कला साहित्य

‘चाकरी चतुरंग’ की समीक्षा

बहुत सारे मुखौटे हैँ एक दूसरे से अलग -थलग. सबकी सोच भी जुदा-जुदा सी. इनके पीछे छिपे चेहरे व्यवस्था की बागडोर संभालते हैं. चाकर हैं तो सबकी जिम्मेदारी कहीं न कहीं कुछ मान्यताओं और संकल्पनाओं की बुनियाद पर खड़ी की गई है, जिसका उद्देश्य है सेवा. आकंठ विविध दुश्चक्र में घिरी निरीह जनता की सेवा. येन-केन-प्रकारेण उन्हें वही सब करना है जिससे वह ढेर सी गतियाँ यथासंभव चलतीं रहें जो राज-काज के लिए परम आवश्यक तय कर दीं गयीं हैं. स्तरीकृत सैंपलिंग करते हुए सेवा प्रदान करने वाले अधिकारियों और उनके सेवादारों की छटनी करते हुए जो चित्र बनाते हैं वह कहीं न कहीं अपने आसपास में पाए जाने मंडराये दिखने और उनसे कभी न कभी भेंट होने मिल लिए होने का अहसास दिलाते है. शासन में राज-काज संचालित करने का जो पिरामिड है उसकी हर पायदान अपने ऊपर वाले से आदेश ग्रहण करती है ऐसा विधान है. ऊपर से आये आदेश ब्रह्म वाक्य हैं उनके परिचालन से ऊर्जा ग्रहण कर अधिकारी-कर्मचारी काम में दत्तचित रहने को वचनबद्ध होते है जो उनकी नियति है. इस प्रक्रिया में अनगिनत व नाना प्रकार की क्रीड़ाएं होनी ही हैं.
(Chakri Chaturang Book Review)

राजकीय सेवा के इस भवसागर में डुबकी लगाइये तो राजसेवक की अनगिनत लीलाएं अलग अलग मुद्रा, भाव व रंग में प्रकट हो कहीं गुदगुदाएंगी. कभी आपके स्मित को खिलखिलाने को, तो कहीं ठहाके में बदल किसी की पीठ पर धप मारने का जोश पैदा कर देंगी.वहीँ आपके अंतस से एक पीड़ा और वेदना भी उभरेगी. सीने में जलन भी हो सकती है और बायें हाथ का दर्द अचानक कुछ लकवे जैसे संकेत देने भी शुरू कर सकता है,पर घबराइए मत. ये ह्रदयाघात के संकेत नहीं वृद्धि, विकास, प्रगति और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में लगे उन असंख्य जीवाणु चरों की गतिविधि है जिनसे आपका साबका पड़ना ही था. इनसे कई प्रकार के गुणक व त्वरक प्रभावों की उत्पत्ति होती है. जो लोगों की आशाओं व इच्छाओं पर कुछ पाने और कुछ खो देने का प्रभाव डालते हैं.कभी न कभी जनता जनार्दन इनसे आकर्षित-प्रभावित-सम्मोहित होती ही है. कालचक्र की नियति के अनुसार कभी न कभी इनकी चपेट में आना ही है. अधिकतम कल्याण की भावना से इनका निष्पादन किया जाता है.

राज्यकर्म की स्थिर राशियाँ उस सड़क की भांति होरिजेँटल हैं जो चेताती रहती, संकेत देती है कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी.ये वही नागिन है जो उसकी मर्जी के खिलाफ चलने -दौड़ने -भागने पर डंस लेती है. ऐसी ही व्यवस्था है चहुँ ओर फैली,जिसमें हर पल -प्रतिपल समस्यायें हैं उनका विलाप है. उन्हें सुलझा संतुष्टि प्रदान करने वाले,राहत -बचाव में लगे, विनियोग हेतु तत्पर चतुर, ढीठ, आलसी, अहं ग्रस्त, परोपकारी खल या संत समागम जैसी अनगिनत विशेषताओं वाले पात्र अपनी- अपनी लीलाओं से, गतिविधियों से लोकहित की समूची दृश्य श्रृंखला सजीवता के साथ प्रतिबिंबित कर देते हैं. नयनों से झरे आंसू पोंछ देने का दायित्व निभाते हैं. यही देश- प्रदेश, प्रान्त, विकास खंड, पंचायत, घर -गोठ का शाब्दिक जीवन प्रतिबिम्ब है. गौर से देखिये, महसूस करिये कि आर्थिक कल्याण में सामाजिक उपयोगिता के अधिकतम होने की ओर इनकी दौड़ जारी है. ये कागज से शुरू हो लक्ष्य प्राप्ति पर पुनः कागज पर लौट ही चार विराम लगाती है.तब जा कर वृद्धि दर का अवकलन -समाकलन संभव बनता है. आर्थिक वृद्धि के प्रारूप स्थापित होने की गुंजाइश होती है. इस प्रक्रिया में विकास के भंवर की नियामक गति तमाम तरंगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है.

