चन्द्रकुंवर बर्त्वाल का जन्म 20 अगस्त 1919 को जिला चमोली गढ़वाल पट्टी तल्लानागपुर के मालकोटी गाँव में हुआ था. मालकोटी गाँव बर्त्वाल वंश के लोगों ने ही बसाया था. चन्द्रकुंवर के पिता ठाकुर भूपाल सिंह एक कुलीन और संभ्रांत परिवार के व्यक्ति थे. माता का नाम जानकी देवी था. ठाकुर भूपाल सिंह बर्त्वाल पट्टी तल्लानागपुर के गण्यमान्य व्यक्तियों में से थे. कुछ वर्ष वे मिडिल स्कूल नागनाथ में प्रधानाध्यापक भी रहे. प्राकृतिक सुन्दरता से पूर्ण रमणीक दृश्यों ने मालकोटी गाँव को खूब सजाया और संवारा. यों तो नैणी देवी और कार्तिक स्वामी के गिरिशिखरों की नंदन छाया में बसा समूचा तल्लानागपुर प्राकृतिक सुषमा के लिये प्रसिद्ध है, लेकिन मालकोटी गाँव घाटी में बसने के कारण प्रकृति की गोद में विहँसता और उल्लसित-सा प्रतीत होता है.
(Chandrakunwar Bartwal Biography)
मालकोटी के चारों ओर प्रकृति के अनूठे बिखरे चित्र जनमानस का मन मोह लेते हैं. वसंत ऋतु के आने पर और पावस के मेघ बरसने पर तो यह सारी घाटी अद्भुत सौंदर्य से निखर उठती है. एक ओर गाँव की उत्तर दिशा में दूर-दूर तक फैले चीड़-वनों की सघनता में डूबे सुनसान वातावरण में कफ्फू और काफलपाक्कू पक्षियों का फैलता-गूंजता प्रियस्वर भीषण सौंदर्य की सृष्टि करता है तो दूसरी ओर आस-पास के गाँवों में खेतीहर जनमानस का श्रम, समर्पण, साधना, त्याग, आशा, निराशा, करुणा और पीड़ा इस पर्वतीय प्रांतर की नियति को प्रस्तुत करता है. चन्द्रकुंवर बर्त्वाल का बचपन प्रकृति के इन्हीं रंगबिरंगे दृश्यों के उन्मद वातावरण में बीता. इसी उन्मद वातावरण में चन्द्रकुँवर की काव्यप्रतिभा प्रस्फुटित हुई और उसे दिशा और गति मिली.
बर्त्वाल का असली नाम कुंवरसिंह बर्त्वाल था. लैन्सडाउन, गढ़वाल से प्रकाशित ‘कर्मभूमि’ के 31 मार्च 1941 के अंक में ‘घराट’ और ‘स्मरण’ कविताओं के साथ सर्वप्रथम चन्द्रकुंवर बर्त्वाल कवि नाम छपा. यद्यपि ‘कर्मभूमि’ में प्रकाशित उक्त अंक के पश्चात् भी कुछ कविताओं के साथ कुँवर सिंह बर्त्वाल नाम छपता रहा. संभवतः प्रकाशन के लिये ये कविताएँ चन्द्रकुँवर ने ‘घराट’ और ‘स्मरण’ कविताएँ प्रेषित करने से पूर्व ही भेज दी हों. पौड़ी से प्रकाशित ‘क्षत्रीयवीर’ के (1994-95) अंकों में कवि का पूर्व नाम ही छपता रहा.
कवि के पिता भूपाल सिंह बर्त्वाल उडामांडा के निकट स्थित मिडिल स्कूल नागनाथ में प्रधानाध्यापक थे. चन्द्रकुँवर बर्त्वाल की प्रारम्भिक शिक्षा बेसिक स्कूल उडामांडा में ही हुई. मिडिल की परीक्षा उन्होंने नागनाथ से उत्तीर्ण की. हाईस्कूल की शिक्षा प्राप्त करने के लिये वे म्युसमौर हाईस्कूल, पौड़ी में प्रविष्ट हुए. इंटरमीडिएट की परीक्षा उन्होंने डी.ए.वी. कालेज, देहरादून से उत्तीर्ण की. 1939 में चन्द्रकुँवर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की. प्राचीन भारतीय इतिहास में चन्द्रकुंवर की गहरी रूचि थी. अपनी रुचि को गहन अध्ययन में परिवर्तित करने के लिये उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास) में प्रवेश लिया. लेकिन लखनऊ प्रवास से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था. स्वास्थ्य सुधारने की दृष्टि से चन्द्रकुँवर बर्त्वाल घर लौट आये और घर के निकट ही अगस्त्यमुनि हाईस्कूल में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने लगे.
