होती होंगी दिशाएँ चार, आठ या दस. हम पहाड़ियों के लिए दिशाएँ होती हैं सिर्फ दो – ऊपर और नीचे.
यूँ तो मुख्य दिशाएँ चार मानी जाती हैं पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण. इनके अतिरिक्त इन दिशाओं से 45 डिग्री कोण पर स्थित चार दिशाएँ तथा ऊर्ध्व (ऊपर) और अधो (नीचे) मिलाकर कुल दस दिशाएं मानी जाती हैं. मगर हमारे अनुसार दिशाएँ हैं – दो, सिर्फ – दो. पहाड़ियों के सरल व्यक्तित्व कि तरह उनका दिशा ज्ञान भी काफी सरल है.
इन दो व्याख्याओं में दस नहीं बीसियों दिशाएँ समाहित हो जाती हैं. इसका तार्किक कारण है चढ़ाई और ढलान. यानि आप एक गेंद लें और उसे जमीन पर रख दें वह जिस दिशा में लुढ़केगी वह है नीचे उसके विपरीत दूसरी या तीसरी दिशा है ऊपर. इसका मतलब यह नहीं है कि हर पहाड़ी गेंद लेकर चला करता है बल्कि सतत अभ्यास से यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन चुकी है. यह हमारे डीएनए का हिस्सा बन चुकी है.
इस दिशा ज्ञान को समतल इलाके पर भी बहुत कुशलता के साथ लागू किया जाता है. भाबर के समतल दिखाई देने वाले कस्बों में भी मामूली से ढलान हुआ करती है. वहां रहने वाले पहाड़ी बहुत दक्षता से ऊपर-नीचे का दिशा ज्ञान लागू किया करते हैं. यहाँ आप गेंद रखकर नहीं लुढ़काकर इस ज्ञान कि परख कर सकते हैं. ढलान वाली दिशा में गेंद तेजी से और ज्यादा देर लुढ़कती चली जाएगी. बाज मौकों पर ही इस दिशा ज्ञान के विस्तार के लिए दायें-बाएं का इस्तेमाल करना पढ़ता है, एक मिनट ठिठककर सोचने पर दायें-बाएं की समस्या हल हो जाती है. खाने वाले हाथ कि कल्पना इस गुत्थी को सुलझा देती है. कुमाऊँनी में तो बाकायदा दायें-बाएं हाथ को आ जाना, चले जाना ही कहा जाता है.
मेरे इस दिशा ज्ञान को सबसे पहली चुनौती तब मिली जब कॉलेज के दिनों में मेरे एक मित्र ने पंतनगर और रुद्रपुर तक साइकिल यात्रा कर डाली. मैं लम्बी साइकिल यात्राओं का शौक़ीन हुआ करता था और पहाड़ी ढलान पर यह यात्राएँ गति और रोमांच का अद्भुत मजा देती थीं, अलबत्ता ऊपर जाते हुए साइकिल घसीटनी भी पढ़ जाती थी. कोई मित्र साथ हो तो डब्लिंग अनिवार्य होती थी. अब मेरे लिए बीसेक किमी की दूरी पर नीचे जाना तो आसान था और ऊपर आना मुश्किल. उसने बताया कि नहीं वहां तो प्लेन है सो यह दिक्कत नहीं आती. इस तथ्य ने मेरे ज्ञान को चुनौती दी. फिर मैंने पाया कि मैं मनोवैज्ञानिक तौर पर इन जगहों से लौटने में ज्यादा थकान का अनुभव करता था.
जितनी पढाई घरवाले मुझे करवा सकते थे उतनी करने के बाद में फरीदाबाद चला आया. यहाँ मेरे दिशा ज्ञान को दूसरी मजबूत चुनौती मिली. यहाँ रास्ता पूछने पर लोग पूरब-पच्छिम का इस्तेमाल किया करते थे. मेरे लिए पूरब पश्चिम एक अकादमिक मसला था जिसे मैं प्राइमरी की किताबों में दफ्न कर आया था और मैं इन्हें तभी बता सकता था जब अलसुबह सूरज के सामने खडा हो जाऊं. अब सुबह-सुबह शहर की हर जगह पर खड़ा होना नामुमकिन था. यहाँ भी मेरे सहजज्ञान का ऊपर-नीचे मौजूद था.
कहीं भी खड़े रहकर मैं दो-तीन सौ किमी दूर खड़े पहाड़ को महसूस करके ऊपर-नीचे बता सकता था. वहां भी मैं सच्चे पहाड़ी की तरह ऊपर-नीचे का इस्तेमाल करने लगा. मैं पहली दफा घर आ रहे किसी पहाड़ी मित्र को अपने घर का रास्ता बताता कि ‘फलां जगह ऑटो से उतरकर ऊपर की तरफ आ जाना,’ वह आ भी जाता. वहां बने नए मित्र पूछते ‘अबे हार्डवेयर चौक पर खड़ा हूँ, यहाँ से उत्तर आऊं या दक्खिन’? मेरा दिल करता कि बोल दूं वापस चला जा. किसी के घर जाऊं तो वह दिशानिर्देश देता, वहां से पश्चिम और फिर उत्तर कि तरफ आ जा. जिस जगह हाथ फैलाकर सूरज की तरफ मुंह करके मैं कभी खड़ा ही नहीं हुआ वहां का पूरब, पच्छिम मैं क्या जानूं. फिर मारे प्रदूषण के वहां चाँद, तारे, सूरज वगैरह दिखाई ही नहीं देते.
वक़्त बीता और मैं दिशाओं के जंजाल से दोबारा निकलकर उत्तराखण्ड वापस आ गया. अब मुझे नयी जगह का पहुँचने या किसी को बुलाने में बहुत आसानी है. ऊपर, नीचे से ही सारा काम चल जाता है.
गौर से सुन लो दुनिया वालों! दिशाएँ होती हैं दो, सिर्फ और सिर्फ दो. ऊपर और नीचे. इसके सहारे सारा ब्रह्माण्ड घूमा जा सकता है बस भावना सच्ची होनी चाहिए, खालिस पहाड़ी वाली.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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