स्थिर राशियाँ यथा नाम तथा गुण हैँ. हर पद के साथ उसके नफे, नुकसान सी मर्यादित, जिनका उल्लंघन असंभव सा होता है. हाँ,एक कान से सुन दूसरे से उसे निकाल देने की व भेड़ की खाल में भेड़िया जैसी गुणात्मक विशेषताओं में इन्हें लपेट कर सहेजा जा सकता है.

फिर पहचान होती है प्राचल की जिन्हें पैरा मीटर कहा जाता है. इसकी विशेषता है कि गतिशील होते हुए भी इसे तत्काल समय पर स्थिर मान लिया जाता है जैसे कि आज की समस्या को सुलझाने के लिए ब्रिटिश राज का कोई प्रोविजिन या नियम क़ानून आज भी लागू होता रहा हो. प्राचल बड़ा महत्वपूर्ण होते हुए भी कोई डिसीजन लेते समय मुर्दा माना जा सकता है और रिकॉर्ड में पटक दी पत्रावलियों पर जमने वाली धूल से इसकी पुरातन दशा का बोध होता है. सरकारी दफ्तर के कई अधिकारी, अफसर बाबू, चपरासी अलाँ-बलाँ भी प्राचल की श्रेणी में आते हैं. कार्य व्यापार शुरू होने पर यह अपने परिवेश व संस्कार से प्रभावित हों इसकी पूरी गुंजाइश रहती है.

कुल जमा स्थिर राशियां, चल राशियों और पैरामीटर से युगपत समीकरण बनता है. चर राशियों में डमी वेरिएबल भी होते हैं जो सांप की तरह केंचुल उतारना और गिरगिट की तरह रंग बदलना बखूबी जानते हैं.

इन सबमें निहित हैं राष्ट्र-राज्य की समस्याएं. यानी कि एक देश में सिमटे अनेकों प्रदेशों को समाहित किए उसके किसी एक प्रान्त के राज-काज को चलाने वाली व्यवस्था की कथा जहाँ प्लानिंग फ्रॉम एबब और बिलो के त्रिशंकु में,निरीह सी पाई जाने वाली जनता को राहत देने के लिए कभी लाइसेंस और परमिट की प्रणाली के हकीम लुकमान वाले नुस्खे कारगर समझ लागू कर दिए जाते हैं तो कभी वस्तु -सेवा और विचारों की जिंस के उड़ते पंछी समूचे जगत के भले की सोच वाले तुलनात्मक लागत सिद्धांत पर आधारित स्वतंत्र आवागमन के सिद्धांत पर मंडराते हैं जो खुलेपन की सोच है. ऐसे विचारों का जन्म प्रायः आयातित सूझ -बूझ से भी होता है और अन्य बातें समान रहें की मान्यता के अनुसार यह नियत कर लिया जाता है कि बरसों से गुलाम और रोगग्रस्त मानसिकता का निराकरण भी उसी सोच से होगा जो पहले व्यापार करने के लिए एक झंडा ले कर आती है और उसे उस तम्बू पर गाढ़ देती है जिसकी नियति चारों दिशाओं में फैल जाने की है. समय के साथ झंडे बदलते हैं और कंपनी की जगह किसी राजा और रानी के सिक्के चलने ढलने लगते हैं जिनकी आज भी बड़ी वकत है.बस रंग और आकार बदल दिए जाते हैं, सोच वही रहती है. अब अखिल जगत में बड़े शिकारी गठजोड़ कर इष्टतम सेवा प्रदाता की हैसियत से संगठन बना डालते हैं जिनके पीछे संसाधन उपयोग के लाभ हाशिये पर सिमट गए लोगों के हित व चहुँ ओर फैली आपा धापी को रोकना होता है.इस प्रकार दौर शुरू होता है बहु राष्ट्र में फैली कंपनियों का जो भू मंडलीकरण -वैश्वीकरण -निजीकरण के नित नवीन टुटकों की श्रृंखलाओं से चली आ रही व्यवस्था की वयः सन्धियों को प्रभावित करती रहती है .राजकाज इनमें ज़ालिम लोशन लगा इन्हें चैतन्य बनाए रखता है तथा विकास खंड स्तर तक इनका जाल फैला देता है.

