गाँव-देहात में तब बैंक नहीं खुले थे. साहूकार सूद पर रुपए चलाते थे. सूद की एक तय सीमा रहती थी. क्रेडिट कार्ड का तब तक चलन शुरू नहीं हुआ था. अब सवाल उठता है कि, जब साहूकारी का नाम सुनकर ही झुरझुरी उठने लगती है, तो लोग उनसे कर्ज लेते ही क्यों थे.
अचानक सामने आई किसी जरूरत को पूरा करने के लिए बेचारे कर्ज नहीं लेते, तो क्या करते. सूद पर रुपया कोई शौक से नहीं उठाता, सहसा कोई आपात स्थिति आन पड़ी हो, तो फिर कोई चारा भी नहीं बचता. मसलन कोई बड़ा काम सामने आ खड़ा हो. मकान-जमीन जोड़ना हो या बेटी का ब्याह. हारी-बीमारी. हाथ में रुपया नहीं है, और आनन-फानन में कोई ऐसा काम जुड़ गया हो, तो फिर कर्ज लेने के सिवा कोई भी चारा शेष नहीं रहता था.
विशु नाना पुरोहिताई का काम करते थे. सूद पर रुपया भी चलाते थे. इलाके में उनका वृहद् वित्तीय कारोबार था, जिसके चलते उन्हें मजाक में ‘विश्व बैंक’ भी कहा जाता था. पूरा नाम तो उनका विश्वंभर दत्त था. कारोबार में वे जाने-माने आदमी थे और उनके कुछ उसूल थे. न तो वे जमीन-जेवर गिरवी रखते थे, न ही घड़ी-अंगूठी रेहन पर. उन्होंने कभी किसी से रुक्का या प्रोनोट भी नहीं लिखवाया. उनका सारा कारोबार, बस एक चीज पर चलता था, वो था सहज विश्वास. अगर कर्जदार समय पर किस्त जमा कराते रहते, तो पूछते तक नहीं थे. जहाँ अन्य साहूकार कर्ज चुकाने में जरा सी देरी होने पर भारी दंड लगाते थे, उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया. कई-कई बार, तो पूरा-का-पूरा सूद तक माफ कर जाते. कहते, ‘तू परेशान मत हो. मन छोटा मत कर. जब होंगे, तो मूल ही लौटा देना. घबरा मत, अभी के लिए नहीं कह रहा हूँ, जब होंगे, तब लौटा देना.’
रुपया उनका कभी नहीं डूबा. जब कभी डूबने की नौबत आई, तो कुछ-न-कुछ ऐसा संयोग बना कि, कुछ समय बाद रकम उबर-उबरकर लौट चली आई.
एक आसामी ने उनसे ऋण लिया हुआ था, ‘क्विक लोन’. छह महीने में लौटाने की बात तय हुई. ऊपर से महीने-के-महीने सूद. जब महीने-के-महीने सूद नहीं मिला, तो उन्होंने सोचा, “कोई बात नहीं. होगी कोई मजबूरी. तभी नहीं दे पा रहा है. जिंदगी में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं. जैसे ही काम चल निकलेगा, हालात खुद-ब-खुद सुधर जाएँगे।” उन्हें विश्वास था कि, रकम लौट आएगी. देखते-देखते छह महीने कब बीते, पता ही नहीं चला. मियाद कब की पूरी हो गई थी. जब दो हफ्ते और ऊपर हो गए, तब अपने कायदे के मुताबिक, एक शाम वे उसके घर जा पहुँचे. अँधेरा घिर आया था. आसामी की झोपड़ी की देहरी पर ढ़िबरी जल रही थी. उनके खाँसने पर वह बाहर निकल आया और झटपट बैठने के लिए उन्हें आसन दिया. दुआ- सलाम करके आश्चर्य से बोला, “राम-राम पंडिज्जी. आज रस्ता कैसे भूल गए. बहुत दिन बाद दिखे. गरीबों से इस तरह नजर फेरना अच्छी बात नहीं।”
पंडित जी ने आसामी से घर-गिरस्ती का हाल-चाल पूछा, काम-धाम के बाबत् जिज्ञासा की. इस औपचारिक चर्चा के बाद वे सीधे मुद्दे पर आए और वित्त की चर्चा छेड़ दी. उन्होंने उसे इशारों-ही-इशारों में कहा. कुछ इस तरीके से कहा कि, उसे बुरा भी न लगे, और याद भी आ जाए.