(Chandrakunwar Bartwal Biography)
चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की कविता से ज्ञात होता है कि क्षेत्रीय राजनीति के कुचक्र ने उन्हें अनुकूल वातावरण से वंचित रखा. अगस्त्यमुनि हाईस्कूल की प्रबंध समिति के सचिव के दुर्व्यवहार के कारण चन्द्रकुँवर अत्यंत दुःखी रहे. उन्होंने उस सेक्रेटरी के दुर्व्यवहार की कविता लिख कर भर्त्सना की. अस्वस्थता के कारण चन्द्रकुँवर पहले ही दुःख झेल रहे थे, फिर अपनों के दुर्व्यवहार की कचोट तो और भी पीड़ा पहुंचाने वाली होती है. 1941 में चन्द्रकुंवर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था और ये केदारनाथ मार्ग पर भीरी के निकट मंदाकिनी और कांचनगंगा के तट पर बसे अपने नये गाँव पंवालिया चले गये थे. बस, पॅवालिया में उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया. लेकिन रुग्णावस्था में भी ऋषि ने अपनी लेखनी नहीं छोड़ी और यथाशक्ति कविताएं लिखते रहे थे अपनी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में बहुत कम भेजते थे अपने कुछ मित्रों को भेज दिया करते थे. कथाकार यशपाल को भेजे 27 जनवरी, 1947 के अपने पत्र में चन्द्रकुँवर ने लिखा –
प्रिय यशपाल जी,
अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ हूं और बीस-पच्चीस दिन अधिक से अधिक बचा रहूंगा सुबह को एक-दो घंटे बिस्तर से में उठ सकता हूँ और इधर-उधर अस्त-व्यस्त पड़ी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ. बीस-पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊँगा, आपके पास भेज दूंगा.
रुग्णावस्था में भी चन्द्रकुँवर कविताएँ लिखते रहे. उन्हें साफ-सुथरे रूप में दूसरी कापी पर उतारते रहे. उनके पास दान देने के लिये इतना प्रचुर काव्यधन था कि अपनी कविता में भी उन्होंने इस संबंध में कहा है –
मेरे पास आज इतना धन है देने को
नये फूल हैं पाँवों के नीचे बिछने को
पंवालिया, बर्त्वाल का नया गाँव जिसे उनके पिता ने खरीद लिया था, प्राकृतिक सुषमा से कम न था. बल्कि मालकोटी से कुछ ज़्यादा ही रमणीक. यहाँ मखमली घास अनेक रंगों के फूल, लाल बुरांस से लदे वृक्षों के जंगल, केदारनाथ की हिममंडित पहाड़ियों की कतारें, कफ्फू, काफलपाकू, हिलांस, घुगती और भ्रमरों के संगीत की अनुगूंजे और किन्नरियों की छमछम, चरवाहों के अलगोजों की लम्बी सुरीली धुनें, कांचनगंगा अर्थात् डमार नदी की उछलती जलधाराएँ और पास में रहती मंदाकिनी की किलकारियाँ आदि क्या नहीं था ! मेरा विश्वास है कि चन्द्रकुँवर प्रकृति की इसी रमणीयता में डूबते हुए कविताएँ रचते रहे और बीमारी से पूरे सात वर्षों तक जूझते रहे. 14 सितम्बर, 1947 को रविवार की रात्रि में हिमालय का यह गायक और विराट कवि मात्र अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में सदा-सदा के लिये अपना पार्थिव शरीर छोड़ गया. लेकिन बर्त्वाल की कविताएँ, उनके गीत और उनका गद्य साहित्य उन्हें सदा-सदा के लिये भारतीय साहित्य में अमर कर गया.
(Chandrakunwar Bartwal Biography)
उमाशंकर सतीश
यह लेख साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित भारतीय साहित्य निर्माता चन्द्रकुंवर बर्त्वाल पुस्तक से साभार लिया गया है. यह पुस्तक उमाशंकर सतीश द्वारा लिखी गयी है.
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