Categories: Featured

“भारतवर्ष की उन्नति ऐसे हो सकती है” – भारतेंदु हरिश्चंद्र का ददरी मेला व्याख्यान

“इस साल बलिया में ददरी मेला बड़ी धूम-धाम से हुआ. श्री मुंशी बिहारीलाल, मुंशी गणपति राय, मुंशी चतुरभुज सहाय सरीखे उद्योगी और उत्साही अफसरों के प्रबंध से इस वर्ष मेले में कई नई बातें ऐसी हुईं, जिनसे मेले की शोभा हो गई. एक तो पहलवानों का दंगल हुआ , जिसमें देश-देश के पहलवान आए थे और कुश्ती का करतब दिखलाकर पारितोषिक पाया. दूसरे के थोड़े ही दिन पूर्व ही से एक नाट्य समाज नियत हुआ था , जिसने मेले में कई उत्तम नाटकों का अभिनय किया.”

-`हरिश्चंद्र चंद्रिका´ 3 दिसम्बर 1884

ददरी एक मामूली-सा गांव है, भारत के अन्य गांवों की तरह. अगर आप नक्शा उठाकर जगहों को खोजने के आदी हों तो यह शायद ही मिले. चलिए बताते हैं आपको – बलिया का नाम सुना है? अरे वही बलिया, भारत के उत्तर प्रदेश प्रांत के धुर पूरबी छोर पर बसा एक जिला जो समाचारों में कभी-कभार ही प्रकट होता है. हां, अगर इतिहास में उतरें तो देखेंगे कि यह पहली जंगे आजादी के महानायक मंगल पाण्डे की जमीन है. और भी कई ऐतिहासिक-पौराणिक आख्यान जुड़े हैं यहां से , लेकिन बात तो ददरी की हो रही है.

ददरी बलिया से तीन -चार कोस की दूरी पर है. गंगा और घाघरा की इस मिलन-स्थली में प्रदेश का सबसे बड़ा पशु मेला कार्तिक पूणिमा को लगता है. कार्तिक पूणिमा यानी साल की सबसे उजली रात, गोल पूरा-पूरा चांद. जगह-जगह लगने वाले मेले-ठेले और नहान. ददरी का मेला भी इन्हीं में से एक है. पशुओं के इस मेले में आदमियों की भीड़ सबसे ज्यादा होती है. तरह-तरह के आदमी , तरह-तरह के विचार, और उनसे दृश्य-अदृश्य रूप में बनती एक विचार सरणि. हैबरमास इसी को तो `पब्लिक स्फीयर´ का नाम देता है!

हिन्दी साहित्य में रूचि रखने वालों के लिए ददरी मेले का एक खास ऐतिहासिक महत्व है. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885) ने नवम्बर 1884 में यहां एक व्याख्यान दिया था जिसे बलिया व्याख्यान´या बलिया वाला भाषण के नाम से जाना जाता है. यही व्याख्यान भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है शीर्षक से `हरिश्चंद्र चंद्रिका´ में दिसम्बर 1884 में प्रकाशित हुआ. इससे पूर्व भारतेन्दु के दो नाटकों-`सत्य हरिश्चंद्र´ और `नीलदेवी´ का मंचन होने के साथ ही उनका नागरिक अभिनंदन बलिया इंस्टट्यूट में किया गया था जिसकी सदारत कलेक्टर मि. डी. टी. राबर्ट्स साहेब बहादुर ने की थी. इसी संस्था की एक सहयोगी आर्यदेशोपकारिणी सभा के निमंत्रण पर बाबू हरिश्चंद्र जी ने एक बड़ा ललित , गंभीर और समयोपयोगी व्याख्यान इस विषय पर दिया कि भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? सभासद बाबू साहेब का लेक्चर सुनकर गदगद हो गये.

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? निबंध जहां एक ओर भारतेन्दु के साहित्य का एक अप्रतिम उदाहरण है. `देशोपकार´ की मुख्य धारा के साथ केवल भारतेन्दु ही नहीं जुड़े थे बल्कि उस समय के तमाम साहित्यकारों के लिए साहित्य मात्र विनोद नहीं था, अपने समय और समाज की संवेदना व्यक्त करने, बनाने और बदलने का एक औजार था. भारतेन्दु निश्चत रूप से इनमें आगे और संभवत: सबसे अधिक सक्रिय थे. इस बाबत एकेडेमिक दुनिया में रामविलास शर्मा, वसुधा डालमिया, क्रिस्टोफर किंग, सुधीर चंद्र, फ्रेंसेस्का आरसीनी आदि ने बहुत कुछ लिखा है.

