एटकिंसन ने 1866 में अपने ग्रन्थ ‘हिमालयन गज़ेटियर’के भाग तीन में “भोटिया महाल” में विस्तार से दारमा परगने का वर्णन किया है. स्ट्रेची और ट्रेल ने भी अपने यात्रा विवरण लिखे जिससे ज्ञात होता है कि आजादी से पहले दारमा परगना तीन भागों में बंटा था- दारमा, व्यास और चौदास. 1872 के बंदोबस्त में दारमा पट्टी को मल्ला और तल्ला में बाँट दिया गया था. दारमा के पश्चिम में छिपला और पंचचूली की चोटियां हैं तो उत्तर में हूण प्रदेश यानी कि तिब्बत.
(Darma Vyas Chaundas valley Uttarakhand)
इस निर्जन एकांत रहस्य से भरे दुर्गम पर मनोहारी प्रदेश के दक्षिण में छिपला चोटी से पूर्व दिशा की ओर काली नदी तक पर्वतीय श्रृंखलाऐं विस्तृत है जो पूर्व में बीस हजार फ़ीट से ऊँची ‘यिग्रनजंग’ पहाड़ी धार तक उठीँ है और यही दारमा पट्टी को व्यास घाटी और चौदास से अलग करती है.
यहाँ तक आने के लिए गाला के पास ‘निरपणिया धूरा’ या दर्रा पार करना पड़ता है. निरपणिया का मतलब है जहां पानी न हो. इसके पूर्व में हिमाच्छादित ‘नमज्यूँग’ और ‘लिंगू’पर्वत चोटियां दिखाई देती हैं. ये दोनों ही बाईस हजार फ़ीट से ऊँची ‘अपी’ परबत के उपशिखर हैं. गाला के समीप पूर्व दिशा में इसे सड़क द्वारा पार किया जाता है जहां दो कम गहरी खाइयाँ हैं. इससे यह पर्वत श्रृंखला तीन पहाड़ियों में बंट जाती है. पहली पहाड़ी है ‘यिग्रनचिम’ तो दूसरी का नाम ‘बिरडोग’ है. बिरडोग से काली नदी घाटी में बूँदी तक का इलाका साफ दिखाई देता है. अब जो तीसरी पहाड़ी धार है वह ‘तियंगवा -विनायक ‘है और यही व्यास और चौदास की सीमा है.
निरपणिया दर्रे में पहुँच करीब सौ मीटर ढलान पर आठ हजार फ़ीट पर स्थित “गोलम ला” आता है जो गाला से लगभग चार कि. मी. दूर है. यह ऐसा पड़ाव है जिसके ऊपर इगनिस चट्टान का आवरण है तो नीचे पांच सौ से छः सौ मीटर गहरे में काली नदी और ‘नमनज्या’ गाड़ का संगम होता है. इस संगम से आगे काली नदी बड़े से बीहड़ में बदली दिखती है. अब आगे चलने पर ‘गोलमाला’ जगह में रस्ता बहुत संकरा भी हो जाता है और सीढ़ीनुमा भी. ये ‘बोलायर मिलिनजंग’ के नीचे की पहाड़ी है जिस पर चलते उतार ही उतार है और तब पहुंचा जाता है ‘मालपा’ गाड़ पर.
मालपा गाड़ से आगे फिर चढ़ाई है. इस पर चलते ‘चंठीदोंग’ आता है. करीब आठ हजार फ़ीट की ऊंचाई पर काली नदी के थाले पर उतरते हुए जो जिस जगह पहुँचते हैं वह ‘लामादे’ है. लामादे पर उतर कर अब बूँदी गाँव का रस्ता है जिसके लिए फिर चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. यह चढ़ाई क्वथला के तले चढ़ते चढ़ते ‘थक्ति’ गाड़ और ‘पालां’ गाड़ को लाँघते पहुँचती है बूँदी ग्राम तक. बूँदी व्यास पट्टी का पहला गाँव है. बूँदी गाँव के ऊपर की ‘छेतो’ पहाड़ी है जो मलवे को समेटे है. इसका दक्षिणी भाग दो सौ फ़ीट से ऊँचा है. पूर्व व पूर्वउत्तर में नदी इसे काटते हुए बहती है जहां ऊपर बिलकुल खड़ी चट्टानों के दर्शन होते हैं.
