उत्तराखंड़ के गांवों की एकता, प्रेमचंद के उपन्यासों मे वर्णित भाइचारे की सच्ची झलक दिखलाती है. सांझा चूल्हा हो या शादी बारात, किसी के घर मे कोई पैदा हो या मरे गांव के सारे लोग साथ खड़े मिलते है. ऐसे कठिन हालात मे भी किसी चीज का अभाव कभी नहीं दिखाई देता है.
(Culture of collectivity in Uttarakhand)
अब एक घटना से इस सामाजिक एकता को समझते हैं, यदि गांव में किसी के घर में छत (लेंटर) पड़ता है तो कैसे पड़ता है. छत पड़ने वाले दिन उस गांव के सारे लोग उस घर पर इकठ्ठा हो जाते हैं और अपने अपने घरों से तसले फावड़ा बेलचा, कुटेला, कन्नी, डोर आदि लेकर आते हैं. एक अच्छे राजमिस्त्री व उसकी एक छोटी सी टीम को मजूरी पर बुला लिया जाता है. रेता, रोड़ी, पानी के ड्रम, सीमेंट की मात्रा पहले दिन ही नाप कर रख दी जाती है.
मजबूत शरीर के पहाड़ी लोग मसाला (सीमेंट, रेता, रोड़ी, पानी) फेंटना शुरू कर देते हैं. एक मानव चेन बनाई जाती है जो मसाला फेंटने के स्थान से शुरू होकर छत तक पहुंचती है. लोग तसलों से तैयार माल को छत तक पहुंचा देते हैं, जहां राज मिस्त्री इसे विधिवत फैला कर लेंटर का स्वरूप देता है. जमीन से छत तक पहुचँने के लिए बल्ली या बांस की सीढ़ीनुमा पाड़ बनायी जाती है, हल्की और बेहद मजबूत.
(Culture of collectivity in Uttarakhand)
गाँव के लोगों की यह संस्था इतनी मजबूत और कार्यकुशल होती है कि एक बार किसी के काम मे रोड़ी कम पड़ गयी थी ऐसे में बीस बाइस महिलाओं की टीम हथौड़ियां लेकर बैठी और तत्काल इसकी कमी पूरी कर दी.
यदि बारिश आ जाए तो लोग अपने-अपने घरों से तिरपाल ले आते हैं, तिरपाल कम पड़े तो सीमेंट के खाली कट्टों का तिरपाल बना दिया जाता है. जहां-जहां लेंटर पड़ा होता है उसे ढंक दिया जाता है. मजे की बात ये है कि बारिश पड़ती रहती है और छत भी. पहाड़ के ये लोग भीगते हुये हंस-गा कर काम को अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं.
अब होता है समापन, लेंटर पूरा पड़ जाता है. टीम के चेहरे पर विजय व मकान स्वामी के मुख पर धन्यवाद के भाव आरूढ़ हो जाते हैं.
फिर होती है दावत, रात को लोग नहा-धोकर साफ कपड़े पहनकर मकान स्वामी के यहां इकठ्ठे होते हैं. पूरी, -आलू-पिनालू, चटनी, अगर माली हालात ठीक हैं तो मांस के साथ मदिरा. बातों का दौर चल पड़ता है कि कैसे, किसने, अमुक अवसर पर गिरती बाजी संभाली थी. कैसे तल्ली पार की ताई ने घंटा भर पहले ही चेता दिया था कि अरे! तैयारी कर लो बारिश आ के रहेगी. फिर जमती है नाच-गाने की महफ़िल, जिससे नजर हटाये नहीं हटती.
(Culture of collectivity in Uttarakhand)
हल्द्वानी के रहने वाले नरेन्द्र कार्की हाल-फिलहाल दिल्ली में रहते हैं.
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
.
Support Kafal Tree
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…