समाज

तिब्बत पहुँचने वाला पहला जापानी

महान यात्रियों की श्रृंखला में एक और बड़ा नाम है एकाई कावागूची का. 1866 के साल जापान में ओसाका के समीप स्थित सकाई नगर में एक ईसाई परिवार में जन्मे कावागूची को पंद्रह साल की उम्र में गौतम बुद्ध के जीवन के बारे में पढ़ने का मौका मिला. इस घटना ने उनके जीवन की दिशा बदल दी. उन्होंने बौद्ध भिक्षुक बनने का फैसला किया. शुरुआती प्रशिक्षण के बाद पच्चीस साल की आयु में उन्हें अंततः एक मठ में नियुक्ति मिली. वे जल्दी ही वहां होने वाले ध्यान और अध्ययन से ऊब गए और एक बड़े मठ में चले गए ताकि वहाँ जाकर बौद्ध ग्रंथों के मुश्किल क्लासिकल टेक्स्ट्स को जापानी भाषा में अनूदित करने की अपनी महत्वाकांक्षी योजना को मूर्त रूप दे सकें.

त्रिपिटक के चीनी अनुवादों में उन्हें बहुत सारी खामियां नज़र आईं और उनके भीतर मूल संस्कृत पाठों को देखने की उत्कंठा हुई. अपने एक पुराने गुरु नान्जो बुन्या से उन्होंने इन धर्मग्रंथों के तिब्बती अनुवादों के बारे सुन रखा था कि वे मूल संस्कृत के सबसे करीब हैं. भारत पर हुए मुस्लिम आक्रमणों के दौरान अधिकाँश संस्कृत पांडुलिपियाँ बर्बाद की जा चुकी थीं अलबत्ता उनमें से कुछ को सुरक्षित नेपाल और तिब्बत पहुंचाया जा चुका था. यह माना जाता था कि सबसे अच्छे अनुवाद तिब्बत के गुप्त मठों में तालाबंद थे.

कावागूची ने 1897 के साल भारत का रुख किया और अपने मिशन की तैयारी के लिए कुछ समय वे दार्जिलिंग में रहे. एक साल में उन्होंने तिब्बती भाषा पर महारत हासिल की. उन्होंने ऐसे कई लोगों से दोस्ती की जिनके तिब्बत के प्रभावशाली लोगों से नज़दीकी सम्बन्ध थे.

कूटनीतिक कारणों से एक जापानी नागरिक की हैसियत से उनका नेपाल या तिब्बत में घुस सकना नामुमकिन था सो उन्होंने एक चीनी या तिब्बती भिक्षु के भेस में तिब्बत जाने का निर्णय किया. इसके लिए उनकी तैयारी भी पूरी थी. चूंकि भारत और नेपाल से तिब्बत जाने वाले चैक पॉइंट्स पर भारी सुरक्षा रहती थी कावागूची ने तय किया कि वे नेपाल होते हुए उस रास्ते से तिब्बत जाएँगे जो खासा मुश्किल था और जिसका इस्तेमाल केवल तीर्थयात्री, चरवाहे या स्मगलर किया करते थे.

कावागूची ने एक तिब्बती भिक्षु के भेस में 1899 में सिगौली से होते हुए नेपाल में प्रवेश किया. शुरू में तो किस्मत साथ रही पर एक दिन उनकी मुलाक़ात काठमांडू की तरफ जा रहे दो तिब्बती भिक्षुओं से हो गयी. उनकी पूछताछ से बच सकना असंभव था सो कावागूची ने अपना परिचय एक चीनी भिक्षु के रूप में दिया और कहा कि वे लम्बे समय से ल्हासा में रह रहे थे और फिलहाल भारत से एक तीर्थयात्रा के बाद वापस लौट रहे थे.

तिब्बती भिक्षुओं ने यह सुनकर पूछा कि क्या वे चीनी भाषा जानते हैं? कावागूची के हाँ कहने पर उनमें से एक ने धाराप्रवाह चीनी में सवाल पूछना शुरू कर दिया. सवाल पूछने वाला भिक्षु ‘चीनिया लामा’ के नाम से विख्यात बौद्धनाथ मठ का महंत निकला जिसके चीनी पिता ने एक नेपालन से शादी की थी. कावागूची ने शांत भाव से उत्तर दिया कि उन्हें पीकिंग वाली चीनी नहीं बल्कि आम जन द्वारा बोली जाने वाली फोशी चीनी आती है.

इस पर महंत ने उनसे कहा कि वे चीनी भाषा लिख कर दिखाएं. कावागूची ने ऐसा कर दिखाया. जब पूछताछ पूरी हो गयी तो तीनों ने फैसला किया कि आगे से वे तिब्बती में ही बात करेंगे और साथ यात्रा करेंगे.