यह वही व्यास पट्टी है जिसके उत्तर में अवस्थित है ‘हूण देश’ और भोट को अलग करने वाली पहाड़ी की धार. यहाँ पूर्व की ओर भी यही धार है जो आकस्मिक रूप से दक्षिण पूरब की ओर मुड़ काली नदी के साथ चलने लगती है.काली नदी यहाँ भारत और नेपाल की सीमा विभाजित करती है. यह वह इलाका है जिसमें कुटी यांग्ती नदी और काली नदी की घाटियां पसरी हैं. यहाँ प्रकृति का अप्रतिम सौंदर्य तो है ही उसकी नीरवता के संग तीखे ढाल कठिन रास्ते और आसमान छूती चट्टानों के सूनेपन का रहस्य भरा मेल भी है. तेज हवाओं के चलने, तीव्र वृष्टि होने बादल फटने का क्रम यहाँ चलता रहता है. इन घाटियों से गुजरते हुए हूण देश यानी कि तिब्बत पहुंचने के लिए तीन दर्रे पार करने पड़ते हैं.यह पूरा इलाका व्यास घाटी में आता है. व्यास घाटी का पहला गाँव 10320 फ़ीट की ऊंचाई पर गर्ब्यांग है जिसके समीप काली नदी बहती है.
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गर्ब्यांग से आगे पथ तिकद नदी की तलहटी तक जाता है. तिकद नदी पर पुल बना है जो पूर्व व उत्तर-पूर्व से दो शाखाओं में बह रही काली नदी के संगम से ऊपर की ओर बना है. इस पुल और नदी तट के ठीक ऊपर 9900 फ़ीट की ऊँचाई पर ‘छंगरू’ गाँव बसा हुआ है. नीचे काली नदी चट्टानी पहाड़ से उत्तर पश्चिम की ओर घूम जाती है. यहीं बायीं ओर से किनारे किनारे का रस्ता आगे 10310 फ़ीट पर बसे गुंजी तक जाता है. ये कुथी घाटी का इलाका है. कुथी घाटी से राकसताल, मंगदंग और लाभिया जाने के लिए दो दर्रे हैं. कुथी घाटी काफी विस्तार लिए हुए सुन्दर हरी भरी है जिससे होते काली नदी की पश्चिमी शाखा ‘कुटी यांग्ती’ बहती है. नदी के दाएं किनारे पश्चिम से आ रही गहरी नदी ‘प्येर -पांगती’ के पास नपलच्यू गाँव है. नपलच्यू से आगे लगभग दो कि. मी. तक दाएं किनारे की ओर नावी गाँव व वहाँ के खेत फैले हुए दिखाई देते हैं. नावी गाँव के ठीक सामने ‘रौकांग’ गाँव है जो ‘दांज्यूँ यांती’ नदी के दायीं तरफ बसा है.
रौकांग गाँव के दक्षिण पश्चिम में पहाड़ी धार है जो हिमाच्छादित रहती है. यह ‘रौकांग प्येर’ के नाम से जानी जाती है. इसकी गहरी खाई से होते हुए ‘गनकं यागती’ नदी बहती है जो रौकांग प्येर के भू भाग को दो भागों में विभाजित करती है. रौकांग प्येर के पार का एक दर्रा बूँदी के नीचे ‘पालगांड’ घाटी को जाता है जो बहुत ही बीहड़ व ख़तरनाक है. रौकांग और नावी ग्राम के बीच कुटे नदी पर पुल बना है. कुटे नदी के ऊपर ‘छछला’ चोटी है और फिर आगे है ‘रलेंकं तोक’. यह तोक नावी गाँव में एक विशाल पहाड़ी की जड़ पर है जो घाटी की ओर चली जाती है. इसके मध्य में ‘स्याडांगले’ पर्वत है जिसमें भोजपत्र के वृक्ष हैं.
