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तैमूर लंग की आपबीती

“मैं उल्लू की आवाज़ को अशुभ नहीं मानता, फिर भी इस आवाज़ से अतीत और भविष्य की यादों में खो जाता हूं. जब भी रात को उल्लू की आवाज़ सुनता हूं, लगता है दुनिया के अतीत का इतिहास मेरी आंखों के सामने घूम रहा है. दुनिया के अतीत से मैं अच्छी तरह परिचित हूं, क्योंकि मैंने इस पर इतिहास के कई ग्रंथ पढ़े हैं लेकिन दुनिया के भविष्य का इतिहास मेरे सामने इतना स्पष्ट नहीं है. मैं नहीं जानता आने वाले समय में क्या होगा? फिर भी इतना ज़रूर समझता हूं कि भविष्य को जानने के लिए अतीत एक नमूना है और अगर हम अतीत को मिसाल मानें तो समझ सकते हैं कि आने वाले समय में क्या होगा?” यह पंक्तियां इतिहास में सबसे क्रूर हमलावर माने जाने वाले विजेता तैमूर लंग की आपबीती से ली गई हैं. (Autobiography Taimur Lang)

कुछ माह पूर्व एक मित्र से मुलाक़ात हुई और उनसे संवाद करते हुए उन्होंने इस पुस्तक का ज़िक्र किया और मैंने उनसे पुस्तक मुझ तक पहुंचाने का वादा ले लिया. मित्र और अमेज़न का धन्यवाद कि उन्होंने वादे के मुताबिक़ मुझ तक किताब पहुंचा दी.

किताब हाथ में आते ही खुशी हुई, लेकिन दुनियावी व्यस्तताओं में इसके पन्ने पलटने का वक्त नहीं मिल पाया. कुछ दिन सुकून ढूंढने और कुछ अच्छा पढ़ लेने का फैसला करके आखिर एक पहाड़ की तलहटी में आ ही पहुंची.

पुस्तक के पन्ने ही पलटते ही शुरुआती हिस्से में तैमूर लंग के युद्धों में किए गए हजारों लोगों को मौत की घाट उतारती उसकी तलवार से नफ़रत होने लगी. लेकिन पढ़ना तो था ही. इसलिए जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, तैमूर के जीवन और उसके द्वारा कब्ज़ा किए जाने वाले  मुल्कों के जनजीवन को जानने की उत्सुकता बढ़ती चली गई. आखिर तो 546 पेज पढ़ने के बाद ही चैन मिला.

मध्य एशिया के मुल्कों पर कब्ज़ा करते हुए ईरान, तुर्की, रूस अफगानिस्तान और आज से  लगभग 900 वर्ष पूर्व भारत आने वाले  तैमूर लंग के अनुभवों, कृत्यों और यात्राओं के साथ चलते हुए और उसको पढ़ते हुए मुझे जो अनुभूति हुई उसको शब्दों में ढालना संभव नहीं है. लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जब मैंने कमरे से बाहर निकलकर पक्षियों की चहचाहट सुनी, ठंडी हवाओं और खुशनुमा फिज़ाओं को महसूस किया तो मेरा मन ऊर्जा से भर गया. और इस क्रूर शासक के अनुशासन, आत्मविश्वास और साहस की मैं कायल हो गई. हालांकि कई बार मन में आया कि यदि यह जांबाज सेनापति दुनिया को  बेहतर बनाने के विचार के लिए निकलता तो इतिहास कुछ और ही होता. लेकिन फिर भी तैमूर के जीवन और उसके विचारों को समझने के लिए यह पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए ऐसी मेरी राय है. तैमूर बेहतरीन लेखक रहा है उसने अपने जीवन वृतांत के साथ ही सामाज  के विभिन्न पहलुओं को सामने लाने की उसकी शैली कबीले तारीफ़ है.

विश्व विजेता बनने के अपने जुनून के लिए मन और तन से तैयार तैमूर लंग ने क्रूरता की हदें पार की उसके लिए उसको माफ़ तो नहीं किया का सकता. लेकिन यह किताब उसके क्रूर हमलावर होने के स्थापित तथ्य से बाहर निकलकर उस उजले पक्ष से भी हमारा परिचय करवाती है जो उजागर नहीं दिखा इतिहास में. तैमूर लंग अपने उसूलों का पाबंद एक विद्वान था, जिसको कुरआन के साथ ही उस दौर में रचित अन्य कृतियों तथा आध्यामिक विचारों पर अच्छी पकड़ थी. वह निडर, अनुशासित तथा सूझ-बूझ से युद्ध को जीत लेने वाला बहादुर सैनिक और बेहतरीन सेनापति भी था. इतिहास के इस मजबूत किरदार के अमानवीय पहलू के साथ ही उसके मानवीय पक्ष से पाठकों को परिचित करवाने के लिए संवाद प्रकाशन का आभार! अनुवादक संजना कौल जी ने मेरे जैसे हिंदी पाठकों तक इस बेहतरीन और ऐतिहासिक आत्मकथा को पहुंचाया उनका तहे दिल से शुक्रिया.

यह आपबीती इतिहास का जीवंत दस्तावेज़ है, जो तेरहवीं सदी में, मध्य एशियाई समाज के कई पहलुओं से हमें रू-ब-रू करवाता है. साथ ही 1398 के समय के भारत और इसके सामाजिक, राजनीतिक और भौतिक सच्चाइयों की झलक दिखा जाता है, जिसको आमतौर पर भारतीय इतिहास में राजा-महाराजाओं के गुणगान ने उजागर नहीं होने दिया.

