मंच से वह कभी पहाड़ी बोलने का आग्रह नहीं करते थे बल्कि आदेश के साथ कहते अपुण पहाड़ी में बुल्लान औन चें. जब कोई युवा अपनी बोली में उनसे बात करता तो उनके चेहरे की चमक देखने लायक होती फिर चाहे गढ़वाली हो या कुमाऊंनी वो पूरी रौ में आकर बात करते. आज उनकी पुण्यतिथि है. चन्द्र सिंह राही की पुण्यतिथि, पहाड़ के एक अभिभावक की पुण्यतिथि.
(Chandra Singh Rahi)
एक अभिभावक जिसने बड़े-बड़े मंचों से कुमाऊंनी और गढ़वाली दोनों में एक साथ बातचीत रखते थे. एक मंच से वह गीत गाकर कहते हैं: न गढ़वाली न कुमाउनी हम उत्तराखंडी छो…
चन्द्र सिंह राही के जीवन का दूसरा नाम लोक कला है. लोक कला के चलते फिरते संस्थान का नाम है चन्द्र सिंह राही. उनसे कभी भी कहीं भी उत्तराखंड के किसी भो लोकवाद्य पर बात की जा सकती थी उनसे बात जा सकती थी किसी भी लोक विधा पर. उन्होंने न केवल अपना पूरा जीवन उत्तराखंड की लोक संस्कृति को समर्पित कर दिया बल्कि उन्होंने इस लोक कला को जीवन भर जीया.
(Chandra Singh Rahi)
28 मार्च सन् 1942 को जनपद पौड़ी गढ़वाल के गिंवाली गांव, पट्टी मौंदाड़स्यूं, उत्तराखण्ड में जन्मे चन्द्र सिंह राही के पिता का नाम दिलबर सिंह नेगी और मां का नाम सुंदरा देवी था. उनकी आठवीं तक की स्कूली शिक्षा गांव में ही हुई थी. 15 साल की उम्र में जब वह दिल्ली आये तो कई दिनो तक रोजगार की तलाश में भटकते रहे. कहीं रोजगार न मिलने के कारण उन्होंने दिल्ली कनॉट प्लेस के क्षेत्र में बांसुरी बजा-बजाकर गुब्बारे एवं बांसुरियां भी बेची. चन्द्र सिंह राही के जीवन संघर्ष पर यहां पढ़ें :
पुण्य तिथि विशेष: चन्द्र सिंह राही की आवाज में पहाड़ तैरते हैं
चन्द्र सिंह राही के गीतों में प्रयुक्त विम्ब का कमाल यह है कि उत्तराखंड में आज भी उनके गाये गीत सबसे अधिक सुने जाने वाले गीतों में हैं फिर चाहे सरग तारा जुनाली राता या हिल मा चांदी को बटना…
(Chandra Singh Rahi)
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