अब आता है छोटी बड़ी नदियों का सिलसिला. यहाँ ‘नयल यांग्ती’ पहाड़ी है जिससे एक लघु सरिता प्रवाहित होती है. नयल यांग्ती नदी के सामने ग्लेशियर से निकलने वाली ‘गनकाँग’ नदी है जो काफी बड़े इलाके में बहती है और इसका बहाव भी काफी तीव्र है. इस इलाके की ओर आते-आते घाटी लगातार सिकुड़ती चली जाती है और आखिर में दोनों ओर की पहाड़ियां आपस में मिल जातीं हैं. बायीं ओर दो पहाड़ियां हैं जिनके नाम ‘नंपा’ और ‘न्यायगती’ हैं जिनसे इसी नाम की दो गाड़ निकलती हैं तो इनके दूसरी ओर ‘खारकुलम’ और ‘नुसिलती’ नदियाँ हैं.
इन्हीं के बीच बने रास्तों पर बढ़ते कुटी गाँव आता है जो समुद्र तल से 12330 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है. उच्च शिखर बर्फ से ढके दिखते हैं.जैसे जैसे कुटी समीप होता जाता है बायीं ओर की पहाड़ियां छोटी होती जातीं हैं. बायीं तरफ घूमते हुए अब कुटी गाँव की चौरस भूमि शुरू हो जाती है तो दायीं ओर से ‘पेचको’ नदी दिखती है जो सेला धूरा से आती है.कुटी गाँव जाने के लिए हिमाच्छादित चोटी ‘कडिया’ के ग्लेशियर से होते ‘येंका’ को पार करना पड़ता है. इस घाटी में गहरी खाइयाँ हैं और घाटी के तल में बहुत मलवा है जो ऊपर की पहाड़ियों से आता है. ह्युरे नदी के दूसरी ओर भोजपत्र के पेड़ दिखाई देते हैं.पूरी घाटी उच्च शिखरों से इस तरह आच्छादित रहती हैं कि आसमान काफी छोटा सा दिखाई देता है. इसलिए सुबह सूर्य के दर्शन काफी देर से होते हैं और शाम बहुत जल्दी हो जाती है. इस घाटी में कुटी गाँव सबसे अधिक ऊँचाई पर बसा है जहां पहाड़ की ओट में मकान बनाये गए हैं. कुटी से आगे ‘गुनये’ की चोटी है जिससे ‘ह्युरे’ नाम की सरिता निकलती है. इसमें अनाज पीसने के लिए घट भी चलाये जाते हैं.
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कहा जाता है कि पांडव युद्ध के पश्चात् माता कुंती और द्रोपदी के साथ कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर आए. तकलाकोट से लिपुलेख दर्रे को पार करते हुए माता कुंती अस्वस्थ हो गईं. कालापानी से नाबीडांग पहुँचने पर स्थानीय निवासियों ने सलाह दी कि आगे गुंजी में ऋषिवर व्यास का आश्रम है जहां उनके रोग का सही निदान हो जाएगा. तब युधिष्ठिर ने महाबली भीम को यह दायित्व सौंपा कि वह नाभिढांग जा महर्षि व्यास से माता कुंती के लिए भेषज लाएं. तुरंत ही भीम व्यास ऋषि के आश्रम के समीप नदी के तट पर पहुंचे तो वहाँ उन्हें एक व्यक्ति खेत में काम करते दिखा. भीम ने उससे ऋषि के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह समीप ही आश्रम जाये, थोड़ी प्रतीक्षा के बाद ऋषि से भेंट हो जाएगी.
भीम ने आश्रम जा कर प्रतीक्षा की तो कुछ समय बाद वही व्यक्ति आश्रम में प्रवेश किया और उसने बताया कि वह ही ऋषि व्यास हैं. भीम को संदेह हुआ कि इतने बड़े ऋषि यह सामान्य सा व्यक्ति कैसे हो सकता है. फिर भी भीम ने माता के स्वास्थ्य की चिंता प्रकट की. महर्षि व्यास ने लक्षण के अनुसार भेषज दीं. साथ ही आहार हेतु ‘पलथी’ व ‘फाफर’ की रोटियां भी दीं. इस औषधि व स्थानीय आहार से से माता कुंती का बिगड़ा स्वास्थ्य ठीक होने लगा. अब यह परिवार पुनः गुंजी, नावी के रास्ते कुटी पहुंचा.
