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विश्व विख्यात श्रीनंदादेवी राजजात मार्ग पर पहला अध्ययन

उत्तराखण्ड में 220 किमी लम्बी धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहसिक पदयात्रा का नाम है नंदा देवी राजजात. इसे उत्तराखण्ड के प्रमुख सांस्कृतिक आयोजनों में माना जाता है. वर्ष 2005 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर उत्तराखण्ड की़ नंदादेवी राजजात आधारित भव्य झांकी का गवाह पूरा विश्व बना. लोककलाकारों ने लोकवाद्यों के साथ, भव्य झांकी से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था. राजजात का मुख्य आकर्षण चार सींग वाला मेंढा (Four horned ram) तथा भोजपत्र एवं रिंगाल की छंतोली (छाते) होते हैं. इस मेंढ़े को नंदा देवी का वाहन माना जाता है. (First study on Nandadevi Rajajat Marg)

कैलाश हिमालय में नंदा देवी के निकट कष्टपूर्ण विवाहित जीवन की कल्पना लोकगीतों में की गयी है. कम से कम 12 वर्षों में एक बार नंदा देवी को मायके (नौटी-कांसुवा) आने के लिए आह्वान किया जाता है. तत्पश्चात समारोहपूर्वक घर-गाँव की मौसमी चीजें सौगात में भेंटकर जेवर, श्रृंगार सामग्री सहित नंदा को बेटी-बहिन (धियाण) के रूप में, उसके ससुराल (ऊँचे हिमालय-नंदा घुंघुटी शिखर तक) के लिए विदा कर दिया जाता है.

राजजात जनपद चमोली स्थित नौटी गाँव से शुरू होकर कांसुवा, सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़ों, फल्दियागांव, मुंदोली, तथा वाण गांवों से होकर गैरोली पातल, पातर नचैणियां, शिला समुद्र के निर्जन पड़ावों को पार कर हिमालय स्थित होमकुण्ड तक जाती है. यहाँ पथ प्रदर्शक मेंढे को हिमालय की ओर छोड़ दिया जाता है. वापसी में चंदनिया घट, सुतोल, घाट होते हुए वापस नौटी पहुँचा जाता है.

सर्वविदित है कि ऐतिहासिक नंदादेवी राजजात यात्रा को स्वतंत्र भारत में राजकीय प्रश्रय पहली बार वर्ष 1987 की राजजात में मिला था. ये राजकीय प्रश्रय कैसे मिला, इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है. नंदादेवी राजजात के सचिव और प्रख्यात पत्रकार व समाजसेवी भुवन नौटियाल बताते हैं कि ये 1985 की बात है, राजजात समिति का सचिव होने के नाते मैंने जयदीप से चर्चा की कि नौटी से होमकुण्ड तक के श्रीनंदादेवी राजजात मार्ग पर एक अध्ययन यात्रा तुम्हारे नेतृत्व में होनी है जिसमें यात्रामार्ग, पड़ावों पर उपलब्ध ढाँचागत सुविधाओं की स्थिति, लोकगीत-जागर आदि के आधार पर तथ्यों को संकलित कर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जानी है. रिपोर्ट में यात्रा-मार्ग के स्थानीय लोगों के परामर्श पर आधारित सुझाव भी तैयार किए जाने हैं.

जयदीप को प्रस्ताव पसंद आया और तय हुआ कि अक्टूबर माह में प्रथम नवरात्र के दिन अर्थात 14 अक्टूबर 1985 को श्रीनंदादेवी राजजात के मूल स्थान नौटी से पदयात्रा प्रारम्भ होगी और निर्धारित पड़ावों, ईड़ाबधाणी, नौटी, कांसुवा, सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़्यों, फल्दियागांव, मुंदोली व वाण तक प्रथम चरण की यात्रा होगी (नंदकेशरी तब तक पड़ाव नहीं था आगे की राजजात में इसे पड़ाव बनाया गया). दूसरे चरण की यात्रा अगले वर्ष करने का भी निर्णय लिया गया क्योंकि उस समय आगे के मार्ग में हिमपात के कारण यात्रा सम्भव भी नहीं थी.

प्रथम चरण की इस अध्ययन यात्रा में प्रकाश पुरोहित जयदीप के साथ हर्षवर्द्धन नौटियाल, दिनेश जोशी, वासुदेव डिमरी, कुशल बिष्ट शामिल थे. यात्रामार्ग तथा पड़ावों पर इस अध्ययन दल का गाजे-बाजों के साथ भव्य स्वागत भी हुआ था. हर्षवर्द्धन नौटियाल की एलबम में सुरक्षित कुछ श्वेत-श्याम चित्रों में इस यात्रा की झलकियां देखी जा सकती हैं. जयदीप समिति की इस स्थलीय रिपोर्ट से श्रीनंदादेवी राजजात समिति और उत्तर प्रदेश शासन को काफी सुविधा हुई थी. समिति के तत्कालीन अध्यक्ष कुंवर बलवंत सिंह जी के नेतृत्व में सन 1986 में पड़ाव व यात्रामार्ग का सर्वेक्षण किया गया. जयदीप के नेतृत्व में की गयी अध्ययन यात्रा की संस्तुतियां व दस्तावेजीकरण, राजजात के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मोड़ के रूप में दर्ज़ हैं.