ऐसा तो अक्सर ही होता है जब विकास के दौर के अनगिनत तनाव -दबाव और कसाव में जनता त्राहि त्राहि करे. लोकसेवक इसे घेरने लपेटने की ऐसी मुद्रा बना डालें कि बिना उनके हाथ डाले व दिमाग चलाये सब कुछ भरभरा कर गिर पड़ेगा. क्या हो तब जब निरीह राज कर्मचारी बेबस हो जाऐं , कमजोर दुर्बल जनता आहें भरने लगे तभी आला अधिकारी अनगिनत यक्ष प्रश्नों को युधिष्टिर द्वारा दिए गए इस उत्तर से संतुष्ट कर देते हैं कि मन की गति वायु से भी तेज होती है. अतः शासन सब समस्याओं की जड़ काटने में समर्थ वान होता है .बस ऊपर से आदेश आ जाएँ योजना परियोजना के साथ तभी उदासीनता का माहौल अवसर में बदलेगा. व्यवस्था की नियामक राजकीय सेवा की उलझनों को सर्वगुणसंपन्न कवि से अधिक कल्पना वाला राज सेवक चुटकियां बजाते सुलझा जाता है.इसी कारण आचार्य कौटिल्य ने आदर्श राजा को पुरुषार्थ चतुष्टय के गुण से अभिसिंचित किया तो वहीँ उसके अधीनस्थ के लक्षण बताते यह स्पस्ट कर दिया कि “आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की चाल जानी जा सकती है परन्तु छिपे दिल सरकारी नौकरों की चाल को जान लेना सर्वथा दुःसाध्य है “.यह चाल निराली मतवाली है इसे सूंघ कर पहचान कर ही समस्याओं को समाधान का पथ प्रशस्थ किया जा सकता है.
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समस्याओं से घिरे महोदयपुर जिले में राज -काज की सुव्यवस्था के लिए इस कथा में अवतरण होता है,तह तक पहुँचने का कौशल रखने वाले विष्णु शंकर का जिनके साथ दर्शन होते हैं तहसीलदार धरणीधर शर्मा के जो हाकिम खुश तो अमला खुश के सिद्धांत पर चलते उसकी अवभगत खुले दिल से करते हैं उसके किसी भी आदेश को डिसऑबे नहीं करते न ही वरीय अफसर की बात काटते हैं. फिर आते हैं बिना लागलपेट के ठेठ लोकाचार में न्यून विश्वास रखने वाले, कभी काम से जी न् चुराने वाले नायब तहसीलदार कुंवर विजय जो अवसर पड़ने पर बाहु या मुष्टिका युद्ध में भी पारंगत हैं, अर्दली को भी एक दो दांव में धुलधूसरित करने में माहिर. जम के सोमरस पीने के बाद जब मेडिकल जाँच हेतु सामने आते हैं तो स्याही पी जाते हैं अब कर लो, जो करना है जाँच में अल्कोहल तो आएगा नहीं,कोबाल्ट-क्रोमियम-कॉपर-मेंगनीज़ भले ही आ जाये. सरकारी नौकरी में समस्या आने पर खुद विलुप्त हो अज्ञातवास पर जाने और अधिकारियों से बच छुप बारीक़ आटा पीसने की चक्की का संचालन कर अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करने का कौशल है इनके पास. अब आते हैं डिप्टी साहिब डी पी सिंह जो सामिष पार्टियों के, आपानक गोष्ठियों के रसिया जबरदस्त कैपेसिटी वाले व तीनपत्ती के माहिर सट्टे बाजी की परंपरा में जो मर्जी आये सो करो के सिद्धांत को व्यवहार में बदलने वाले सिपहसालार रहे.

