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वह डायरी, ट्राजिस्टर और स्टोव

कतिपय कारणों से हमारे प्रिय लेखक देवेन मेवाड़ी की सीरीज कहो देबी, कथा कहो इस सप्ताह प्रकाशित नहीं की जा सकी है. सीरीज का अगला हिस्सा अगले सप्ताह नियत दिन प्रकाशित किया जायेगा. इस सप्ताह देवेन मेवाड़ी का भेजा यह आलेख यादों के गलियारे से पढ़िये. सम्पादक

हर दिन एक कदम आगे बढ़ाती जिंदगी सातवें दशक के मध्य में आगे बढ़ रही है. इस यात्रा में न जाने कितना-कुछ पीछे छूटता चला गया- घर, गांव, संबंधी, संगी-साथी, गली-मोहल्ले, स्कूल-कालेज, जगहें, पेड़-पहाड़, नदियां, पगडंडियां और रास्ते….लेकिन, जिंदगी दिनों के साथ कदम-दर-कदम मिला कर अथक चलती रही है. पलट कर कभी पीछे देखता हूं तो समय के छह दशक लंबे रास्ते पर जिंदगी के पैरों के धुंधले निशान दिखाई देते हैं. उस रास्ते के गिर्द-गिर्द बीते हुए समय और छूट गई चीजों के अक्स के बजाय बस दिक्-काल का खालीपन नजर आता है. लौट कर आंखें वर्तमान को टटोलती हैं तो समय में मौजूद आज की दुनिया की तमाम चीजें दिखाई देती हैं. लेकिन, यह क्या? इन तमाम चीजों के बीच दशकों की दूरी पार करते हुए, ज़िंदगी के साथ-साथ कदम बढ़ा कर कैसे ये कुछ चीजें अतीत से यहां तक चली आई हैं? अनायास ही कब ये मेरी ज़िंदगी की हमसफर बन गईं, पता ही नहीं चला.

साठ वर्ष पहले मां नाक में एक बड़ी, गोल, नगों के सितारे वाली नथ पहना करती थी. लकड़ी के कंघे से मेरे बाल संवारते समय अक्सर कहा करती थी- जब तेरी छोटी-सी, प्यारी दुल्हन आएगी तो इसे मैं उसे पहनाऊंगी. सन् 1956 में छठी कक्षा में पढ़ता था जब मां मुझसे और दुनिया से विदा हो गई. वह नथ, जिसे मेरी नन्हीं अंगुलियों ने बचपन में मां का दूध पीते-पीते न जाने कितनी बार पकड़ लिया होगा, मां के जाने के बाद उनके गलोबंद, कानों के झुमकों, हाथों के पोंजों, गले की चांदी-मूंगे की लंबी मालाओं और अंगूठियों के साथ पिताजी के पास रह गई होगी. तेईस वर्ष बाद जब मेरी शादी हुई तो पिताजी ने न जाने कहां से निकाल कर मां की वह नथ मेरी दुल्हन को यह कह कर दे दी कि ‘लि ब्वारी, ये कैं तू पैंन’ (लो बहू इसे तुम पहनो). क्यों दी, पता नहीं. हो सकता है, मां उनसे भी कह गई हो. आज साठ वर्ष बाद भी मेरी आंखें नथ के उस वृत्त में मां का चेहरा देखती हैं.

और, दसवीं कक्षा में रूलदार कापी के पन्नों को सुई-धागे से सिल कर बनाई गई यह आत्मकथा की पुस्तिका, जिसे लिखने के लिए मुझे महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से प्रेरणा मिली थी. चंद पन्ने लिखने के बाद ही लग गया था कि अभी तो जीवन में ऐसा कुछ किया ही नहीं है जिसे लिखा जा सके. दवात की स्याही और निब से सन् 1959 में मैंने आत्मकथा की शुरूआत कुछ इस तरह की हैः ‘जीवन के प्रभात ‘शिशु’ का मनमोहक आनंद मैंने भी प्राप्त किया. जीवन एक दिवस के सदृश्य ही बीतता है. जिस प्रकार दिवस का अमृततुल्य काल प्रभात है, उसी प्रकार मनुष्य का शिशु काल भी जीवन का प्रभात है.’ आगे एक पृष्ठ पर लिखा है, ‘मुझे कुछ-कुछ याद है कि उस समय गांव में स्कूल एक झोपड़ी के रूप में था, परंतु पढ़ाई खास कर एक मैदान में हुआ करती थी… एक-दो ही वर्ष बाद हमारी पाठशाला का भवन तैयार हो गया एवं वहां मैं पाठशाला जाने लगा.’

