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गांव का वह बचपन बहुत याद आता है

दादी कहती थी कि वक़्त बदल रहा, रिश्तों की आत्मीयता का अर्थ अब सिर्फ अर्थ  बाकी सब बेमानी. आज के परिप्रेक्ष्य में उनका हर शब्द सत्य. बात बहुत पुरानी है, क्योंकि दादी का निर्वाण ही 20 दिसंबर 1988 को हुआ. तब मेरे बाल्यमन में उतनी समझ नहीं थी. समय के साथ बहुत कुछ घटित हुआ और दादी के शब्द कानों में गूंजने लगे. (Childhood Memories Uttarakhand)

एकांत में गढ़वाल रत्न नरेन्द्र सिंह नेगी के बोल “दादू मेरी उल्यारा जिकुडी, दादू मी पर्वतों को वासी” सुने तो बरबस ही मन मस्तिष्क अतीत के पन्नों को खंगालने लगा. पहुंच गया.

1985 फरवरी माह बसंत पंचमी के बाद के दिनों में. उफ्राइंखाल की ढैया. पूर्व की तरफ मुंह करने पर हिमाच्छादित नंदा देवी की चोटी. उत्तर में रामगंगा का उद्गम स्थल  बिंदेश्वर महादेव. दूधातोली के घनघोर देवदार के पेड़ों के जंगल के मध्य ब्रहमा ढूंगी. दक्षिण में छबीलो कुमाऊं की पहाड़ियां और पश्चिम की तरफ मेरी जन्मभूमि, मेरा गांव बुड़कोट भगवती तालिया. बड़ा ही मनोहारी दृश्य.

शाम का वक्त, बुरांश के फूल खिलने लग गए बसंत मौलयार की ऋतु. पूर्व से चल रही ठंडी-ठंडी बयार. देवभूमि उत्तराखंड की धरती खेतो में सरसों के पीले-पीले फूलों और पहाड़ियों में बुरांश के लाल-लाल फूलों से सजी थी. ग्राम्य जीवन खेतो में मोल ढुलाई (पशुओं के गोबर की खाद) में तल्लीन. हम कक्षा नौ के सभी सहपाठी मित्र — कैलाश ढौंडियाल, जगदीश घुरनियाल, रमेश जोशी और मैं. सभी अपने अग्रिम कक्षा और अग्रजों नरेंद्र और आनंद प्रकाश ढौंडियाल के साथ मिलकर अपने गुरु श्री अरूण प्रकाश ढौंडियाल का इंतज़ार कर रहे. शनिवार का दिन था, गुरुजी को अपने गांव जाना होता था उस दिन और फिर सोमवार को हमारे ही गांव होते हुए आना होता था स्कूल. हमारे हिन्दी के अध्यापक और इंटरमीडिएट कॉलेज के उप प्रधानाचार्य.

मैंने पहली बार सिर के बालो में तेल नहीं लगाया. एकदम चटख भूरे बाल हवा से अंठखेलियां कर रहे थे. गुरुजी आए. सबसे पहले तो मुझसे पूछा कि महेश बालो में तेल क्यों नहीं लगाया. मेरा शरीर थर-थर कांपने लगा और उत्तर नहीं दे पाया. उस वक़्त सभी गुरुजनों का बहुत आदर होता था. गुरु-शिष्य परम्परा का वह प्यारा  रिश्ता आज भी मन में ताजा है. जीवन में आए उन शिक्षकों (गुरुओं) को कोटिशः नमन जिनके आशीर्वाद से आज भी जीवन निर्बाध गति से गंतव्य की ओर बढ़ रहा है. सभी के नाम याद हैं. गुरुओं का मेरे जीवन में गहरा प्रभाव है. बालों पर शौक के कारण तेल नहीं लगाया था. मां और दादी की नजरों से बचकर स्कूल तो आ गया पर गुरुजी ने डांट दिया. भयवश जबाव देते न बना.

वह दिन और आज का दिन है जो बालों की जड़ों को तेल की सिंचाई न मिली. कदाचित उस लहराती खेती के बंजर होने का कारण यह भी हो सकता है. खैर. प्रकृति के उस नैसर्गिक और अप्रितम छठा को निहारते गुरुजी के साथ प्रस्थान कर लिए. राह में अपने विषयों पर चर्चा होती रही और कब हम घर के पास पहुंच गए पता ही नहीं चला. गुरुजी के शब्द कि वह वक़्त तो कभी नहीं आता परन्तु जीवन में कभी-कभार वे पल आ जाते हैं याद हैं. प्रेम, आत्मीयता का वह वक़्त शायद ही आए.

आज तरक्की के मायने धन संचय और वह वस्तु है जो जीवन को आलसी बना रही है. रिश्तों में अब वह मधुरता रही नहीं. संस्कार, मानवीय संवेदनाओं, आध्यात्मिक मूल्यों, नैतिकता का नितांत अभाव. दुखी होता है मन, भटकता है उन पलों को जीने के लिए. अतीत के पन्ने उलटने लगता हूं कि कहीं कोई रोशनी पड़े पर आज के परिदृश्य में सब निरर्थक. “दादू मेरी उल्यरा जीकुडी दादू मी पर्वतों को बासी” सुनकर हृदय द्रवित हो जाता है. अनेक अनुतरित प्रश्न रह जाते हैं जो सदा अनुतरित ही रहेंगे. मन में अशांति रहती है कि क्यू हम सबकुछ भूल रहे.

आज भी खो जाता हूं अतीत में. चला जाता हूं उन वीरान पड़ी सरपीली पगडंडियों में जिनमें हमारे पूर्वज और हम चले थे, उन नदी नालों में. उन हरे भरे धान, गेहूं, मडुआ के खेतों में. याद आने लगा बैलों के गले में बंधी घंटियों का स्वर. जंगलों में गाय, भेड़, बकरियों को चराने का दृश्य. पहाड़ों में सुबह और शाम के वक़्त छायी  सूरज की लालिमा. पहाड़ी खेतो में खेलने का वक़्त. फटे, पुराने कपड़े. घर और स्कूल की एक ही पोशाक. सब कुछ छूट गया.

पहाड़ छोड़ने के बिछोह के वे पल, ऐसे घूम रहे हैं जैसे कल की बात हो. बाबूजी का प्यार, दादी की ममता, मां का डर. अपनों का बिछोह पल-पल मार देता है, अंदर ही अंदर दीमक की तरह काटता है. किसी से कहा भी नहीं जाता और सहा भी नहीं जाता. मानवीय संवेदनाएं नहीं हैं तो जीवन निरर्थक है. तरक्की के मायने बेमानी लगते हैं.

जिंदगी में कुछ लम्हे खुशी के और कुछ तकलीफ़ देह हैं. वक़्त के साथ कुछ धूमिल और कुछ को भूलना मुमकिन है. याद हैं विपरीत परिस्थितियों के वे लम्हे जिनसे जिंदगी में बहुत कुछ सीखने को मिला.
महेश जोशी “व्यथित‘”

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Sudhir Kumar

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