गायत्री आर्य

छोटी-छोटी चीजों के स्वाद से बना जीने का ज़ायका

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – अट्ठाइसवीं क़िस्त

पिछली क़िस्त का लिंक: मेरे भीतर से जन्मा बच्चा

तुम आठवें महीने में लग गए हो मेरे बच्चे. लेकिन नहीं, ये कहना ज्यादा सही होगा कि मेरे गर्भ का आठवां महीना शुरू हुआ है, क्योंकि नौ महीनों बाद जब तुम जन्म लोगे तो फिर से ‘एक दिन‘ के कहलाओगे. क्या मजेदार है न! पेट में से नौ महीने पुराना बच्चा, बाहर आकर फिर से एक दिन का हो जाता है. तुम्हारा जन्म एक सरकारी मिलट्री अस्प्ताल में होगा. मेरी किस्मत अच्छी है कि मुझे तुम्हारे जन्म के लिए इतनी अच्छी सुविधा मिलेगी, वर्ना ज्यादातर औरतें तो अस्पताल की शक्ल देखे बिना ही प्रसव करने को मजबूर हैं मेरी जान!

अपने जन्म के बाद तुम जिस घर में आओगे, हम उस घर में शिफ्ट हो चुके हैं. तुम्हारे पिता को मिला ये सरकारी घर बहुत साल पुराना है. इसकी छत एसबेस्टस की बनी हैं. आजकल इन छतों का इस्तेमाल कोई नहीं करता. ये घर देखने में ऐसा लगता है जैसे जंगल में कोई पुराना कॉटेज हो और सच में इस घर के पीछे की तरफ जंगल है भी. इस जंगल में किशोर पेड़ ज्यादा हैं बजाए बड़े-बड़े पेड़ों के. उस जंगल की तरफ हमारे घर का एक दरवाजा भी खुलता है. इस पिछले दरवाजे से निकलते ही एक छोटा सा किचिन गार्डन है और उसके बाद जंगल. गार्डन में करी पत्ते का बड़ा सा पेड़ है, कुछ सदाबहार के पौधे हैं. एलोवेरा, तुलसी और मोगरे के पौधे पहले से थे. पानी की कमी से सब के सब बिल्कुल मुरझाए हुए थे. लेकिन शुक्र है कि हम लोग इस घर में बिल्कुल समय पर पहुंच गए और झुलसा देने वाली गर्मी में इस सबको दो वक्त पानी मिलने लगा. लाल पड़ चुका एलोवेरा फिर से हरा होने लगा है, आखरी सांस लेते मोगरे और तुलसी में भ जान आ गई है, ये देखकर मैं बहुत खुश हुई.

आते ही मैंने गार्डन में भिंडी, तोरी, धनिया, मिर्च, चना, सौंफ बो दी. कल मैंने राई भी बोई थी. यहां गिलहरियां बहुत हैं और बेहद बदमाश हैं. मैंने जो चने बोए थे, वे सारे गिलहरियों ने खोद-खोदकर खा लिए मेरी आंखों के आगे ही. गिलहरी इतनी सुंदर और अच्छी लगती है न बेटू, कि उन्हें चने खोदकर खाते देखकर भी मैं उन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पाई. मतलब कि मैंने नहीं रोका.

दो कमरे, एक छत वाला बरामदा और एक खुला आंगन. ये सब है तुम्हारे इस घर में. यह बहुत हवादार है, इसलिए हमें यहां काफी अच्छा लग रहा है. हालांकि दीमक ने यहां के खिड़की-दरवाजों की हालत बहुत खराब की हुई है. छिपकलियां तो यहां इतनी हैं लगता है, कि हमें छिपकलियों के घर में रहने को भेजा गया है. मेंढक, छिपकली, मकोड़े, चींटियां, गिलहरियां और हम, इस घर में साथ-साथ रहते हैं. हम पहली बार इतने जीव-जंतुओं वाले घर में रह रहे हैं! सबसे ज्यादा गंदा तो मुझे मेंढक लगता है, क्योंकि उसने खासतौर से रसोई को अपना पेट साफ करने लिए चुना है.मुझे बड़ी कोफ्त होती है. मेंढक और छिपकली से तो तुम्हारी मां को बेहद डर लगता था और घिन भी आती थी, लेकिन अब उन्हीं के साथ रह रही हूं.