पुस्तिका के ग्यारहवें पृष्ठ पर लिखा है, “साइंस के छोटे-छोटे प्रयोगों में मेरी काफी रूचि थी. कालेज से मैं टूटी-फूटी परखनलियां, विद्युत तार आदि बटोर लाता एवं उनके पीछे सुबह-सायं लगा रहता. सैलों द्वारा बल्व प्रकाशित करना, चीजों के विलयनों का आपस में मिश्रण तैयार करना, कैमरा, सिनेमा रील, दूरदर्शी यंत्र, सूची छिद्र कैमरा, घड़ी आदि बनाना मेरा मुख्य कार्य था. इसी प्रकार कभी सलाई (माचिस) के रिक्त डिब्बों से टेलीफोन का निर्माण करता.”

किताबों की अलमारी में खड़ी यह नीली डायरी दिसंबर 1965 से साथ चल रही है. तब यह मेरे शिक्षक ददा (बड़े भाई) ने मुझे दी थी, यह कह कर कि तुम्हें लिखने का शौक है, इसमें लिखना. उन्हीं के दिए संस्कारों में पला-बढ़ा मैं, एम.एस-सी. की पढ़ाई के दो वर्षों के दौरान और उसके बाद भी इसमें अपने मन की बातें लिखता रहा. पचास साल बाद इसके पृष्ठ पलट रहा हूं. उनमें कहीं रंग-बिरंगी तितलियों की तरह उड़ते और कहीं सूखे हुए फूलों की तरह दबे उन दिनों के मेरे सपने दिखाई दे रहे हैं. कहीं आशाएं अंकुरित हो रही हैं तो कहीं आकांक्षाओं की बेलें समय की दीवार पर चढ़ कर ऊपर उठने की कोशिश कर रही हैं. कहीं संशय का कोहरा घिर रहा है कि कल क्या होगा? पढ़ाई पूरी करने के बाद क्या करूंगा मैं? क्या बनूंगा मैं? पृष्ठों की इबारत बता रही है कि मैं वन सेवा के जरिए पेड़-पौधों और वन्य जीवों की दुनिया में जाना चाहता था. मैं वैज्ञानिक और साहित्यकार बनना चाहता था. इस डायरी के पृष्ठों में मैं ‘कहानी’, ‘माध्यम’, ‘नई कहानियां’ ‘अणिमा’, ‘उत्कर्ष’, ‘परिकथा’ जैसी पत्रिकाओं को कहानियां भेज रहा हूं. ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘नवनीत’, ‘कादंबिनी’ को अपने वैज्ञानिक लेख भेज रहा हूं. भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, कमलेश्वर, रामनारायण शुक्ल, राजकमल चौधरी को पत्र लिख रहा हूं. दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, गिरिराज किशोर, शशिबंधुभ, बटरोही, सुधा अरोड़ा की कहानियां पढ़ रहा हूं. शोलोखोव का ‘मनुष्य का भाग्य’, अल्बेयर कामू का ‘अजनबी’ और अज्ञेय का ‘अपने-अपने अजनबी’ पढ़ रहा हूं. डायरी के पृष्ठों में एक अच्छी लगती लड़की को दूर से बार-बार देख रहा हूं…आशा, निराशा, हताशा, उत्साह और उमंग भरे अद्भुत दिन थे वे. आंखें तब निरंतर अनजाने आगत की ओर झांकती रहती थीं.

इस डायरी की कांख में रूलदार कागज के एक पीले, 47 वर्ष पुराने टुकड़े पर अनंतपुर, आंध्र प्रदेश की उस लड़की का पता लिखा है जो मुझे तब हैदराबाद जाते समय रात में ग्वालियर स्टेशन पर ट्रेन में मिली थी. वह किसी प्राइमरी स्कूल में सहायक अध्यापिका थी और अपनी साथिन अध्यापिका के साथ वहां एन सी सी के किसी ट्रेनिंग कैंप में आई थी. उनका सामान किसी दूसरी गलत ट्रेन में छूट गया था, लेकिन पते वाली उस अनजान लड़की का बैंजो उसके साथ था. हैदराबाद में उतरने से पहले उसने मुझे देर तक बैंजो पर ‘सायोनारा….सायोनारा’ की धुन सुनाई थी जिसे मैं खिड़की के कांच से बाहर दूर कहीं देखता हुआ सुनता रहा था. 45 वर्ष बाद नवंबर 2013 में जब एक शाम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अतिथि गृह के लॉन में चहलकदमी करते हुए ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछे’ की लेखिका अनुराधा को इस घटना के बारे में बता रहा था तो अनंतपुर निवासी अनुराधा की आंखों में अचानक चमक जाग उठी थी. वे बोलीं, “अगर घर का पता है तो उस लड़की का पता लगाया जा सकता है.” मैंने कहा, “नहीं, पता लगा कर क्या करेंगे? अब पैंतालीस वर्ष बाद एक-दूसरे को देखना दोनों को ‘फ्यूचर शॉक’ दे सकता है.”