अब सामने हैं,’ज्यादा दिमाग क्यों खपाएं ‘के फेर में अड़े बीडीओ चरण दत्त.चुने हुए जन प्रतिनिधियों से बहुत ही महीन मधुर सम्बन्ध बनाए रखने वाले, एक दूसरे की ट्रेजेडी समझने वाले एक दूसरे के मुँह में पूरा लड्डू फिट करने वाले आपस में गहरी हमदर्दी रखने वाले. ऐसी स्कीम जिनमें दूर दूर तक कोई समानता न दिखे ,उनमें भी डवटेलिंग कर डालने वाले. कमजोर पड़ जाने पर साहिब के आगे दोनों हाथों में दो जिन्दा मुर्गे ले हाजिर हो जाने वाले.’येड़ा बन पेड़ा खाते रहो ‘कहावत पर चल रिटायर मेन्ट तक के काल तक नौकरी सही खींच ले जाने वाले.अगले पात्र हैं विरलतम दूरस्थ स्थानों में रह अपने साथी डिप्टी साहिब से ‘अप्सरा आह्वान मन्त्र’ ग्रहण कर कमजोर के पक्ष में हमेशा खड़े रहने वाले संत सेवक शुक्ला जी, जो सोलह बरस समाज शास्त्र के प्रवक्ता रह बने ‘प्रासिसे’ यानि डिप्टी. नियम कानूनों में उनकी आस्था रूढ़िवादिता के उत्कर्ष तक जा पहुँचती. बर्फीबारी में फंस गए कवि ह्रदय बुद्धिजीवी को बर्फ काटने वाले डोज़र में बिठा सुरक्षित राह देने वाले.राहत -पुननिर्माण कार्यों में लोगों के सुख -दुख में हर समय उनके साथ खड़े होने की प्रतिबद्धता जगाते और तब भी अगर रोष न थमे तो जोर दे कर बोलने वाले कि, “जौन बनए रहे, ऊ तौ सब बांटि लेह्या. अब हमरे खोपड़िया माँ सीरिफ़ सफ़ेद बार बचे हैं, ओनहूँ के नोचि ल्यो “. तीर्थ यात्रा में सारे संपर्क कट जाने पर पगडंडी से पंद्रह किलोमीटर की पदयात्रा करा यात्रियों को सुरक्षित निकाल ले जाने का जीवट रखने वाले शुक्ला जी. अंततः ऐसे फंसे जलप्लावित इलाके में जहाँ जानकी माता सी दिनचर्या हो गई, अशोक वाटिका में गुपचुप बैठे रहने के अलावा इष्ट मित्र के दिलासे पर सांसे चलतीं रहीं कि प्रभुजी शीघ्र ही उद्धार करेंगे.

फिर सम्मुख है जनता -जनार्दन में मशहूर बी पी यानी भानु प्रताप सिंह. मोनोटोनी के विरुद्ध, प्रोम्प्ट एक्शन के हिमायती. कब्जे की सरकारी जमीन छुड़ानी या नदी तट पर बन रही ईमारत पर निर्माण रुकवाने की अगर ठान ली तो विकर्ण कोण में हुए तबादले की भी परवाह कहाँ? दुनियादारी की सलाह देने वाले उनसे कहते रह गए कि,’ए भले आदमी!खूंटे पर बंधे आदमी को उतना ही उछलना चाहिए कि खूंटा अपनी जगह रहे. तुम तो हद पार कर देते हो. बछड़े और गैया, दोनों का ही खूंटा उखाड़ देते हो. तुम्हें समझ कब आएगा?

सच्चाई की पूँछ पकड़ मुद्दे की तह तक पहुँचने वाले, होशियारी दिखाने पर तगड़ा झटका देने वाले, कानूनी नुक्ते निकाल फंसाने वाले शक्ल सूरत से ईमानदार चाल -ढाल हावभाव से पक्के सिद्धांत वादी हैँ धर्मराज पांडे यानी डी आर. इनकी कीर्ति कभी कलंकित न हुई. ऐसी छटी इंद्री जो गड़बड़ घोटाले के खेल को न सिर्फ सूंघ लें बल्कि अपने इंच टेपी दृष्टिकोण से चोरी चकारी तुरंत पकड़ लें सरकारी पैसे की बर्बादी न होने दें कुशल लुगाइयों सा सुलूक करें पाई -पाई के साथ. अब इनके पास फाइल आती है सस्पेंड ईओ के आर भट्ट की जिन्होंने रहगुजर के लिए चौराहे पर फड़ लगा डी और दिन दहाड़े वसूली शुरू कर दी,आते -जाते लोगों से एंट्री टैक्स की. घंटा घर की एंटीक सी बन गई घड़ी कबाड़ी को न बेच ऐसे माल के एक शौकीन व्यापारी को बेच दी.

सरकारी नौकरी की गति अति गहन होती है जिसे साधना योगियों के लिए भी संभव नहीं.फाइलों का ढेर है जिनके चलन में पत्रावलियों को व्यवह्रत करने के जो भेद जान गया वही ऐसा शिल्पी जिसके सांचे से गल कर, ढल कर, जो मिसिल निकलेगी वह औजार बन कर निकलेगी. जब तक ऑब्जेक्शन नहीं लगेगा, खाना ही नहीं हजम होगा. अब ये तो कोई बात न हुई कि फाइल पुटअप कर दी और मन में संदेह उपजे. सो ये अधिकारी नेगेटिव माइंडसेट से फाइल पढ़ते उसमें छुपे अन्तः साक्ष्य ढूंढ़ते जिसके मिलते ही अन्तःस्फूरण जागृत हो उठे. बाछेँ खिल उठें. युरेका -युरेका हो जाये.ये तभी हो, जब सरकारी धन की प्राणपण से रक्षा की जाये. यक्षों जैसी आदत हो.पाई -पाई की हिफाजत जिसकी कई पद्धतियाँ हैं :प्रत्यक्ष -मौलिक -ऐतिहासिक गुप्त या लुप्त. मातहत लाख ताना मारें कि साहब के यहां तो फाइलों का आयात होता है, निर्यात नहीं. वो तो फाइलों को फरमेंट करते हैं. क्या हुआ जो फाइल पढ़ने से कतराते हैं? टेबल के गले गले फाइल भरी रहती हैं. फिर टीप लिखने में घबराते हैं फाइल को समूचा गायब करने का हुनर जानते हैं.