बावजूद इस सबके इस घर में जो सुख और आनंद मिला वो जिंदगी में हमें कहीं नहीं मिल सकता. तुम्हें नहीं पता मेरे रंगरूट!  हमारे गार्डन में ‘मोर के बच्चे’ दाना चुगने आते हैं!…सोचो जरा, आपके घर के आंगन में मोर के बच्चे बेखौफ चुग्गा चुगे, ये देखना कितना ज्यादा सुखद है मेरी बच्ची! कभी-कभी यही मोर के बच्चे उड़कर घर की छत पर भी बैठ जाते हैं. तुम्हारे पिता एयरफोर्स में हैं, इस कारण ये सुख मिल रहा है, वरना तो आजकल चिड़ियाएं तक छत पर नहीं आती,…मोर तो लोग सिर्फ चिड़ियाघर में भी देख पाते हैं.

इसी जंगल में मैंने लहरा के चलती हुई एक गोह और खरगोश भी देखे हैं और नेवला तो कई बार अपने गार्डन से होकर गुजरता है. अभी चार-पांच रोज पहले यहां जो गर्मी थी. उफ्फ! जैसे किसी ने हमें उस गर्मी में जीने का शाप दिया हो. शाम के समय जब गार्डन में पानी दे रही थी तो प्यास से तड़पते गिरगिट को मैंने उस क्यारी में भरे पानी से अपनी प्यास बुझाते देखा. कितना-कितना अच्छा लगा था मुझे. ऐसे ही एक शाम को मैंने गिरगिट के बच्चे को, एक सूखे पत्ते पर गिरी पानी की बूंदों को चूसते हुए देखा था, ये देखकर मैंने उस पत्ते पर और पानी छिड़क दिया. मैंने देखा कि वो बच्चा गिरगिट लौटकर आया और पत्ते में भरे पानी पर लेट गया. पानी की एक-एक बूंद से कैसे जीवन जुड़ा है देख रही हो न मेरी जान!

उसी दिन शाम से मैंने पानी भरा एक मिट्टी का बर्तन गार्डन में रख दिया. जब भी गिलहरियों और चिड़ियाओं को उसमें पानी पीते देखती हूं तो अदभुत सुख मिलता है. निःस्वार्थ किसी के लिए कुछ करने में जो खुशी और आनंद है न मेरे बच्चे, वो दुनिया की कोई और चीज तुम्हें नहीं दे सकती. उस खुशी में एक नशा है जो न दिन में उतरता है न रात में. मैं चाहूंगी तुम्हें भी इस नशे की लत लग जाए मेरे रंग! हमारे बगल वाले घर के आंगन में एक बड़ा सा जामुन का पेड़ है, आधा पेड़ हमारे आंगन में आया हुआ है. इसी पेड़ पर गिलहरियों का एक बड़ा सा परिवार रहता है. दिन भर गिलहरियां पकी-अधपकी जामुन खाकर गुठलियां आंगन में गिराती रहती हैं. जैसे मुझे चिढ़ाने के लिए के लिए. मैंने एक-दो बार गिलहरी की झूठी जामुन खाई. वाह क्या स्वाद था आंगन के पेड़ की जामुन में. लेकिन फिर तुम्हारे पिता ने आगाह किया कि गिलहरी के झूठे में रेबीज के किटाणु भी हो सकते हैं, सो अब गिलहरी की अधखाई वे जामुने न तो खाते बनेंगी न ही छोड़ते. काश मैं उन गिलहरियों से कहकर कुछ साबुत जामुने अपने लिए भी तुड़वा पाती.

पिछले कई दिनों से मैं पेड़ पर लगी दो पकी जामुनों को दिन में कई बार इतनी हसरत से देख रही हूं कि तुम्हें क्या बताऊं मेरी बच्ची! तुम भी सोचोगी कि तुम्हारी मां कि नियत कैसी छोटी-छोटी चीजों पर गिरी रहती है. बड़ी चीजें जिंदगी में कम ही होती हैं, छोटी-छोटी चीजों से स्वाद आता रहे तो जीने का ज़ायका बना रहेगा. ये तरीका जीने के लिए ज्यादा अच्छा है न बेटू? तुम खुद भी तो जब तक बच्ची रहोगी, तो बेहद गैर जरूरी और मामूली चीजें तुम्हें अपार खुशी देंगी. बच्चे छोटे-बड़े का, मामूली-गैर मामूली और जरूरी-गैर जरूरी चीजों का भेद नहीं कर पाते, इसलिए तो बड़ों से ज्यादा खुश रहते हैं. मुझे जिंदगी में खुश रहने का बच्चों वाला तरीका ही पसंद है, इसलिये मैंने वही चुना है.

3पी.एम. / 02.07.2009

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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