यह निबंध भारतेन्दु के और गद्य की संवेदना और समझ की एक स्पष्ट विभाजक रेखा हैं , नाटकों में यह विभाजन और स्पष्ट है. इसे उनका अंतर्विरोध या एम्बीवलेंस कहा गया हैं वैसे यह उस युग के लगभग सभी साहित्यकारों में विद्यमान था जो लेखक -कवि पद्य में विनोद रचते हुए प्राय: स्थान-स्थान पर ब्रिटिश सिंह के प्रति अपनी लायल्टी की मुनादी करता दिखाई देता है, वही अपने गद्य में विमर्श पर उतर आता है. यह उस काल की राजनीतिक -सामाजिक विवशता थी, साहित्यकारों का दुचित्तापन था? क्या था? खैर, यह निबंध हिन्दी साहित्य में खूब पढ़ा गया है, पाठ्यक्रम के भीतर और बाहर भी. इसमें सब अपना-अपना तत्व खोज लेते हैं. एक बड़ी रचना बार-बार अपने पाठ की चुनौतियां और संभावनायें लेकर मौजूद रहती है’. और हां, 19वीं शताब्दी के ढलान पर बोलचाल तथा लिखत-पढ़त की हिन्दी के विकास और विस्तार के शेप का उम्दा नमूना तो यह है ही.

भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885)

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? व्याख्यान के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्तुत हैं-

हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं. यद्यपि फस्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी -अच्छी और बड़े बड़े महसूल की इस ट्रन में लगी हैं पर बिना इंजिन ये सब नहीं चल सकतीं, वैसे ही हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते. इनसे इतना कह दीजिए `का चुप साधि रहा बलवाना´, फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आ जाता है. सो बल कौन याद दिलावै. या हिन्दुस्तानी राजे महाराजे नवाब रईस या हाकिम. राजे -महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, गप से छुट्टी नहीं. हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बाल, धुड़दौड़, थिएटर, अखबार में समय गया. कुछ बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवैं.

बहुत लोग यह कहैंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती बाबा, हम क्या उन्नति करैं? तुम्हरा पेट भरा है तुमको दून की सूझती है. यह कहना उनकी बहुत भूल है. इंगलैंड का पेट भी कभी यों ही खाली था. उसने एक हाथ से पेट भरा , दूसरे हाथ से उन्नति की राह के कांटों को साफ किया.

अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो. कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं. उन चारों को वहां वहां से पकड़कर लाओ. उनको बांध बांध कर कैद करो. इस समय जो बातैं तुम्हारे उन्नति के पथ में कांटा हों उनकी जड खोद कर फेंक दो. कुछ मत डरो. जब तक सौ दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जायंगे, दरिद्र न हो जायंग, कैद न होंगे वरंच जान से मारे न जायंगे तब तक कोई देश भी न सुधरैगा.

देखो , जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली हैं , वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंगलैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है. दीयासलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है. जरा अपने ही को देखो. तुम जिस मारकीन की धोती पहने वह अमेरिका की बनी है. जिस लांकिलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंगलैड का है. फरांसीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हौ और वह जर्मनी की बनी बत्ती तुम्हारे सामने बल रही है. यह तो वही मसल हुई कि एक बेफिकरे मंगनी का कपड़ा पहिनकर किसी महफिल में गए. कपड़े की पहिचान कर एक ने कहा, “अजी यह अंगा फलाने का है”. दूसरा बोला, “अजी टोपी भी फलाने की है”. तो उन्होंने हंसकर जवाब दिया कि, “घर की तो मूंछैं ही मूंछैं हैं”. हाय अफसोस, तुम ऐसे हो गए कि अपने निज के काम की वस्तु भी नहीं बना सकते. भाइयो, अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो. जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताबें पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो. परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का का भरोसा मत रखो. अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • उसने एक हाथ से अपने पेट को भरा और दूसरे हाथ से उन्नति के कांटो को साफ किया इस सूक्ति का अर्थ है कि दूसरे देश कि लोग जो उन्नति कर चुके हैं वह भी कभी भूखे बेरोजगार हुआ करते थे इन्होंने भी कई कठिनाइयों का सामना किया। लेकिन इन्होंने आलस्य को छोड़कर अपने सही कर्म को करके पेट भरा और अपने उन्नति में लगातार जुड़ गए यह अपने कीमती समय को कुछ समय पेट भरने में लगाया और शेष समय अपने उन्नति यू में लगाया और शेष समय अपनी नीतियों में आने वाले कठिनाइयों को दूर करने के लिए लगाया था भारतेंदु जी ने इस इसलिए इनको एक हाथ से अपने पेट भरने तथा दूसरे हाथ से उन्नति के कांटे को साफ करने वाला कहा है

Recent Posts

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

18 hours ago

यूट्यूब में ट्रेंड हो रहा है कुमाऊनी गाना

यूट्यूब के ट्रेंडिंग चार्ट में एक गीत ट्रेंड हो रहा है सोनचड़ी. बागेश्वर की कमला…

20 hours ago

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

2 days ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

2 days ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

3 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

3 days ago