जनश्रुति है यहाँ उन्होंने आवास बनाया. माता कुंती अब पुनः अस्वस्थ रहने लगीं थीं. अंततः इसी स्थान पर उन्होंने देह त्याग किया. इस. स्थान को कुंती पर्वत के नाम से सम्बोधित किया जाता है.जहाँ एक विशाल शिला है.कुटी गाँव के बीच की पहाड़ी पर पांडवों के काल के अवशेष है. इस स्थल पर औरतों का जाना वर्जित है.कुटी गाँव में स्थानीय लोक विश्वास के अनुरूप सत्य की देवी के रूप में कुंती आमा की प्रतिष्ठा है. यह कहा जाता ही किसी विवाद में कुंती माता की शपथ ले कर झूठ नहीं बोला जाता.
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कुटी से तिब्बत जाने के लिए ‘लिमप्या’ नदी को पार करते हैं जिस पर पुल बना है. इससे आगे फिर एक और नदी पार की जाती है जिसका नाम ‘मंगदा’ है. अब घाटी बहुत संकरी होती जाती है. मंगदा नदी के दोनों तरफ से रास्ते हैं जो लगातार ऊपर की ओर करीब दो सौ फ़ीट तक उठते जाते हैं. जैसे जैसे ऊपर की ओर चढ़ते हैं वैसे वैसे दोनों तरफ दिखने वाली पहाड़ियां छोटी होती दिखाई देतीं हैं. इस घाटी में उत्तर से ‘तोशी यांग्ती’ नदी आकर मिलती है. दूसरी तरफ करीब चौदह हजार फ़ीट ऊँची ‘स्यानचिम’ पहाड़ी की धार है. इस पर आसानी से बहुत सारे मोड़ पार करते हुए चढ़ा जाता है. आगे ‘निरकुच’ नदी और फिर ‘यांग्ती’ है. इससे आगे ‘सिनला’ दर्रा है. सिनला दर्रा पार कर दारमा घाटी में ‘खिमलिंग’ तक पहुंचा जाता है. कुटी और लुंपिया दर्रे के बीच में ‘जोलिंगकॉंग’ आता है जो चौदह हजार फ़ीट से अधिक की ऊँचाई पर आदि कैलास यात्रा का मुख्य पड़ाव है.यहाँ बसासत नहीं है. यहाँ कुमाऊं मण्डल विकास निगम का अतिथिगृह व स्थानीय निवासियों द्वारा चलाया गया होटल है. जोलिंगकॉंग से आगे गौरीकुण्ड, पार्वतीकुण्ड, आदि कैलाश, गासेरो, मडुआ सेरो के अद्भुत दर्शन होते हैं.
पिथौरागढ़ के तहसील मुख्यालय धारचूला से आदि कैलास तक की यात्रा के लिए लगभग 170 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. धारचूला से आगे मांगती तक परिवहन व्यवस्था है पर यह सड़क भी मौसम की प्रतिकूल दशाओं में अक्सर टूट जाती है जिसके पश्चात पद यात्रा आरम्भ होती है. मांगती से घटिया बगड़ नाला पार कर पहले गाला आता है. गरबा धार तक आते आते पथ और खराब है. यहाँ जगह जगह चट्टानों से फूटते झरने हैं जिनके नीचे से ही गुजार कर आगे का रस्ता पार करना होता है. ‘गरबा धार’ से करीब 3 कि. मी. आगे शांति वन है जहां तेज बारिश होने पर रुका जा सकता है. यहाँ चाय व खाने पीने की दुकान भी है. लखनपुर का रस्ता बड़ी चट्टानों व शिला खण्डों से गुजरता वेगवती काली नदी के किनारे किनारे जाता है. गाला से आने वाला रस्ता भी यहीं लखनपुर में मिलता है. गाला से आगे मालपा है. मालपा पहले कैलास मानसरोवर यात्रा का मुख्य पड़ाव रहा. पर 17 अगस्त 1998 को हुए भयावह व विनाशकारी भूक्षरण से ध्वस्त हो गया. मालपा से आगे बूँदी है.मालपा से बूँदी तक का रास्ता बहुत कठिन है. कई स्थान इतने संकरे और फिसलन भरे हैं कि अगर कदम जरा भी डगमगाया तो नीचे काली नदी है. बरसात में तो मिट्टी पत्थर पर कच्यार ही कच्यार हो जाता है. बूँदी व्यास घाटी का पहला गाँव है.