“भले आदमी, कुछ तो भेज देता. गुंजाइश नहीं थी, तो खबर ही भेज देता. रामा- रामी बंद हो जाए, ये तो अच्छी बात नहीं. गिरस्ती में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं।”
इस वाणी को सुनकर, आसामी के चेहरे पर हैरत भरे भाव उभर आए. फिर उनसे मुखातिब होते हुए बोला, “जो बोलना है, साफ-साफ बोलो, पंडिज्जी. ये गोल-मोल बातें अपनी समझ में नहीं आती. मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया, आखिर तुम कहना क्या चाहते हो. अब ज्यादा पहेली मत बुझाओ. जो कहना है, साफ-साफ बोलो।”
आसामी नया था, इसलिए पंडित जी के लिए यह एक नए तरह का अनुभव था. आखिर उन्हें अपने आने का मकसद बताना ही पड़ा. इस पर उसने हैरत जताते हुए कहा, “क्या बात करते हो पंडिज्जी. मैंने तुमसे कब पैसे लिए. जरूर तुमसे कोई भूल हो रही है. किसी और ने लिए होंगे. किसी और का बकाया, मेरे ऊपर मत चेप देना. लिया किसी और ने हो, और उसके बदले मैं चुकाऊँ, ये तो जुल्म-बात हो जावेगी पंडित।”
पंडित जी शांत, अविचल भाव से बैठे रहे. किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.
“ठीक है भाई. तुम ऐसा कह रहे हो, तो फिर ऐसा ही हुआ होगा।” कहते हुए वे आँगन से बाहर निकल आए.
साहूकार का रुपया दबाने पर, उसे जितनी खुशी हुई, उससे ज्यादा कुतूहल हुआ।उसका मन हुआ कि, वह खुशी में नाचे, जश्न मनाए.
अलस्सुबह अंधेरे में चार बजे, वह मछली पकड़ने निकलता था. धूप निकलने तक ढ़ेर सारी मछलियाँ पकड़ लाता. वह जाना-माना मछेरा था. जाल फेंकने में उसका आत्मविश्वास बहुत ऊँचा था. वह था भी, कलंदरी टाइप का मछेरा. जाल फेंकने की अभ्यस्त मुद्रा में वह इतना सटीक था, कि उसके जाल फेंकते ही मछली खिंची चली आती थीं.
उस दिन उसे हैरानी और निराशा एकसाथ हुई. उसने कई-कई बार जाल फेंका, हाय दुर्दैव, एक भी मछली हाथ न लगी. चटक धूप निकल आई थी. उसके लौटने का समय हो चला था. उसने मन को समझाया, ‘हर बार हुनर नहीं चलता, कभी-कभी मुकद्दर की भी सुननी पड़ती है. यह बात मुकद्दर पर निर्भर करती है, कि क्या मिले. मिले-न-मिले. रोज-रोज दाँव चले, यह बात भी तो जरूरी नहीं।’ कई दिनों तक, वह धूप निकलने तक जाल फेंकता रहा. सही मायने में कहा जाए, तो जाल फेंकने की प्रैक्टिस सी करता रहा, लेकिन उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा. आदतन वह इस काम को छोड़ भी तो नहीं सकता था, लेकिन हर बार उसे नाकामी हाथ लगी. मछली, व्यापार के लिए तो छोड़ो, खाने को तक नहीं मिली. चौथे-पाँचवें रोज से उसका मन मचलने लगा. नतीजतन, वह अकेले में खूब भावुक हुआ. उसने मन-ही-मन मंथन किया. इस मंथन से जो निष्कर्ष निकला, उससे पहले तो उसका मन व्याकुल हुआ और फिर भयभीत होकर रह गया. साहूकार की सिद्धि के बारे में उसने उड़ते-उड़ते सुना हुआ था. यह सोचते ही वह अंदर तक हिलकर रह गया. अब उसे एक आशंका सताने लगी, ‘उस रात को पंडत कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं कर गया. नहीं तो ऐसा कैसे हो सकता है कि, मैं जाल फेंकूँ और मच्छी न फँसे।’
वह उदास होकर घर लौटा. पूरे दिन बेचैन रहा. किसी भी काम में मन नहीं लगा. वह रात भर बेचैन रहा. नींद नहीं आई. रह-रहकर, करनी- भरनी का हिसाब लगाता रहा.