सिरेमिक का यह लंबा सुंदर जग हैदराबाद की सौगात है. मैंने यह आबिद रोड, हैदराबाद में एक सरदार जी की दूकान से खरीदा था. ‘दिल्ली ले जाने में टूटेगा तो नहीं’ कहने पर उन्होंने कहा था, ‘ना जी ना’ और अखबार की एक मोटी परत में लपेट कर उसकी पक्की पैकिंग कर दी थी. मैं वहां अंबेरपेट कृषि अनुसंधान केन्द्र में मक्का की फसल पर शोध कार्य के सिलसिले में जाता था और उस बार आबिद रोड में घूमते समय मुझे यह लंबा जग सजावट और बीयर पीने के लिए मौजूं लगा था.

जड़ों का वह जोड़ा

प्लास्टिक के फोल्डर में सहेज कर रखे गए रूलदार पैड के ये दो जर्जर और पीले पड़ रहे पन्ने एक अधूरी कहानी कह रहे हैं. इस कहानी का कथानक हुसैन सागर के किनारे टैंक बंध रोड की सीढ़ियों से नीचे बने एक बार में अचानक मस्तिष्क में कौंधा था. सन् 1968 में शुरू की गई इस कहानी को सोचा था, जल्दी पूरा कर लूंगा लेकिन यह आज 47 वर्ष बाद भी अधूरी ही पड़ी है. इस बीच कई कहानियां लिखीं, छपीं लेकिन नहीं जानता, यह क्यों आधी-अधूरी ही साथ-साथ चल रही है.

प्यारे वीरेन का दिया हुआ वह सिरेमिक का गिलास

और, यह सिरेमिक का गिलास जिसकी बाहरी चिकनी सतह पर खूबसूरत मछलियां बनी हैं, सन् 1968 में इलाहाबाद के गंगानाथ झा हॉस्टल में बड़े प्यार से मेरे मित्र वीरेन डंगवाल ने मुझे भेंट के रूप में दिया था. बटरोही और मैं उससे मिलने हॉस्टल गए थे. वीरेन वहां एम. ए. (हिंदी) का छात्र था. उससे पहले वह नैनीताल में हमारी दोस्त-मंडली में था और वहां डी एस बी कालेज में रचनात्मक रूचि के विद्यार्थियों के लिए बनाए गए हमारे मंच ‘द क्रैंक्स’ का आधार सदस्य था. उन दिनों उसके भीतर कविताएं उग रही थीं.

अगली बार जब शोधकार्य के लिए गोधरा, गुजरात के क्षेत्रीय कृषि अनुंसधान केन्द्र में गया तो लौटते समय सड़क किनारे पड़ा यह सफेद पत्थर मन को भा गया था. मैंने उसे प्यार से सहला कर साथ ले चलने की बात की तो मेरे स्थानीय साथी कानुभाई महीजीभाई पटेल ने हंस कर कहा था, ‘इस पत्थर का क्या करेंगे? भार ही बढ़ाएगा.’
मैंने कानुभाई को समझाया था…‘नहीं मित्र, यह सफेद तिकोना पत्थर मुझे पहाड़ के मेरे गांव में, मेरे घर की खिड़की से दूर उत्तर में, नीले पहाड़ों के पार दिखाई देते हिमालय की याद दिलाता रहेगा. महानगर दिल्ली में मेरे हिस्से हिमालय का इतना ही टुकड़ा सही’… प्रभाकुंज सोसायटी में उनके घर ‘प्रेरणा’ में पहुंचे तो उन्होंने अपनी पत्नी श्रीलेखा जी को यह पत्थर दिखा कर मुस्कुराते हुए कहा था, ‘दिल्ली ले जा रहे हैं इसे!’