बूँदी से आगे करीब पंद्रह कि. मी. आगे गुंजी है. मालपा से बूँदी तक का सफर जहां प्रकृति के भयावह और रौद्र रूप को दिखाता है तो बूँदी से तीन कि. मी. आगे चढ़ाई के बाद घास के मैदान शुरू हो जाते हैं जिसे छियालेख का बुग्याल कहा जाता है. यहाँ इसे ‘छे:तो ‘ कहते हैं यहाँ ‘छे :’ से आशय है गर्मी और ‘तो’ का मतलब रोकने वाला. इस प्रकार छियालेख यानी, “गर्मी रोकने वाला”. छियालेख से ‘नमज्यूँग’ पर्वत के दर्शन होते हैं जिसे भगवान शिव का गण माना जाता है. व्यास घाटी के सभी गांवों में ‘नमज्यूँग’ की आराधना होती है. बूँदी की धरती पर पग रखने से पूर्व ‘भूम्या’ या भूमि देवता की पूजा करने की मान्यता व रिवाज है. व्यास की इस पावन धरती में भारत व नेपाल के नौ गाँव हैं जहां दीर्घायु के लिए बालकों की “बढ़ानी पूजा “होती है.
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पूजा में संकटों से मुक्ति व स्वस्थ सबल होने की कामना हेतु आशीष दी जाती है : “वर गे छे ना छे राला, व्यू गै नौ ना नौ रा लो”. छियालेख से आगे इनर लाइन है जहां विदेशियों के लिए प्रवेश वर्जित है. इस भू भाग से ‘आपी’ पर्वत जिसे अन्नपूर्णा पर्वत भी कहते हैं के सुरम्य दर्शन होते हैं.
छियालेख से आगे चल गर्ब्यांग गाँव है जो बहुत उपजाऊ इलाका है. यह स्थल व्यास घाटी का केंद्र बिंदु है, मान्यता है कि यह महर्षि व्यास की तप स्थली रहा कुटी नदी एवं कालापानी से निकली काली नदी के संगम स्थल के समीप के चौरस स्थल के किनारे बसा ये गाँव प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों व नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण है. यहाँ की सब्जी और सेव बहुत प्रसिद्ध हैं. यहीं की तरह बोना का सेव भी आकार स्वाद और कड़कपन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये है. गर्ब्यांग में अनेक पुराने मकान हैं. अधिकांश निवासी गाँव से नौकरी व्यवसाय हेतु प्रवास कर गए हैं. यहाँ से आगे गुंजी है जो भारत तिब्बत व्यापार का मुख्य केंद्र रहा.गुंजी के आवासों में भी नपलचू की तरह काष्ठ कला की नायाब कारीगरी दिखाई देती है. खिड़की दरवाजों में उत्कृष्ट नक्काशी की गई है. गुंजी में गाँव के बीचों बीच ‘क्षतम’ बना है जिसका मतलब है न्याय की कुर्सी.
किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए आपसी सहमति से चुना गया व्यक्ति पंच की भूमिका में इसी आसान पर बैठ कर न्याय करता है. उसका आदेश सब मानते हैं गर्ब्यांग से नदी के किनारे चलते हुए आगे नपलचू गाँव आता है. गुंजी और नपलचू के मध्य ‘कुटे’ नदी है जिस पर बने लकड़ी के पुल से दोनों गाँव के बीच आवागमन होता है. गुंजी होते हुए ही कैलास मानसरोवर यात्रा के लिए कालापानी व आगे नाबीडांग होते हुए लिपुलेख दर्रे को पार कर तिब्बत की ओर जाते हैं. दूसरी ओर आदि कैलास जाने के लिए नावी गाँव से हो कर आगे बढ़ते हैं. गुंजी और नावी गाँव की सीमा ‘गुन्दाझारा’ है. व्यास घाटी का आखिरी गाँव कुटी है जो कि भारत की सीमा का भी अंतिम गाँव है.