सुबह-सुबह वह उनके दुआरे जा गिरा. समूचा मूल-सूद चुका आया. हाथ जोड़कर विनती भी कर आया, “गुर्जी, कुछ उल्टा-सीधा कहा हो, तो मन से निकाल देना. मैं ठहरा मछुआरा, कमअक्ल आदमी. नादानी समझकर माफ कर देना.”
लोक-वार्ता में इस घटना को तरह-तरह से स्थान मिला. कुछ कहते थे कि, उन्होंने झोपड़ी से निकलते हुए उसके जाल पर फूँक मारी थी. कुछ कहते थे कि, उन्होंने अंधेरे में टोहकर उसके जाल को टटोला. बाकायदा छुआ और उसे सहलाया. जितने मुँह, उतनी बातें.
चंडूखाने से तो यह भी खबर उड़ी कि, अगले दिन से उसकी मछलियाँ पूर्ववत् फँसने लगी और इस तरह से उसके मत्स्य-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ.
ऐसा ही एक और वाकया हुआ. वह आसामी भी लेकर चुकाना भूल गया. उसकी भूल पर भी, उन्होंने कोई उज्र नहीं किया. उसके आँगन से भी चुपचाप चले आए. जैसे ही वे उसके आँगन से निकले, आसामी की खूँटे से बँधी दो भैंसे, आपस में लड़ गईं. दोनों ने एक-दूसरे के एक-एक सींग तोड़ डाले. आसामी को काटो तो खून नहीं. सींग टूटने से भैसों का सौंदर्य बिगड़कर रह गया. उन दिनों ‘कुरूप भैंसों’ के भाव एकदम से गिर जाते थे. खरीददार, सींग देखते ही, दाम में सीधे कटौती- प्रस्ताव पेश करते थे. तो इस नुकसान को वह सहन नहीं कर पाया. वह भीतर से चकनाचूर होकर रह गया. उसे जल्दी ही अकल आ गई और उसने दौड़ते हुए उनका पीछा किया. रास्ते में ही समूचा मूल-सूद चुका आया. माफी माँगते हुए बोला, “पंडिज्जी मुझे याद आ गया. भूलकर मैंने भर पाया.”
हो सकता है, ये घटनाएँ महज इत्तेफाक रही हों. हो सकता है, ऐसे वाकए कभी-कभार हुए हों. लेकिन लोक-वार्ताकार ऐसा जाहिर करते थे, जैसे कि ये चमत्कार रोज होते हों, अक्सर और खुलेआम होते हों. धीरे-धीरे ये बातें, उनकी सिद्ध-छवि से जोड़कर देखी जाने लगी. अंधविश्वास को जितना दोष दिया जाए, उतना कम है, लेकिन लंबे अरसे से ये बातें समाज से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थीं. चाहे ये सहज-सिद्धि की बातें, कुछ ही घटनाओं पर टिकी हुई हों, लेकिन इनकी व्याप्ति पूरे उफान पर रहती थीं. जिन्हें इस विषय में संदेह हो, उन्हें इस वाकए से पता चल जाएगा.
सर्दियों में धूप सेंकने का रिवाज था. धूप, सामूहिकता में सेंकी जाती थी. साथ-साथ गपशप भी चलती रहती.
