भयो बिरज झकझोर कुमूँ में, लोक जीवन के अनुभवी चितेरे व लोकथात के वरिष्ठ जानकार डॉ. प्रयाग जोशी विरचित कुमूँ की 205 होलियों का अद्बभुत संग्रह है. कुमाऊं में आज भी ‘बैठि ‘, ‘ठाडि ‘, ‘बंजारा ‘के साथ महिला होली की धूम है. Collection of Selected Kumaoni Holi’s By Prayag Joshi
उनकी होली गीतों की खोज 1930 के आस पास अल्मोड़ा में मिली एक फटी पुरानी किताब से शुरू हुई. फिर उनके गाँव चिटगल, डीडीहाट में रह रही बिरादरी जो होली की बैठक और होली के फेरे लगाने की परंपरा को निभाए जा रही थी. चीर भी बंधती थी विधिवत एकादशी के दिन, दिया बत्ती, भोग, नैवेद्य सब चढ़ता था . होली बैठकों की पुरानी ठोरों में ही रात की धू नियां जलती थीं. सारी बिरादरी दो गावों में बंटी हुई थी. दोनों गावों में चीर -डंडेश्वरी, ऐपण -खोडियों से सजे ठियाओं में विराजमान दिखती तो बचपन की पचीसों आमाओं -बड़बाज्यूओं, काकी -जेडिजाओं और काका -जेठ बाज्यूओं, ददा -भुलियों के चेहरे यादों में उतरते चले जाते. धूनी की गोल परिधि में,ढोलियों, लोहारों और हलियों की बिरादरियों को अपनी निश्चित जगह पर ही बैठते देखना विरासत के जीवित रहने का लक्षण था .
वहीं कुछ बदल रहा था. आर्थिक -सामाजिक स्तर कुछ उलट पलट रहे थे. परम्पराएं निबाही जा रहीं थीं पर कुछ पुराना कुछ पहचाना हर बार कुछ घटते जा रहा था. लोकथात और परम्पराएं अपने सधे रूप में भाव जगाती हैं पर बदलते दौर में गाँव की सघन -गहन सामूहिकता भी कुछ नई संगति -विसंगति के फेर में थी. जिसके साथ कुछ सांस्कृतिक बदलाव भी हो रहे थे. अनेक सदियों से होली विकसित हो रही थी.. इसके अंग संचालन, हाव -भाव और थिरकन को बचाये रखना जरुरी था, जरुरी है. यह बात लगातार उमड़ -घुमड़ रही थी.
1970 से अपने गाँव के छोटे गोपाल जी के कहे वचन कि “मैं उनके जीवित रहते होली गीतों का संग्रह कर लूं “, की इच्छा पूर्ति, 1999 मैं स्वर्गीय चंद्र बल्लभ जी के सुपुत्र त्रिभुवन से मिली उनकी डायरी से हुई. जिसमें आठबीसी, बारबीसी, माली -कसाण, परगढ़, बामनी गाड़ सहित सारे सीरा थल, बणाऊँ, पुंगराऊ और गंगोली की सौ से अधिक होलियां थीं. कालिकुमूँ की होलियां लोहाघाट के भुमलाई गाँव के तारादत्त पुनेठा के 1973 में किये संग्रह से और बाकी लोहाघाट के सुई गाँव के मथुरा दत्त चौबे से मिलीं. तो रानीखेत इलाके की होलियां पीपलटाना गाँव के पंडित ख्यालीराम पांडे की नोट बुक से मिलीं. मंशा यही थी कि पुरानी होलियों कि प्रमाणिकता तो रहे ही, नौसिखिये को गाने का अभ्यास हो और माहिर होल्यारों को पहाड़ कि होली की पूरी जानकारी भी मिले. Collection of Selected Kumaoni Holi’s By Prayag Joshi
बैठी होलियों को रातों में धूनी के चारों तरफ बैठ और दिनों में दन, दरियों, पटाल -पराल के ऊपर बैठ कर गाया जाता है. ठाड़ी होली खड़े हो कर गोल घेरा बणा झुण्ड में पटांगण के ऊपर चलते – फिरते गाते हैं. बंजारा में अंग -संचालन के साथ हाव -भाव प्रदर्शन के साथ थिरकते हुऐ होली गायी जाती है. इनका चलन कम हो रहा है. गड़बड़ी ये है कि इसके साथ ही नाच की और अभिनय की मनोहारी छवियां लुप्त हो जाएंगी. इससे पहले कि इसके नाम निशान मिटें पुरानी पीढ़ी को चाहिए कि गाँव में बंजारा होली का पूर्वाभ्यास करने कि परंपरा शुरू करें. दिखा दें नई पीढ़ी को कि होली के सामूहिक उत्सव ने तत्कालीन संस्कृति से क्या कुछ ग्रहण किया है. निरंतर सृजन कि प्रक्रिया में रही होली जिसमें समय समय पर अनेक प्रयोग किये गये. लोककवि गुमानी, गौर्दा, चारु चंद्र पांडे और गिर्दा तक और उसके बाद भी अनेक मंचों से होली की परंपरा का असतत ही सही पर निर्वाह होता रहा है.
होलीगीतों की भावसामग्री मिथकों -पुराणों से निकल श्रृंगार -सौंदर्य तक, यौन संबंधों की अभिव्यक्ति से वैराग्य भावनाओं तक विस्तृत रही. उस पर बसंतोत्सव से फूलदेई से फागुन तक चला नये रंगों, हरे -बासंती पड़ रहे खेतों, हाड़ कपांने वाली ठंड से गुलाबी जाड़ों की अवसान तक, पूस महिने की पहले इतवार से बुड होली तक पतझड़ से नव पल्लव -पुष्पों का सानिध्य लेती होली. कभी महिला होली में ढोलक -मजीरे के सुर ताल के साथ स्वांग और ठेठर दिखाती. पुरुष पहनावों और भाव -भंगिमाओं की नक़ल करती तो दूसरी ओर ढोल -नगारे, मंजीरे वाली खड़ी या ठाड़ी होली के साथ समवेत अंग संचालन, हावभाव और थिरकन. बैठी होली के शास्त्र संगत स्वर , राग -रागिनियाँ जिनकी संगति में बजता है हारमोनियम, ढोलक – तबले की गमक, एकताल -तीनताल. सितार अवचेतन की भावनाओं को और रूमानी बना जाता है तो लोटे पे सिक्के की टुनटुन और मजीरे की रुनझुन राग -विहाग में लटपटाने लगती है. Collection of Selected Kumaoni Holi’s By Prayag Joshi
होली उत्सव है, उल्लास है जो होंठों से, हाव -भावों से प्रकट हो कानों -आँखों से हमारे भीतर प्रकट होता है. इस विविधता भरी थात को बनाये रखना है. बचाये रखना है.
पहाड़ पोथी (2005)द्वारा प्रकाशित, डॉक्टर प्रयाग जोशी की कई वर्षों की साधना से संकलित -सम्पादित, “भयो बिरज झकझोर कुमूँ ” में पहाड़ की ओर से यह भेंट देते शेखर पाठक कहते हैं की ये होलियां इस किताब से निकल कर आपके मन – मानस में सवार हो जाएं और आपके कंठ से उच्चारित हों -बार -बार, लगातार. गीतों और रंगों के बरसने का यह सिलसिला हमारे बीच लगातार जारी रहे.
जी रों लाख सौ बरीस,
तुमरो पूत परिवार,
कुटुंब-कबीला जी रों लाख सौ बरीस,
हो हो होलक रे.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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