फाइल की नाना गतियाँ हैं जिनका चलन एक टेबल से दूसरी व एक सेक्शन से दूसरे की ओर होने में समस्त शास्त्रीय नृत्य समाहित होते हैं. इनमें कत्थक की विलंबित, अति विलंबित और चक्करदार परन की गतियाँ हैं. भरतनाट्यम सा इठलाना -ठुमकना और उसकी तिरछी चाल है. मणिपुरी नृत्य की घूमती -विसर्पी गति उसकी चाल को मंद करने में सहायक होती है तो कछुवे की गति सबसे स्वाभाविक मानी जाती है. फाइल मूवमेंट किस दिशा में और क्यों हो रहा है इसके पाप भागी अक्सर बाबू बनते हैं जिनकी महिमा अपार है. इतिहास बताता है कि ब्रिटिश साम्राज्य के संस्थापक जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के तम्बू पूरे हिंदुस्तान में फैला दिए वह बुनियादी तौर पर क्लर्क बन नौकरी शुरू किया था तो गणितज्ञ रामानुजम भी पहले बाबू ही रहा. यहाँ तक कि अंग्रेजी अखबार अपनी खास आदत के चलते टॉप ब्यूरोक्रेसी को भी बाबू कहते हैं. इसी बाबू की माया छाया लालफीताशाही, इंस्पेक्टर राज और बाबूराज पर पडती रहती है. होते होते काम में लुत्ती लगाना, फाइल को कार्नर करना हो या शिलालेख नुमा राजाज्ञा से सत्य प्रति का मिलन करा साहिब के सामने पुट अप करना और तो और कुछ विरले तो ऐसे भी कि साहिब के दस्तखत भी खुद ही च्याँप देने वाले.

हुकूमत का आखिरी छोर यानी पटवारी. पुराने दौर के कई किस्से इस पद के दंद -फंद से भरे पड़े हैं, उदाहरण ऐसे कि पटवारी की एक झलक पा भेड़ें भी अलग -अलग दिशाओं में भागने लगतीं थीं. उसके सामने बड़े -बड़े पानी भरने लगते थे.पटवारी को नौकरी में सबसे बड़ा डर यह लगा रहता है कि कहीं उसकी तरक्की न हो जाये. कानूनगो बनने पर कई मौके खत्म हो जाते हैं अब नया ओहदा सिर्फ कागज फॉरवर्ड करने तक सीमित रह जाता है.जिस -जिस चीज का ताल्लुक जमीन से होता है, उसका वास्ता पटवारी से जरूर पड़ता है इसीलिए यह पदनाम गांव- देहात -कस्बे में शीर्ष पर चढ़ा रहता है.होते भी इनमें कई बड़े तीरन्दाज हैं. इनमें से एक तो इतना काबिल कि जब उसके हलके में एक बाघ मरा पाया गया तो उसने फौरन उसे कब्जे में ले पंचनामा भरवा दिया जिसमें मृतक नाम -गुलदार सिंह, पिता का नाम -बाघ सिंह, उम्र -नामालूम, हुलिया – शरीर पर चित्तीदार निशान और निवास -शेरगढ़ वनराजी क्षेत्र दर्ज कर दिया. काम की गड़बड़ियों से त्रस्त साहिब को इसी कारण उनके मातहत अफसर यह कह आश्वस्त कर देते हैं कि, “सर, सब कुछ ठीक हुआ जाता है. पटवारी लगा दिए हैं”.