उस समय गढ़वाल मण्डल में आयुक्त के रूप में सुरेन्द्र सिंह पांगती कार्यरत थे. उनके द्वारा राजजात को सुव्यवस्थित करने में विशेष रुचि ली गयी. पांगती जी ने ही ये ऐतिहासिक निर्णय लिया था कि यात्रा में शामिल होने वाले यात्रियों की संभावित संख्या इतनी अधिक होगी कि उनकी आवास व भोजन व्यवस्था, मार्ग के स्थानीय लोगों की क्षमता से बाहर होने के कारण सरकार को सहयोग करना चाहिए. (First study on Nandadevi Rajajat Marg)

और इस तरह से ये 1987 की पहली राजजात थी जिसमें पहली बार राज्य सरकार ने पैदल पुल निर्माण व पैदल मार्ग सुदृढ़ीकरण हेतु 22 लाख रुपए की धनराशि स्वीकृत की थी. राज्य सरकार का योगदान 2014 में सम्पन्न नवीनतम राजजात में 150 करोड़ तक पहुँच गया है. अब तो हिमालय के इस सचल महाकुम्भ के आयोजन में राज्य सरकार महत्वपूर्ण सहयोगी बन गयी है और राजजात पूरी तरह राजकीय आश्रय से आच्छादित भी हो गया है.

सदियों पूर्व से आयोजित होने वाली नंदा की इस महायात्रा को इस मुकाम तक पहुँचाने में जयदीप समिति की अध्ययन यात्रा का महत्वपूर्ण हाथ है. सही मायने में ये अध्ययन यात्रा राजजात के इतिहास में एक ऐतिहासिक टर्निंग प्वाइंट है. जयदीप के इस योगदान के लिए श्रीनंदादेवी राजजात समिति उन्हें सदैव याद रखेगी.

जयदीप ने इस अध्ययन यात्रा पर अपनी संस्तुतियों वाली रिपोर्ट प्रस्तुत करने के साथ यात्रा मार्ग स्थिति, व्यवस्था व जनजीवन पर रंगीन स्केच चित्रों की एक श्रृंखला भी बनायी थी. इस स्केच श्रृंखला का प्रदर्शन उन्होंने गौचर मेले में स्टाल लगा कर किया था. अन्य कई अवसरों पर भी उनके द्वारा निर्मित स्केच व फोटोग्रैफ्स की प्रदर्शनी लगायी जाती थी. इन प्रदर्शनियों के द्वारा भी लोग नंदाराजजात यात्रा व रूपकुण्ड ट्रैक के प्रति अत्यंत रुचि लेने लगे थे.

आज नंदा राजजात यात्रा विश्वविख्यात हो गयी है और विश्व के सभी कोनों से पर्यटक, अध्येता व शोधार्थी इस यात्रा में शामिल होने आते हैं. इस सबके पीछे राजजात समिति की सदियों से संजोयी हुई विरासत तो है ही साथ ही 1987 से हासिल राजकीय प्रश्रय का भी महत्वपूर्ण हाथ है. और ये राजकीय प्रश्रय प्राप्त हुआ था जिसकी बदौलत वो शख़्स था यायावर यात्री-लेखक-चित्रकार, प्रकाश पुरोहित जयदीप जिसके नेतृत्व में वर्ष 1985 में सम्पन्न हुई अध्ययन यात्रा ने इसकी जमीन तैयार की थी. और इस रिपोर्ट में क्या था? ये पूछिए कि क्या नहीं था, विश्वसनीय तथ्य, आँखों देखा वर्णन करती सरस शब्दावली, बोलते फोटोग्रैफ्स और ढेरों ऐसे स्केच जिन्हें देखते ही सीने से लगा लेने का मन हो जाए. (First study on Nandadevi Rajajat Marg)

अध्ययन से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज देखिये. सभी दस्तावेज में कैप्शन प्रकाश पुरोहित जयदीप द्वारा लिखे गये हैं :

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

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  • बढ़िया. जिन्दा रहेंगी यात्राएं.

  • इस यात्रा से संबंधित लेख पहले भी कहीं पढ़ा हुआ है,शायद अल्मोड़ा से प्रकाशित रामलीला वार्षिकी पत्रिका में.

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