कुटी गाँव में पांडव किले के अवशेष हैं जिनसे यह संकल्पना ली गई कि इस क्षेत्र का सम्बन्ध पांडवो से रहा होगा. इस किले के अवशेषों से मिट्टी का ढेला तक नहीं उठाया जाता है. ऐसा किया जाने पर गाँव में प्रकोप बढ़ जाते हैं. कुटी गाँव के बाद बसासत नहीं हैं. कुटी क्षेत्र में विष्णु पर्वत या निरकुच रामा, पांडव परबत, पांडव किला एवं अजगर शिला हैं. अजगर शिला के होने से गाँव में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि इससे गाँव के भीतर साँपों का प्रवेश नहीं होता. कुटी गाँव से करीब तीन कि. मी. आगे “यर मांगदो” बुग्याल है यहीं से आगे सेला दर्रा आता है जिस पर से पहले आवागमन होता था.
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चौंदास का इलाका धारचूला तहसील में तवाघाट से आगे पांगू, सोसा, सिरखा, नारायण आश्रम, सिरदांगऔर आगे गाला तक विस्तृत है. तवाघाट से 17 कि. मी. आगे मांगती तक का खड़ी चढ़ाई, खड़ंजे-पडंजे पार कर पहाड़ी की चढ़ाई आगे बर्फीले पथ और नदी पार करते इस मार्ग में मौसम की प्रतिकूल दशा और पहाड़ियों में जगह जगह हो रहे भूस्खलन से सावधान रह बच बच कर चलना पड़ता है.इस इलाके की तलहटी में काली नदी का तीव्र निनाद और गर्जन है. बरसात शुरू होते ही जून से अक्टूबर की शुरुवात तक यह इलाका प्रकृति के रौद्र रूप दिखाता है. बने हुए पथ लगातार अवरुद्ध होते हैं तों नये रास्तों का विकल्प भी बना रहता है.
तवाघाट से करीब छः कि. मी. की खड़ी चढ़ाई चढ़ते नीचे लहराती बलखाती काली नदी है जो कई मोड़ों पर बिलकुल शांत दिखती है तो कहीं साँप की तरह बलखाती धीरे धीरे पतली सी लकीर में बदलती गुम हो जाती है. शुरुवात में करीब तीस डिग्री के ढाल पर चढ़ते पाँव के नीचे मुलायम सी घास पर चलते गद्दोँ पर चलने का एहसास होता है. आसपास की हरियाली और पेड़ धीरे धीरे छूटने लगते हैं और आगे सामने दिखाई देतीं हैं काली धूसर भुरभुरी चट्टानें. अब चढ़ाई बढ़ जाती है और पचास से साथ डिग्री के उबड़ खाबड़ ढाल पर सांस धोंकनी सी चलती है. जूतों के नीचे पत्थर चुभते हैं और आगे यत्र तत्र फैले बोल्डर दिखते है.इनमें से कई तो विशालकाय हैं और इनके सामने से गुजरते हुए और चट्टानों के खड़े ढाल को देखते यह सोच कर ही सिहरन हो उठती है कि अगर ये लुड़के तो न जाने क्या क्या अपने साथ समेटे लुढ़कते सीधे काली नदी की ओर जायेंगे ओर ऐसे में जो गर्जना होगी आवाज आएगी वह कान के परदे तो बाद में फटेंगे कुछ ही सेकंडों तक संहार देख पाने लायक जान बचेगी इसका भरोसा नहीं.