अब सामने हैं मार्केट में बने रहने के गुर जानने वाले, जोड़ -तोड़, पेंतरे बाजी को बुरा न मानने वाले, अपनी हसरत पूरी करने को किसी भी हद तक जाने वाले और हर दम हेडक्वार्टर में बने रहने वाले, दुर्गम डिवीज़न में बने रहने के लिए हर सितम सहने वाले बड़े साहिब. हर चातुर्मास में उनकी दिग्विजय यात्रा निकलती रहती. भाग्य में ऐसा संयोग कि कोई न कोई मुर्गा उनके लश्कर का रास्ता काट लेता. साहिब बिचारे धर्म कर्म वाले धर्मभीरु. सो ऐसे दिशाशूल में यात्रा स्थगित व रात्रिभोज में उसी मुर्गे को आहार रूप में ग्रहण करते. अब कैसे कटेगा दूसरे का रास्ता? इसे सबक सीखना तो बनता है. उनके करीबी बताते कि उन्होंने बल और अतिबल नामक विद्याएं साधी थीं जिससे कभी उनका तेजबल कमजोर न हो पाया. वह उड्डीश यन्त्र भी जानते थे और इंद्रजाल फेंकना भी. कभी उन पर ऊँगली उठी या आरोप लगा तो सीधा सा नियम बता डालते कि,” मुझ पर पहला पत्थर वो मारे,जिसने पाप ना किया हो, जो पापी न हो “.
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लेखक ललित मोहन रयाल

अब बात मन में लगन और पेट में वोडका का अद्धा भरे लुटेरों की भांति फाइल खोज निकालने वाले सामन्त की. उनकी चतुर सुजान रणनीतियाँ हैं. सरल काम को वक्र कर असीम आनंद में निमग्न होना, हर बात को पेचीदा बना डालना, अविश्वास और संदेह को अनुशासन के रूप में ग्रहण करना, बने बनाए मामले को भूतलक्षी अवस्था तक पहुंचा देना व नियमों का खुलासा प्रभाव जमाने या सिक्का जमाने की नीयत से करना उनके कार्य व्यवहार का अभिन्न अंग है. वह बताते हैं कि स्टैंड लेने से बहस -मुबाहिसा बढ़ता है. क्लेश शोक का मूल है. जब मामला खिंचते खिंचते खुद ही निबट जाता है तो काहे का क्लेश, काहे का शोक.बहस के मौके पर मौन साध उन्होंने राज काज चलाया. कभी आरोप लगे तो हल्की मुस्कान दे टाल जाते, ज्यादा कुरेदने पर सोचा समझा, गढ़ा गढ़ाया जवाब देते, खुल्लम खुल्ला आरोपों को सीधे अफवाह कह टाल जाते. अपने दरबार में फाइलों के बीच गले गले आकंठ डूबे मिलते अधिकांश कामों में जाल फेंके रखते. चतुर शिकारी की तरह उनका दांव कभी न चूकता. टीप -नोटिंग से ऐसे खेलते जैसे फाइल फाइल न हो रामपुरिया चाकू हो.

यहाँ नीतियों का निर्माण व उसकी क्रियाओं के क्रिया कर्म की जिम्मेदारी महासामन्त नृपेंद्र थापा के जिम्मे रहती जो शांत और गंभीर माहौल में आदर्श और ईमानदारी की दुनिया रच डालते . स्वयंघोषित धर्म प्राण रह दूसरों को जांच का भय दिखा मातहतों को अहसासे कमतरी में रखने की फायदेमंद विधि के प्रणेता बने रहते. राजपरिवार व राजवंश की हर इकाई से पूर्णतः सहमत हो उनका मनोबल बनाए रखते. बैठकों के शौकीन, समिति बनाने में दक्ष, दिन रात मीटिंग ले सीधे वार करते. ऊँची आवाज में पांच मिनट की बात पचास मिनट खींचते. किसी को मुंह खोलने का अवसर न देते. सवाल उठाने वालों पर जमकर बरसते. जवाब देने वालों को गरज कर बरज देते.मुंह से उछाल -उछाल कर आग फैंकते. तिल का ताड़ बनाते.

आप्त सामंत व महासामंत के बीच के सम्बन्ध दग्धकारी से बढ़ वैमनस्यकारी कहे जाते. दोनों के गुटों की टॉप प्रायरिटी में षड़यंत्र, घात -प्रतिघात व प्रतिशोध का बोलबाला होता. एक दूसरे को खल साबित करने को अफवाहेँ उड़ाई जातीं. पर राजन के सामने दोनों सौहार्द, सहानुभूति व पर हितैषिता का स्वांग भरते आपसी सहयोग करते नजर आते.महासामंत अपनी निजी जिंदगी में बेहद सादगी से रहने को अभिशप्त रहे जिसके पार्श्व में उनकी वीरांगना महारानी थी जिन्हें सब्जियां तक सीधी चाहिए होतीं एकदम स्ट्रेट 180डिग्री.