गाँव में एक डिस्पेंसरी थी. डॉक्टर के यहाँ ‘सीजनल पेशेंट’ आते थे. समय काटने के लिए उसने अख़बार लगाया हुआ था. डिस्पेंसरी के आगे एक ऊँची सी मुंडेर थी. फुरसतिए उस पर बैठकर धूप सेंकते थे, लगे हाथ अखबार भी पढ़ लेते. अखबार पढ़ने का सबका अपना-अपना चाव रहता था. बुजुर्ग लोग राष्ट्रीय पेज पकड़े रहते थे, तो नौजवान खेल और सिनेमा का. जो खुद को बुद्धिजीवी लगाते थे, वे संपादकीय पन्ना कसकर पकड़े रहते थे, दोपहर तक नहीं छोड़ते थे. खबरों पर जुगाली चलती रहती थी.
उन्हीं दिनों फोर्ब्स की सालाना सूची जारी हुई थी. जाहिर सी बात है कि, अर्थ जगत् के पन्ने पर, इस खबर को प्रमुखता से स्थान मिला. तब तक हमारा देश आर्थिक शक्ति के रूप में नहीं उभरा था. तब इक्का-दुक्का भारतीय ही, बमुश्किल इसमें स्थान बना पाते थे, वो भी बहुत नीचे. फिर भी ऐसी खबरें पाठकों के स्वाभिमान को एक उदात्त स्तर तक पहुँचा जाती थीं. वे एक नई सी ऊर्जा महसूस करने लगते थे. अकस्मात् राष्ट्रीयता लहलहा उठती.
उस दिन एक बुजुर्गवार सामने से चले आ रहे थे. गाँव के रिश्ते से वे सबके नाना लगते थे. उनके सामने पड़ते ही लोग, रास्ता बदल देने में भलाई समझते थे. उन्हें देखते ही एकाएक कटने लगते, बहाना बनाकर खिसक लेते थे. आदमी वे काफी समझदार थे, लेकिन सहज बिल्कुल भी नहीं रहते थे. सजग बहुत थे, लेकिन मिलनसार नहीं. वे पुराने दौर की हर घटना के प्रत्यक्षदर्शी होने का दावा किया करते थे. इस अधिकार से वे किसी को भी डाँट लेते थे. जब जी में आया, किसी की भी ‘रेड़ मार जाते.’ पुराना शगल होने के नाते, रेड़ मारने पर वे बहुत खुश होते थे. टोकाटोकी को तो वे प्राइवेट मर्ज जैसा पाले रहते थे. आम बोलचाल की शुरुआत ‘हराम कु बच्चा’ जुमले से करते थे. अगर वो ऐन सामने ही पड़ जाएँ, तो लोग ‘कोई खास काम याद आ गया’ कहकर भागने लगते थे.
उस दिन तो गजब ही हुआ. मुंडेर से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था और वे उसी रास्ते से चले आ रहे थे. जैसे ही वे सामने दिखे, फुरसतियों को साँप सूँघकर रह गया. उनकी आमद होते ही सभा में मौन छा गया, जो काफी देर तक छाया रहा. आखिर इस मौन को नाना ने ही तोड़ा. वे गरजकर बोले, “क्या छ रे यखम होणु. यन क्या छ बैठ्याँ, जनु नाच होलु होणुँ.”(क्यों रे, क्या हो रहा है यहाँ पर. ऐसे क्यों बैठे हो, जैसे कोई नाच-गान चल रहा हो.)
एक लड़के ने, जैसे-तैसे बात सँभाली. अपने बचाव में उसने अर्थ जगत् में छपी फोर्ब्स पत्रिका की खबर का सहारा लिया. सहमकर बोला, “दुन्या भरक सेट-सौकारौं कि खबर छ छपीं. वी छ्विं छा लगौणा.”(दुनिया भर के सेठ-साहूकारों की खबर छपी है. उसी की चर्चा चल रही थी.)
सेठ-साहूकारों का नाम सुनते ही, नाना की इस खबर में दिलचस्पी जागकर रह गई. गाँव के लिहाज से वे अच्छे-खासे धनी-संपन्न आदमी थे. वे उस हैसियत के आदमी थे, जो अपनी आर्थिक हैसियत की गरिमा और गर्मी साथ-साथ रखते थे. चहककर बोले, “कैकैकु नौं छै, मेरु छै कि नी. ध्यान सि देखि धौं.” (किस-किस का नाम है. मेरा है कि, नहीं. जरा सावधानी से देखना तो)
इन वचनों को सुनकर सबकी जान-में-जान आ गई. तभी लड़के को शरारत सूझी. उसने दिखावे के लिए अखबार पर सरसरी निगाह डाली और एक स्थान पर निगाह टिकाकर बोला, “बिस्सू नन्ना अर बाक्की दादा कु नौं त छैं छ.” (बिस्सू नाना और बाक्की दादा का नाम तो है.)
