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चलने के भ्रम के साथ चलते भाई साहब

मनुष्य जिंदा होगा तो चलेगा-फिरेगा. चलेगा तभी अपने तथा दूसरों के लिए कुछ अच्छा कर सकेगा. चलने के लिए अच्छा रास्ता चाहिए. अच्छा का मतलब यह नहीं कि रास्ता सुविधा पूर्ण हो. रास्ता मुश्किलों से भरा भी हो सकता है. रास्ते बहुत हैं. लुभावने और भयभीत करने वाले. ऐसे ही किसी पर जीवनभर के लिए नहीं चल सकते. पहले चलना क्यों जरूरी है. इस पर विचार करना होगा. फिर समझना होगा कि हर रास्ता कहाँ पहुंचाता है. उन रास्तों पर चलकर लोगों ने अपने देश-समाज के लिए क्या किया. कुछ दिन अलग-अलग रास्तों पर चलकर देखना होगा. उस रास्ते पर चलने में ही आनंद है, जिसमें सफर का सुख मिले या कहीं पहुंचा जा सके. ऐसे रास्ते पर चलने का क्या फायदा, जिसमें दूर तक जाने के बाद कुछ भी प्राप्त न हो और मायूस होकर लौटना पड़े.

भाई साहब को रास्तों पर चलने का खूब शौक है. कभी कहते हैं, मैं धर्म के रास्ते पर चल रहा हूँ. कभी वे सत्य के रास्ते पर चलने का दावा करते हैं. कभी वे ज्ञान के रास्ते पर होते हैं. भाई साहब रोज किसी रास्ते पर होते हैं. वे कहते हैं, चलना ही जीवन है. ठहरना मृत्यु. उनको चलते हुए देखकर लोग भी कहते हैं, देखिये भाई साहब निरन्तर चलते रहते हैं. अपनी यात्राओं के जरिये भाई साहब संदेश देते हैं कि उन्होंने सही रास्ते का चुनाव किया है. उनका रास्ता ही सही है. दूसरों को भी उसी पर चलना चाहिये.

भाई साहब लंबे समय से रास्तों पर चल रहे हैं. चलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. जितना चलने को कहा जाता है, ईमानदारी से चलते हैं. मगर संकट यह है कि कहीं पहुंच नहीं रहे हैं. उनकी यात्राओं से कोई फर्क नहीं पड़ रहा. दुनिया जैसी थी, वैसी ही है. बल्कि ऊपर की यात्रा करने के बजाय नीचे की ओर जा रही है. लगता है, जैसे भाई साहब एक ही स्थान पर परिक्रमा कर रहे हैं. हर बार चलते-चलते वे गलत जगह पहुंच जाते हैं. तय करते हैं कि अब इन रास्तों पर नहीं जायेंगे. अच्छे, मजबूत और भरोसेमंद रास्ते का चुनाव करेंगे. भाई साहब फिर चलने लगते. लोग उनके चलने की तारीफ करते. भाई साहब खुश हो जाते और उनकी परिक्रमा चलती रहती.

बात उन दिनों की है, जब भाई साहब अपने दोस्तों के साथ उत्सुकता से तरह-तरह के रास्तों की ओर देखा करते थे. उन पर चलने के सपने देखा करते थे. साथ-साथ कुछ रास्तों पर दूर तक गये. इन रास्तों में दायें और बायें वाले रास्तों में सबसे अधिक भीड़ थी. दायें रास्ते के दुकानदार अतीत पर गर्व करते थे. वे कहते, आज जो आविष्कार हो रहे हैं, हमारे वहां पहले ही हो चुके हैं. हम दुनिया में सबसे श्रेष्ठ हैं. वे दूसरे रास्ते वालों से घृणा करते तथा अपने कष्टों का दोषी उन्हें ठहराते.