आगे सेवा सम्बन्धी प्रकरण को ले रोमांस भावबोध की कथा चलेगी जिसका निपटान विष्णु शंकर को करना है. राजभाषा हिंदी के उपयोग की सार्वभौमिकता के प्रसंग गुदगुदाएंगे.प्राथमिक शिक्षा की संगति -विसंगति पर बहस होगी. मास्साब और गुरूजी के साथ शिक्षा व्यवस्था के अवमूल्यँ की पड़ताल होगी.उच्च शिक्षा की अलग सी सेवा शर्त अलग से कायदे और एक हद तक मिली स्वायत्तता के अधिमूल्यन पर विचार होगा. उच्च शिक्षा संस्थानों में की जा रही शोध और प्रतिफल के प्रतिशोध की मीमांसा की जाएगी और सम्मानित -पुरस्कृत होने के लिए किये जा रहे पुरुषार्थ का नीर -क्षीर विवेचन.

समस्त गतियों के संचालन हेतु मार्च के महीने की बसंत ऋतु और फागुन की बसंती हवा में आगम और व्यय के संतुलन को साधता बजट कैसे उपज किस विधि से ठिकाने लगता है इसे जाने बिना देश की हालत का पता कैसे हो? साथ ही जानने जरुरी हो जाते हैं कर उगाही के इतिहास और उसकी अपवंचना के साथ शुल्क विवर्तन के अनुभवसिद्ध मूल्यांकन जिसमें एडम स्मिथ के कल्पित मानव का रेशनल व सेंसिबल होना और उसकी तमाम फिलोसोफी के साथ इस बात का ताज्जुब भी कि रात को होने वाले, गुपचुप, चोरी -चोरी होने वाले मुक्त व्यापार को ले कर उन्होंने कोई अवधारणा क्यों नहीं दी.अंततः विशेष रूप से मार्च माह में काम में संलग्न रहने से तंदुरस्ती का बढ़ना, कायाकल्प होना व आत्मा का उन्नयन जो सब अवसर और समय जैसे प्राचलों पर टिका होता है. अति आवश्यक दृष्टांत इस प्रश्न को ले कर भी कि राजकीय सेवा हो और उसके लाभ व्यवहार में भत्ते न हों?सो जनहित में की गई यात्रा और उसके प्रारूप को पूर्ण समर्पण से भरने वाले सनातन धर्मियों की लेखनी के करिश्मे भी कम नहीँ.साथ ही अनगिनत वाहनों के चक्के बिना लॉग बुक भरे कैसे घिसें भला?

 सरकारी कानून की इस सूक्ति पर अमल को भी जान लीजिये कि सरकारी धन का अति मितव्ययता से उपयोग हो इसलिए एक तय मूल्य की कीमत से कम पर ही वस्तु, मद व सेवा की टोकरी खरीदी जाएगी. न्यूनतम लागत पर काम व इसी पर टेंडर उठने की चतुराईयां व इनके सिद्धान्त को समझने के लिए शून्य लाभ लेने वाली फर्म का प्रैक्टिकल है जहाँ संभव है कि वेंडर शनिदान वाले तेल में ही पकोड़े तल कर सप्लाई कर दे .ऐसा अर्दली भी नमूदार हो सकता है जो निलंबित चल रहा हो और साहिब को पता ही नहीं कि वह ही चंपा बार, डिस्कोथेक के साथ पांच सितारा होटल और दस चक्के के दस ट्रक व दो स्टोन क्रेशर का मालिक हो.

राज काज के अनगिनत रोचक प्रसंगों में गले गले डूबी “चाकरी चतुरंग” में व्यवस्था के मूल की जानकारी के साथ इसकी अबूझ पहेलियों को हल करने वाले अनुभव सिद्ध अवलोकन हैँ जिनका साबका विष्णु शंकर गुप्ता को भिन्न -भिन्न परिस्थितियों में होता है यथा चुनाव के समय उम्मीदवार के नॉमिनेशन से ले कर विजयी भव तक के आख्यान. बीस बरस पुराने मुकदमे का बीस मिनट में निबटान, सतयुग की परंपरा का निर्वाह उसके द्वारा जो पेड़ की छाया में न्याय का प्रतिबिम्ब देख लेता है.धर्मराज बैठते भी खुबानी के बोट तले हैं. गोष्ठी कर निस्तारण करते हैं. कचहरी -हाकिम -चोबदार -संतरी से मुक्ति, तुर्रेदार पगड़ी वाले अर्दली से, स्टेनो से मुलाक़ात की पर्ची और साहिब के तेवरों से भिन्न हुई व्यवस्था.अब चाहे पाली पोसी नर्सरी को तहस नहस करने का मामला हो या झाड़ियों में मिली नवजात बच्ची का जिसे गोद लेने लगातार फोन घनघनाते हैं और उनके मन को आपदाग्रस्त कर जाते हैं. वह एक किलोमीटर लम्बी विवाद ग्रस्त सड़क के विवाद को भी सुलझा डालते हैं जिसके बगैर गांव के कई युवक युवतियों के विवाह टलते जा रहे थे. प्रसूताओं को भारी कष्ट होते थे. बूढ़े लाचार खटिया पर टांग ले जाये जाने को विवश थे. आखिर उनकी सूझ -बूझ से प्रकरण के चरम उत्कर्ष में डोज़र -जेसीबी खुला मैदान पा ऑपरेटर को हिम्मत दे सड़क साफ करने की दिलेरी और जाँबाजी के पूरे मौके दे ही डालती है.
(Chakri Chaturang Book Review)