यह कोई कपोल कल्पना नहीं आदि कैलाश ओर कैलाश मानसरोवर को जाते इस प्रदेश में चट्टानों, बोल्डर का खिसकना लुढ़कना आम सी घटना है. दशकों पहले मालपा में ऐसी ही एक ह्रदय विदारक घटना हुई थी जिसमें सभी कैलाश यात्री काल कलवित हो गये थे. जब इनकी लाशें बड़ी मुश्किल से क्रिया कर्म के लिए धारचूला लाई गईं तो पूरा इलाका सड़ाँध से भर चुका था. डॉक्टरों ने धूप की मोटी बत्तियों के धुवें में पोस्ट मार्टम किया था. कीचड़ मिट्टी से लथ पथ इन्हीं में प्रसिद्ध नृत्याँगना प्रोतिमा बेदी भी थी, एक्टर कबीर बेदी की पत्नी. माल्पा इस प्राकृतिक कोप से स्मृतियों का गाँव बन गया. अब यहाँ फिर दुकानें खुली हैं और भूस्खलन से काल कलवित हुए यात्रियों व समूचे दल की स्मृति में शिव मंदिर के साथ ही स्मृति स्थल बनाया गया है जिसमें श्रद्धा पटल पर अंकित है :
माल्पा तुम सिखाते हो जिंदगी जिन्दा -दिली का नाम है.
तवाघाट से दूसरी ओर ठाणीधार की चढ़ाई पार कर एक कच्चा रस्ता आता है जिस पर करीब दो कि. मी. चढ़ आता है पांगू गाँव.पांगू गाँव से आगे जाने के लिए खड़ंजे वाला रस्ता है जिस पर चलते एक नाला भी पड़ता है जिसे ज्योति नाला कहा जाता है. ज्योति नाला पार कर सोसा गाँव आता है.सड़कें अभी बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं. सामान ढुलाई के लिए पोर्टर और खच्चरों का काफी प्रयोग होता है. सोसा में लकड़ी, पत्थर और मिट्टी के साथ पाथर की छत वाले मकान तो हैं हीं अब सरिया सीमेंट सरिया के मकान भी बन गए हैं. इन गावों में बिजली पहुँच गई है पर हर घर में लाल टेन और लंफू जरूर दिखते हैं. बिजली के अक्सर चले जाने पर इन्हीं का सहारा होता है. हालांकि अब मिट्टी तेल बड़ी मुश्किल से मिलता है. सोसा गाँव की आबादी 300सौ से अधिक रही है और पचास से अधिक परिवारों के घर में डिश एंटेना लगे दिखते हैं. पहले कैलाश मानसरोवर जाने का परंपरागत रस्ता सोसा होते हुए ही जाता था. सोसा से आगे करीब तीन कि. मी. दूर सिरखा गाँव पड़ता है.
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सोसा गाँव से आगे जयकोट के उच्च स्थल पर समुद्र तट से करीब नौ हजार फ़ीट की ऊंचाई पर सिरखा का प्रसिद्ध नारायण आश्रम है. इतनी ऊंचाई पर बनाये नारायण आश्रम की भव्यता व वास्तुकला अद्भुत है जिसकी स्थापना नारायण स्वामी के द्वारा 26 मार्च 1930 में की गई थी.इतने दुरूह एकांत इलाके में उस समय जब बुनियादी सुविधाएं नहीं के बराबर थीं, कितने प्रयत्न, प्रयास और आत्मबल से नारायण स्वामी द्वारा इस आध्यात्मिक तीर्थ की स्थापना की गई यह प्रश्न यहाँ पहुँच अपूर्व शांति प्राप्त करने वाले हर श्रृद्धालु को होती है. इस आश्रम के निर्माण में साढ़े पांच साल लगे थे. जय कोट में नारायण आश्रम बनने के बाद यहाँ आवागमन बढ़ा जिससे इस समूचे चौंदास क्षेत्र का विकास हुआ. स्वामी जी चाहते थे कि यह आश्रम आध्यात्मिक, शैक्षिक व आर्थिक उत्थान का सृजनात्मक ऊर्जा से युक्त केंद्र बने. नारायण स्वामी ने औरतों को शिक्षित करने तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के काफी प्रयास किए व अनेक शिक्षण संस्थाएं खोलीं. 9 नवंबर 1956 को स्वामी जी के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् यह नारायण स्वामी ट्रस्ट द्वारा संचालित होता है.