दांया रास्ता आसान था. उसमें चलने के लिए बुद्धि लगाने की जरूरत नहीं थी. जोर-शोर से पुरानी चीजों को महान बताना था और नये बदलावों को गलियाना था. दायें रास्ते के दुकानदारों के पास आंख मूंदकर चलने वालों की खूब भीड़ थी. पैसा था. संगठन की ताकत थी. सुरक्षा का भरोसा था. राज सत्ता मिलने पर किसी ऊंची जगह पर बिठाये जाने की संभावना थी.

बायें रास्ते में समृद्धि नहीं थी, मगर कला-संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान की खूबसूरत दुनिया चारों ओर फैली हुई थी. यहाँ तनाव और गुस्सा नहीं था. अतीत की नहीं वर्तमान की बात पर जोर था. सबकी भलाई तथा सबको साथ लेकर चलने की इच्छा थी. मनुष्य की एकता पर भरोसा था. दुश्मन यहाँ भी था, मगर वह जो लोगों की मेहनत को लूटता था. जिद यहां भी थी. उसे खत्म करके एक ऐसी दुनिया बनाने की. जहां कोई भूखा न हो. जहां इंसान, इंसान को न लूटता हो. इतनी अच्छी बातों के बावजूद कुछ बेसब्र लोग यहां भी थे. छुआछूत और गिरोह यहां भी था. सवाल यहां भी लोगों को परेशान करता था. दूसरों को कमतर और खुद को श्रेष्ठ समझने की समस्याएं यहां भी थी.

एक और रास्ता था, जहां कोई भरोसा, आश्वासन या सुरक्षा नहीं थी. यहां अपने ही दम पर चलना था. यहां धर्म, जात, विचार, क्षेत्र तथा भविष्य के सपनों की कोई दुकान नहीं थी. यहां रास्ता खुद बनाना था. काम बहुत मुश्किल था. यहां हिम्मत देने के लिए सिर्फ अपने मूल्यों, विचारों तथा लक्ष्य पर यकीन करना था. यहाँ कंधों पर उठाने वाला कोई नहीं था. अपनी आजादी के साथ सही रास्ते पर चलने का भरोसा था.

समय के साथ भाई साहब खुद तथा उनके अन्य दोस्त विभिन्न रास्तों पर चल पड़े. कोई दायें, कोई बायें, कोई दोनों के बगल वाले में, कोई इनसे दूर तो कोई पास, कुछ अपने खुद के रास्ते बनाने लगे. मेल-जोल, सद्भाव तथा सब की भलाई वाले तीसरे रास्ते पर कम लोग गये, क्योंकि उसे खुद बनाना था. क्योंकि वहां देना ही देना था. पाना कुछ नहीं था. सभी रास्तों पर खूब भीड़ थी. मगर तीसरे रास्ते पर सन्नाटा था. कभी-कभी ही वहां कोई दिखाई देता था.

भाई साहब सब रास्तों वाले हैं, मगर उनका कोई रास्ता नहीं है. वे होशियार हो चुके हैं. उन्हें अपनी होशियारी पर गर्व है. वे खुद को प्रतिबद्ध दिखाते हैं, मगर उनकी किसी के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है. वे करते सब हैं, मगर ऊपर ही ऊपर. उनके कामों में गहराई तथा समर्पण नजर नहीं आता. उनमें संभावना पूरी थी. वे एक खूबसूरत तथा मजबूत रास्ता बना सकते थे, जो देश-समाज को बेहतर बनाता. मगर उन्होंने चलते हुए दिखने का रास्ता चुना. उन्होंने दुनिया का जैसा बन जाने को बड़ी बात समझा. उन्होंने खतरा उठाना उचित नहीं समझा. दुर्भाग्य से चारों ओर ऐसे ही लोगों की भीड़ है. सच तो यह है कि भाई साहब आज भी रास्तों पर तो खूब चलते हैं, मगर उनका कोई रास्ता नहीं है.

 

दिनेश कर्नाटक

भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.

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Sudhir Kumar

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