश पर 20% अर्थात 70,000₹ का अनुदान दिया जाता है. इनके रखरखाव पर एक लाख पचीस हजार का निवेश करने पर भी 20% का अनुदान दिया जाना तय किया गया.

ठंडे पानी में मछली विकास की केंद्र से 75% सहायता मिलने वाली योजना में 60,000₹ के कुल विनियोग पर 20% का अनुदान दिया जाता है. केंद्र से 50% कोष मिलने वाली “राष्ट्रीय मछलीपालक कल्याण योजना” में गरीब मछुवारों के सामाजिक विकास व मछुवारों के लिए आदर्श गांव विकसित करने हेतु हर आवास पर 75,000₹ दिए जाते हैं व इनमें पीने के पानी की व्यवस्था भी की जानी है. साथ ही 40 मकानों पर ट्यूब वैल के लिए 40,000₹ की सहायता दी जानी नियत की गई है. इस योजना में मछुवारों का बीमा भी किया जाता है. केंद्र से 80% सहायता मिलने वाली मत्स्य प्रशिक्षण योजना व शत प्रतिशत सहायता की डाटा बेस व सूचनाओं की नेटवर्किंग योजना भी चलाई जा रही है. राज्य मत्स्य प्रयोगशाला स्थापित करने व इंटीग्रेटेड फिशरी हेतु बनी योजनाएं केंद्र द्वारा 75% सहायता प्राप्त हैं.

मत्स्य पालन एक साधारण जलीय खेती है जिससे उत्तम प्रोटीन युक्त आहार प्राप्त होता है साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करते हुए इससे अन्य फसलों की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है.
(Fishing Policy Uttarakhand)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

पहाड़ की पहली पशु चारा नीति

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

12 hours ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

3 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

5 days ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

6 days ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

1 week ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

1 week ago