आश्रम में एक संग्रहालय व पुस्तकालय भी है. इस मंदिर के पुजारी नेपाल के बडू ब्राम्हण हैं.पहले जब तवाघाट से मांगती तक सड़क नहीं पहुंची थी तब कैलास जाने वाले तीर्थयात्री व भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस की टुकड़ियाँ इसी रस्ते पर चलते थे. यात्रा अवधि में इन्हीं गावों के निवासी रास्ते में चाय नाश्ते व खानेपीने की छोटी दुकान खोल लेते थे. इसके साथ ही पोर्टर व खच्चरों से सामान ढुलाई का काम भी होता था. सिरखा गाँव में छोटे छोटे सीढ़ीदार खेत हैं और यहाँ की जमीन उपजाऊ है. गाँव में खेती मुख्य व्यवसाय है पर अपनी सीमाओं के कारण खेती बाड़ी जीवन निर्वाह स्तर से आगे नहीं बढ़ पाई है.
सिरखा से आगे सिमरी गाँव पड़ता है. सिरखा से आगे करीब दो कि. मी. आगे जंगल से हो कर गुजरना पड़ता है. फिर चढ़ाई में करीब पांच कि. मी.चलने के बाद ढाल और उतार शुरू हो जाता है. जाड़ों में यहाँ खूब बर्फ पड़ती है. इस रास्ते नीचे उतरते हुए सिमखोला गाँव की नदी तक पहुंचा जाता है. इस नदी को पार करने के बाद गाला गाँव आता है. गाला से आगे मांगती गाँव तक का इलाका बहुत ही कठिन और दुर्गम है. जिसे पार करने में करीब दो घंटे तो लग ही जाते हैं..पास में ही चारों ओर आकर्षक वृक्षों से घिरा नयनाभिराम सौंदर्य और शीतल पावन की बयार से सिक्त सीता टीला है. यह पूरा क्षेत्र शिवमय है, वही आराध्य हैं. यहाँ इष्ट शिव जी को “ह्यागंगरी” नाम से सम्बोधित करते हैं तो मानसरोवर को “मां -पांग छो” कहा जाता है. कैलास पर्वत को यहाँ “गंगदी” एवं छोटा कैलास को, “मिदें गंगदी” कहा जाता है जिनकी स्थानीय परम्पराओं के अनुसार पूजा अर्चना की जाती है. इस सम्पूर्ण परिवेश में,”ळ्न होम ळ्न मो हम”के संस्कार व परंपरा है. इसका तात्पर्य है कि अपने व्यक्तिगत कार्य तो छोड़ दो पर सामाजिक कार्य न छोड़ो. यही सामाजिकता और सहकारिता की वह मूल भावना है जो स्थानीय निवासियों की भावनाओं में अंतर्निहित समावेशित है.साथ ही हर घर में हर घर के आँगन में “दरच्यो” लगाया जाता है. दरच्यो का निहितार्थ है बुरी चीजों या दर्दे से बचाने वाला. इसे पूरा गाँव मिल कर लगाता है. यहाँ प्येर बुग्याल का नाम है तो गणेश जी का भी जिन्हें गेहूं इत्यादि की बालियों से पूजा जाता है.
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दारमा निवासी “धरमा ल्हम्सल” देवता को पूजते हैं और अपने घर के दरवाजों पर मंत्राँकित ध्वज लगाते हैं. दूसरा बड़ा देवता ‘ तुङ्ताङ ‘है जिस देव नाम पर तिब्बती प्रभाव है. वहीं व्यांस का देवता ‘व्यास’ है जिस पर बौद्ध धर्म का प्रभाव है तो चौंदास का इष्ट ‘नामजुंग’है.लोक कल्याण एवं सामाजिक समरसता के उद्देश्य से दारमा व्यास और चौदास के सम्पूर्ण क्षेत्र में प्रकृति की अनुपम सत्ता और इसके रहस्य छुपे है जिनका बोध इस पावन धरती पर आकर मानसिक शक्तियों में कम्पन कर सशक्त व सचेतन बना “प्रकृति पुरुषार्थकम जगत” को साकार कर देती है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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