यहाँ सरकारी धन की बंदर बाँट की शिकायत की जांच करने वाले शुक्ला जी हैं एकदम जेम्स बांड से,जो जिस खेत के लिए आधा किलो मीटर लम्बी नहर बनी वह खुद दो सौ मीटर लम्बा निकला जैसा केस पा चांस पे चांस लेते हैं.एक जनसेवक हैं मुख्यालय की हर नई स्कीम की पहली खबर ले वही आते हैं पर इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में ही स्वयं को संकुचित किये हैं. जनसेवा के पुण्य का ‘समूचा -का -समूचा प्रतिफल’ चाहते हैं.बस भूल कर भी हाथ नहीं मिलाते इससे ऊर्जा -क्षय का खतरा या सामने वाले को करेंट पास न हो का डर बना रहता है .थोक में सब्जी खरीद उनमें मिट्टी लगा हाकिमों को यह कह समर्पित कर उनके कृपा पात्र बने रहते हैं कि सीधे गांव से ला रहा, सुदामा की भेंट समझ लीजिये.

अनुमान आश्रित जवाब देने में एक्सन साहिब शाश्वत व सार्वभौमिक शैली के पुरोधा हैं . पूछा जाय कितनी स्कीम चल रही तो जवाब ‘सब की सब चल रहीं’. गर्मियों में पानी सूखने पर कितने टेंकर? जवाब ‘सभी इलाकों में’. मानसून में कितनी योजनाएं क्षतिग्रस्त तो ‘मेन -मेन तो सारी की सारी’. कितनी जारी धनराशि यूटिलाइज तो निःसंदेह वह भी ‘सारी की सारी’. अभी माइक वाले सरपंच के कारनामें हैं तो तबादले वाले सभापति की कथा भी. अभिनिंदनीय से निंदनीय होने वाले सेवानिवृति की ओर बढ़ रहे पंतप्रधान हैं. कैसे इस काल में काम से वितृष्णा दिखा उनके प्रति आदर भाव रहेगा साथ ही उनका सुदीर्घकालिक अनुभव, कामयाबी के तरीके, बहादुरी, जाँबाजी,दिलेरी और रह -बच गयीं तीन इच्छाएं कि अभी बच्चे सेटल न हुए, मकान नहीं बना, बेटियाँ ब्याहनी हैं.ये सब हो जाय तो गंगा नहा लूँ.

और उपसंहार में विष्णुशंकर का तबादला. समस्या जैसी थी वैसी ही रही. वो चुनी हुई कहानियाँ अलमारियों के बंद शीशोँ से अनवरत झाँकती रहीं इस इंतज़ार में कि शायद कभी किसी विष्णु शंकर की नज़र उन पर पड़े, अलमारियों के ताले खुलें और वो आज़ाद हो इस मशीन के कलपुरजोँ में समा जाएँ. इसे सही दिशा, सही चाल और सही गंतव्य तक चला सकने में काम आएं. ललित मोहन रयाल की पैनी नज़र कैमरे की तरह सरकारी व्यवस्था के अनगिनत चित्रों को खींचती मुख्य घटनाओं को जूम कर सामने रख देती है. चरित्रों के क्लोज़अप उभारती है नख शिख विवरण देती है कि किस प्रकार हर मोहरा अपनी चाल में पारंगत बन विकास के मार्ग में अपने व्यक्तित्व की अलग सी बानगी छोड़ जाये और वह भी ऐसे कि पढ़ते हुए लगे कि अरे ये पात्र तो कहीं देखा है और ऐसा तो सचमुच हुआ था. घटनायें गुदगुदाती इठलाती बलखाती अचानक प्रहार भी कर जातीं और सवाल भी छोड़ जातीं हैं. भाषा के नये प्रयोग हैं एकदम गणितीय सूत्र में ढले से और कथ्य की फ्रेमिंग माइक्रो और मैक्रो दोनों लेंस का प्रयोग कर उभरी तस्वीर को गड्ड-मड्ड करने में भी देर नहीं लगाती और उसकी छाप सीधे आपके दिल से जोड़ देतीं हैं.
(Chakri Chaturang Book Review)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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