एच एम टी की यह जनता घड़ी मैंने 48 वर्ष पहले सन् 1967 में, जून माह की एक तपती दोपहर को पटेल चौक पर एल आई सी भवन के पीछे लंबी कतार में खड़े होकर, अपनी पहली नौकरी की पहली तनखा से खरीदी थी. एच एम टी घड़ियां खरीदने के लिए तब भारी भीड़ जमा होती थी और कतार में एक व्यक्ति को एक ही घड़ी मिल पाती थी. मेरी कलाई पर जीवन में यही पहली घड़ी थी. सन् 1969 में फिर कतार में खड़े होकर ददा के लिए एच एम टी की तरूण घड़ी खरीदी थी. उसी वर्ष शादी हुई. तब दुल्हन के लिए भी इसी कंपनी की एक छोटी-सी सुजाता घड़ी खरीदी थी.

चमड़े के भूरे खोल में सजा यह फिलिप्स कमांडर ट्रांजिस्टर हमने शादी के बाद सन् 1969 में समाचार, गीत और बिनाका गीतमाला सुनने के लिए हल्द्वानी, नैनीताल में खरीदा था. तब मैं पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में नौकरी कर रहा था. उन दिनों घर इसमें बजते गीतों की धीमी आवाज से गूंजता रहता था. राष्ट्रीय समाचारों के अलावा मैं इस पर बीबीसी और वायस ऑफ अमेरिका के रेडियो कार्यक्रम भी सुना करता था. तब मन में रेडियो समाचार वाचक बनने का भी सपना देखा करता था और एकांत में समाचार पढ़ने का अभ्यास किया करता था. फिर यह हमारे साथ लखनऊ चला आया. वहां सन् 1984 में घर में टी वी आ जाने के बाद इसका उपयोग धीरे-धीरे कम होता गया. तब गाहे-ब-गाहे इस पर रेडियो कार्यक्रम और अपनी रेडियो वार्ताएं सुना करता था. साढ़े सात साल बाद लखनऊ से यह हमारे साथ दिल्ली आ गया. यहां भी इसे सुनते रहे लेकिन कुछ वर्षों के बाद इसकी तबीयत खराब रहने लगी और आवाज धीमी पड़ गई. रोग समझ में नहीं आया. बल्कि, बाहर से तो देखने पर यह बिल्कुल तंदुरुस्त नज़र आता था. हमने काफी दौड़-धूप के बाद सफदरजंग एंक्लेव के निकट अर्जुन नगर की एक गली में किसी तरह ट्रांजिस्टर का एक डॉक्टर खोज निकाला और इलाज के लिए यह उसे सौंप दिया. कई दिन तक फोन पर उससे पूछते रहे कि क्या हुआ? वह हर बार यही कहता कि ठीक कर रहा हूं. परेशान होकर एक दिन सीधे उसकी छोटी-सी दूकान में पहुंचे तो देखा उसने मरीज का पुर्जा-पुर्जा अलग कर रखा है और खुद हैरान होकर देख रहा है. मैंने पूछा तो बोला, बस जोड़ने ही वाला था, ठीक हो जाएगा. हम खड़े रहे और कहा जोड़ो और वापस करो. पता नहीं उसने कितने पुर्जे जोड़े, कितने छोड़े. फिर ऑन किया, बटन घुमाए तो मरीज की एक दर्द भरी कराह निकली. मैंने उससे इसे झपटा. मरीज को गोद में पकड़ा, उस नीम-हकीम को पैसे दिए और लौट आए. किसी एकाध स्टेशन पर छियालीस वर्ष बाद यह आज भी बोलता, गाता है, कराहते हुए ही सही.

नौकरी लगने के कुछ समय बाद से ही बत्ती वाले केरोसीन के स्टोव पर खाना बनाता था, लेकिन शादी के बाद पहाड़ से दिल्ली आते ही मई 1969 में पीतल का यह कैरोसीन स्टोव खरीदा जो भरभरा कर जल उठता था. कैरोसीन की नली के छेद में कचरा फंस जाने पर हम प्रिकर की सुई से इसे खोल लेते थे. हमारे साथ यह पंतनगर गया, फिर लखनऊ और वहां से फिर दिल्ली. इस बीच कैरोसीन के एक नूतन स्टोव ने इसका साथ निभाया. गैस तो लखनऊ में सन् 1986 में दूरदर्शन के रिपोर्टर दोस्त ए.के. वाट ने कुछ इस तरह प्यार से डांटते-गरियाते हुए दिलाई थी, “तू कभी नहीं सुधरेगा. शर्म कर. कैरोसीन के स्टोव पर भाभी जी से खाना बनवा कर इतने दोस्तों को दावत दे रहा है. अर्जी लिख कर दे मुझे.” उस मित्र ने न जाने क्या किया कि एक दिन इंडेन गैस के ऑफिस ने हमें बड़े सम्मान के साथ फोन करके बुलाया और गैस मुहैया करा दी.

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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