फिर अखबार के पन्ने को नीचे से ऊपर देखते हुए, मानों बहुत यत्नपूर्वक उनका नाम ढूँढ रहा हो, नकार में सिर हिलाते हुए बोला, “ना नन्ना, तुमारु नी च.”(सॉरी नाना तुम्हारा नहीं है.)
यह समाचार सुनकर, नाना अचानक दवाब मे आ गए. वे बेचेन होकर मुंडेर पर टहलने लगे. पीठ पीछे हाथ बाँधे चक्कर लगाते रहे. उन्हें इस बात पर भारी अफसोस हुआ कि, उनके साथ उठने-बैठने वाले इतनी आसानी से कैसे ‘इनलिस्ट’ हो गए और वे खुद कैसे रह गए. इस बात पर उन्हें भारी ताज्जुब हुआ. वे मनोमंथन में जुटे रहे. वे उन्हीं की टक्कर के आदमी थे, उनसे बढ़कर ही रहे होंगे. फिर उन्हें इस बात का गहरा धक्का लगा कि, आखिर वे रह कैसे गए. इस आत्मपीड़ा मे उनके मुख से स्वगत वचन टपक पड़े, “यनु चंबू कनकै ह्वै.” (यह अचंभे की बात है. ऐसा कैसे संभव है.)
इस स्थिति का लाभ उठाकर, एक लड़के ने मुँह दबाए एक जुमला उछाल दिया, “सियार सिंगी.”
नाना ने बिना किसी विरोध या असहमति के झट से इस बात को मान लिया. उन्हें इस बात पर पक्का यकीन होकर रह गया. जिसने भी कहा, सोलह आना ठीक कहा. उन्होंने सुना हुआ था कि, उनके पास ‘सियार सिंगी’ है. ‘हो-न-हो यह उसी का चमत्कार है. तभी तो मैं सोचूँ कि, आखिर ये अचंभा हुआ तो कैसे.’
लोक-मान्यता के अनुसार, ‘सियार सिंगी’ को सेठ- साहूकार अपनी तिजोरी में रखे रहते थे, जिससे लक्ष्मी जी उनकी बंधक होकर रह जाती थी. उनका रुपया दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही चला जाता था.
लोक विश्वास में, यह रामबाण की तरह असर करती थी. इसके प्राप्ति स्थान के बारे में बताए जाता था कि, यह विरले सियार के सिर पर ही पाई जाती थी. कोई बहुत ही चतुर शिकारी हो, वही इसे पहचान पाता धा. तंत्र में विश्वास रखने वालों के मुताबिक, सिंदूर के संपर्क में आते ही इसके रोम बढ़ने लगते थे और उसी अनुपात में समृद्धि भी. यह इतनी कारगर मानी जाती थी कि, दुश्मन फौरन हथियार डाल लेता था. जब चाहो, धन-वर्षा होने लगती थी. कुल मिलाकर, यह बहुत लाभकारी मानी जाती थी. जिसके पास रहती, उसे किसी बात की कमी नहीं होती थी. उसकी सारी-की-सारी इच्छाएँ अपने आप पूरी हो जाती. नाना की चिंता का वार रहा न पार. वे इस सोच में पड़कर रह गए कि, किसी-न-किसी तरह ‘सियार सिंगी’ मिले, तो बात बने.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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भागने का ट्रेंड और स्यालसिंगी दोनों अलग अंदाज़ की कथाएं।संस्मरण और कथा कहानी का नायाब संगम।
जटिल कतई नहीं लेकिन चुटीले और ठेठ वाक्य हमें मानों उसी माहौल का हिस्सा बना देते हैं।
नमन रयाल सर।
शिव प्रसाद सेमवाल। देहरादून।