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मंदी अर्थव्यवस्था का श्रृंगार है

मंदी अर्थव्यवस्था का श्रृंगार है. मंदी का देश में आना बहुत जरूरी है जिससे समझ में आ सके कि मंदी के कारण अर्थव्यवस्था में क्या-क्या समस्याएँ आ सकती हैं. मंदी के कारण ही विश्व पटल में देश का नाम है और अमीर से गरीब हर देश हमें जानने लगा है. मंदी कड़वी दवा है लेकिन स्वास्थ के लिए ठीक है. मंदी एक बेहतरीन प्रयोग है जिसके आने से देश की जनता अभावों में कैसे जीना है सीख सकती है. मंदी कांग्रेस की गलतियों की तरह शाश्वत नही अपितु क्षणिक हैं. मंदी स्वाभाविक है दुनियाभर में आती रही है.

मंदी वामियों की मनगढ़ंत रचना है. मंदी, मंदिर की तरह शुद्ध है और देश की नितांत जरूरत है. मंदी का असर देश की जनता के दिमाग से ज्यादा सिर्फ बाजार मे है. नोटबंदी की तरह ही मंदी का होना कालाधन रखने वालों की कमर में चोट है. मंदी होगी तो बाजार में रूपये का लेन-देन कम होगा और लेन-देन कम होगा तो कालाधन रखने वालों तक अथाह रूपया नही पहुँचेगा जिससे कालाधन एक बार फिर समाप्त हो जाएगा. मंदी एक अश्वमेध यज्ञ है जिसके घोड़े को पकड़ पाना अच्छे-अच्छों के बस की बात नही.

मंदी रोजगारशुदा नौजवानों के लिए ऊर्जा का श्रोत है और दूसरे की नौकरी से छुटकारा पाने का सबसे उत्तम अवसर भी. मंदी जरूरतों को कम करने का संदेश है और बाजार पर निर्भरता रोकने का ब्रह्मास्त्र भी. मंदी बेरोजगार नौजवानों के लिए रोजगार न मिलने का स्वर्णिम बहाना है. मंदी माता-पिता को नौकरी न मिलने की वजह समझाने का श्रेष्ठ पाठ्यक्रम है. मंदी का होना धनलोलुपता की मानसिक बीमारी का ईलाज है. मंदी समतामूलक समाज के निर्माण का रास्ता है. मंदी की वजह से धीरे-धीरे सब अमीरों का धंधा-पानी चौपट हो जाएगा और वो साधारण जीवन जीने पर मजबूर हो जाएँगे जिससे वर्ग संघर्ष समाप्त हो जाएगा और एक वर्गविहीन समाज (Classless Society) का निर्माण होगा.

मंदी बेयर ग्रिल्स के ‘मैन वर्सेज वाइल्ड’ का ही दूसरा रूप है. जंगल में वही जीवित रह सकता है जो विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को बचा सके. ठीक उसी तरह मंदी में भी वही जीवित रह सकता है जो सरकार रूपी जंगल के भरोसे न रहकर आर्थिक विषमताओं में पेट पकड़कर एक टाइम खाकर जी सके.

मंदी डार्विन के सिद्धांत ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का पर्यायवाची है. डार्विन के सिद्धान्तानुसार वही जीव पृथ्वी में जीवित रहे जो प्रकृति की विषमताओं के अनुरूप खुद को ढालते गए. ठीक उसी तरह जीने का हक सिर्फ उसको है जो मंदी को स्वीकार करे और उसके अनुरूप खुद को ढाल ले.

मंदी गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ की तरह है. मंदी सत्य है और देश उसकी प्रयोगशाला. मंदी के सत्य के प्रयोग में यदि कुछ लाख रोजगारों व कंपनियों का बलिदान देना भी पड़े तो हमें पीछे नहीं हटना चाहिये. मंदी के इस प्रयोग के बाद जो कुछ निकलकर आएगा वह साक्षात कोहिनूर होगा. मंदी कुछ लोगों तक सीमित नही रहनी चाहिये. इसका पूरे देश भर में प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिये और नोटबंदी की तरह मंदी से होने वाले सैकड़ों फायदों को जनता को बताया जाना चाहिये. मंदी के प्रचार में अर्थशास्त्रियों को छोड़कर वकीलों, डॉक्टरों, विधायकों, सांसदों, न्यूज चैनलों व पूरे आईटी सेल को तत्काल प्रभाव से ऐसे लगा देना चाहिये कि एक बार को मंदी को भी लगने लगे की ‘अपुन ही भगवान है’.

देश की जनता को समझाया जाना चाहिये कि मंदी है लेकिन फिर भी मंदी नही है. मंदी ही सब कुछ नही है. मंदी से बड़े मुद्दे और भी बहुत हैं. देशभक्ति के सर्टिफिकेट बाँटना, देशद्रोहियों की खोज करना, शक के बिनाह पर हत्यारी भीड़ में शामिल हो जाना, बात-बात पर पाकिस्तान भेज देना, आईटी सेल का ट्रोलर बनना, कश्मीर में ससुराल ढूँढना और भी न जाने कितने ही अहम काम हैं मंदी जैसी चिंदी परेशानी से पहले. मंदी नही थी तब भी नौकरियॉं नहीं थी अब मंदी है तब भी नौकरियॉं नहीं हैं. मतलब साफ है मंदी और रोजगार के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. मंदी के बावजूद देश के जाबांज सिपाही सीमारेखा पर गोलियाँ खा रहे हैं तो क्या हम मंदी की मार नहीं खा सकते.

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

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Girish Lohani

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