इसके पहले कलकत्ता में कावागूची ने जीतबहादुर नाम के से एक सज्जन से दोस्ती कर ली थी जो मूलतः बौद्धनाथ के रहनेवाले थे. जीतबहादुर रिश्ते में चीनिया लामा का रिश्तेदार लगता था और उसने कावागूची को उनके नाम एक सिफारिशी चिठ्ठी दे रखी थी. यह इत्तफाक था कि उसी चीनिया लामा से उनकी मुलाक़ात रास्ते में होनी थी. सो काठमांडू में कावागूची उन्हीं के यहाँ मेहमान रहे.

काठमांडू में रहते हुए कावागूची ने अपना अधिकतर समय नेपाल के उत्तरी इलाकों से आए सबसे निर्धन तीर्थयात्रियों के साथ बिताया ताकि तिब्बत जानेवाले कम ज्ञात रास्तों के बारे में जान सके. उनके पास इकलौता विकल्प था कि तिब्बत में प्रवेश करते समय उन्हें कोई न पहचाने.

अंततः चीनिया लामा से पिंड छुड़ाकर काठमांडू से पोखरा और मुक्तिनाथ होते हुए कावागूची 4 जुलाई 1900 को तिब्बत पहुँचने में कामयाब हुए. यह यात्रा कितनी मुश्किल और जोखिमभरी थी इसका अंदाजा कावागूची की किताब पढ़े बिना नहीं लगाया जा सकता. घर छोड़े हुए उन्हें तीन साल बीतने को थे.

बांस की कलम और धुंए से बनाई स्याही की मदद से लिखी गयी उनकी यात्रा डायरियां सन 2004 के आसपास उनकी भतीजी की सहायता से प्रकाश में आईं जो खुद तब नब्बे से ऊपर की हो चली थीं. इन डायरियों से पता चलता है कि कावागूची ने 1899, 1903, 1905 और 1913 में नेपाल की और 1900, 1902 और 1913 में तिब्बत की यात्राएं कीं. आख़िरी बार वे तिब्बत में दो साल यानी 1915 तक रहे.

माना जाता है कि कावागूची नेपाल और तिब्बत पहुँचने वाले पहले जापानी थी और ल्हासा जैसे “निषिद्ध नगर” में एक साल से अधिक समय गुजारने वाले पहले विदेशी नागरिक भी. ल्हासा में रहते हुए उन्हें चीनी डाक्टर के रूप में जाना जाता था और उनकी इस नकली प्रसिद्धि का परिणाम यह रहा कि तेरहवें दलाई लामा ने स्वयं उन्हें मुलाक़ात करने के लिए बुलाया.

1915 के आख़िरी दिनों में कावागूची को अपने एक विश्वस्त अधिकारिक सूत्र से ज्ञात हुआ कि अफसरों को उनकी असलियत पता लग गयी है और उन्हें कभी भी मौत के घाट उतारा जा सकता है. ल्हासा से दार्जिलिंग की चार सौ किलोमीटर की अपनी अंतिम यात्रा का दम रोक देने वाला अनुभव उनकी किताब ‘थ्री ईयर्स इन तिब्बत’ में पढ़ा जा सकता है. इस किताब में तत्कालीन भारत, नेपाल और तिब्बत की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति पर दिलचस्प चीज़ें भी पढ़ने को मिलती हैं.

अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान कावागूची की मुलाक़ात बेल्जियन-फ्रेंच अन्वेषक, स्पिरिचुअलिस्ट और लेखिका अलेक्सांद्रा डेविड नील से भी हुई जिन्हें फ़्रांस की पहली बौद्ध के रूप में ख्याति प्राप्त है. पश्चिमी संसार से ल्हासा पहुँचने वाली वे पहली थीं. अलेक्सांद्रा डेविड नील से कावागूची की लम्बी मित्रता रही और 1917 में वे उनसे मिलने जापान भी गईं.

अपने जिस सपने को पूरा करने कावागूची ने अपने जीवन के सबसे मूल्यवान तीस वर्ष गुज़ारे वे उसे एक सीमा तक पूरा करने में कामयाब भी रहे. कावागूची के बारे में जानने के लिए उनकी अपनी किताब के अलावा स्कॉट बैरी की ‘अ स्ट्रेंजर इन तिब्बत’ अभि सुबेदी की ‘द ट्रेसपासिंग इनसाइडर’ भी पढ़ी जा सकती हैं.

-अशोक पाण्डे

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