बुजुर्ग लोग बताते हैं कि आज से कोई पांच-छह दशक पूर्व तक गुरु गोरखनाथ की परंपरा के नाथ पंथी योगी पहाड़ के गावों में घूम-घूम कर इकतारे की धुन में उज्जैन के राजा भृतहरि व गोपीचंद की गाथा सुनाया करते थे.
नाथ पंथी योगियों द्वारा गायी इन गाथाओं में प्रमुखतः भृतहरि व गोपीचन्द के वैरागी बनने की घटनाओं का उल्लेख मिलता है.
माना जाता है कि एक समय नाथ पंथी योगियों के सरल व सहज भाव से गाये गीत,भजन व दोहे पहाड़ में अत्यधिक लोकप्रिय हो चुके थे जिस कारण लोग घर-घर में इकतारे की धुन में इन गीतों को गाया करते थे. जोगिया राग-धुन में निबद्ध ये गीत आमजन को सांसारिक माया-मोह से उबरने,सम्पूर्ण जगत के क्षणभंगुर होने व उसके नश्वर होने का बोध कराते थे.
पहाड़ की लोक संस्कृति के जानकार श्री जुगल किशोर पेटशाली के अनुसार जब 1920-21 के आसपास गोपीचन्द के भजन/गीतों से पहाड़ के लोगों में बहुत ज्यादा वैराग्य पैदा होने लग गया था तो तत्कालीन ब्रिटिश शासकों ने गोपीचन्द के साहित्य और उनके गाये भजन/गीतों पर रोक लगा दी थी. जिसके वजह से यहां प्रचलित कई वैरागी गीत पहाड़ के समाज से शनैः-शनैः विलुप्त हो गए.
गोपीचन्द का एक लोकप्रिय गीत आज भी यदाकदा कुमाऊं-गढ़वाल में समान रूप से सुनने को मिलता है. जिसमे केवल स्थानिक शब्दों, बोली-भाषा व गायन शैली का ही मामूली सा अंतर मिलता है.
प्रस्तुत है विख्यात लोकगायक केशव अनुरागी के स्वर में एक वैरागी गीत:
रिद्धि को सुमिरों, सिद्धि को सुमरों, सुमिरों शारदा माई
और सुमिरों गुरु अविनाशी को,सुमिरों किशन कन्हाई
सदा अमर यां धरती नि रैयी,मेघ पड़े टूट जाई
अमर नि रैन्दा चंद सुरीज यां, गरण लगे छूट जाई
माता रोये जनम- जनम को,बहन रोये छह मासा
तिरिया रोवे तेरह दिनों तक, आन करे घर बासा
कागज-पत्री हर कोई बांचे, करम न बांचे कोई
राज महल को राज कुंवर जी, करमन जोग लिखाई
ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़ियां रैन बसेरा
बाग-बगीचा हस्ती घोड़ा, चला चली का फेरा
सुनरे बेटा गोपिचन जी, बात सुनो चित लाई
झूठी सारी माया-ममता,जीव-जगत भरमाई.
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अति सुन्दर गीत।