पूरी दुनिया को जीत लेने का आकांक्षी तैमूर अपने प्रति जितना निर्मम था उससे अधिक अपने दुश्मनों के प्रति था. उसके आक्रमण का मुकाबला करने वालों, प्रतिरोध करने वालों को वह मौत की घाट उतार देता था, फिर चाहे बच्चे हों या औरतें, किसी को भी नहीं छोड़ता था. लेकिन समर्पण करने वालों को गुलाम बना लेता था और कभी माफी देता था. उसकी एक बड़ी विशेषता यह थी कि वह कवियों, धर्मगुरुओं, शिल्पियों और विद्वानों की इज्जत करता था, उनको किस भी तरह का नुक़सान नहीं करता था, बल्कि उनके बेहतर जीवनयापन के उचित इंतजाम करने के स्थानीय शासकों को आदेश देता तथा अपनी तरफ से उनको ईनाम देता था.

बचपन से ही तीव्र बुद्धि वाला तैमूर, जिसके नाम का अर्थ लोहा होता है, पढ़ाई के साथ ही युद्ध कौशल में परांगत था और अपने दोनों हाथों का इस्तेमाल करने में माहिर था. “…मैं जवान था और जवानी के जोश के कारण मुझे घुड़सवारी, नेजेबाजी, तीरंदाज़ी, शमशीर (तलवार) चलाने और कुश्ती लड़ने का गहरा शौक था, पर मैं पढ़ाई करने से भी लापरवाह नहीं रहता था. मैंने युवावस्था में दो महत्वपूर्ण किताबें पढ़ी, जो फारसी भाषा में लिखी गई थी. एक किताब का नाम था ‘मसनवी’ जिसका लेखक जलालुद्दीन रूमी था और दूसरी गुलशनरेराज थी, जो महमूद शबिस्तरी ने लिखी थी.”

यह सच भी दर्ज है कि वह इस्लाम को श्रेष्ठ मानता था और रूमी के सूफियाना विचारों का आलोचक था. वह प्रेम, शेरो शायरी और ऐयाशी की खिलाफत करता किसी शासक के लिए इसको पतन का कारण मानता था. लेकिन अपने पहले प्रेम का उसने जिस तरह से वर्णन किया है वह उसके शायरना काबिलियत का परिचायक है. कुरआन उसको ज़ुबानी याद थी और हर आयात के गहरे अर्थों पर वह विद्वानों से चर्चा करता था. उसने फ़िरदौसी का शहानामा पढ़ा था और वह बचपन से ही इस्लामी नियमों का पाबंद था. पांचों वक्त की नमाज किसी भी सूरत में नहीं छोड़ता था. उसने कभी शराब नहीं पी, ऐसा उसका कहना है. अपने लिए लकड़ी की ऐसी मस्जिद का निर्माण तैमूर ने करवाया जो कहीं भी जोड़ कर खड़ी की जा सकती थी. नमाज़ पढ़ने के लिए वह इसको अपनी छावनी में भी खड़ी कर लेता था. उसकी इस मस्जिद की दो मीनारों का रंग नीला और लाल था. उसके विचार में नीला रंग खुदा की महानता का और लाल रंग इंसान की शक्ति का प्रतीक होता है.

तैमूर लंग अपने सैनिकों के लिए भी शिक्षा और ज्ञान को उपयोगी मानता था, अनुशासन का वह कड़ाई से पालन करवाता था. उसका कहना था “अल्लाह ने आदमी के भीतर बहुत सी क्षमताएं छिपाकर रखी हैं जैसे ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता, शासन की क्षमता : हर नादान और कमजोर आदमी समझदार और शक्तिशाली बन सकता है, पर सुस्ती और आलस्य उसे अपने खोल से बाहर नहीं निकलने देते या फिर उसे अच्छा मार्गदर्शक नहीं मिलता, जो उसकी क्षमताओं को निखार सके. दरअसल समझदार बनने के लिए बुद्धि और बुद्धि बढ़ाने के लिए ज्ञान प्राप्त करने की जरूरत है. इसी तरह शक्तिशाली बनने के लिए और शारीरिक शक्ति, शारीरिक शक्ति प्राप्त करने के लिए शारीरिक व्यायाम की अत्यधिक ज़रूरत है.”

तैमूर को इसी ज्ञान ने 40 वर्ष की उम्र में  विश्व विजेता बनने का सपना पूरा करने का हौसला दिया. उसने इसके बाद आराम का त्याग कर अपने जीवन का अधिकांश समय सैनिक छावनी में अनुशासित सिपाही बनकर ही बिताया और निरंतर सैनिक अभ्यास करते हुए अपनी सेना को मजबूत करता रहा.

तैमूर ने यह आत्मकथा 70 साल की उम्र में फारसी में लिखी. वह बचपन से ही दोनों हाथों का इस्तेमाल करता था. युद्ध क्षेत्र में दायां हाथ जख्मी होने के कारण यह आत्मकथा उसने बाएं हाथ से लिखी थी. युद्ध क्षेत्र में ही उसका एक पैर भी जख्मी हो गया था इसलिए उसका नाम तैमूर बेग की जगह तैमूर लंग पड़ गया था. मरने से पहले वह चीन पर भी आक्रमण करना चाहता था लेकिन उसको लकवा पड़ गया और उसका यह सपना पूरा नहीं हो पाया. वह इतना बहादुर था कि उसने अपनी कब्र बहुत पहले ही बनवा ली थी क्योंकि उसका मानना था कि बहादुर सेनापति को युद्ध करते हुए ही मौत आनी चाहिए और तैमूर इस के लिए हमेशा तैयार रहता था. उसका स्त्रियों के प्रति अत्यधिक नकारात्मक दृष्टिकोण रहा है और दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति तिरस्कार की भावना रही है जो उसके व्यक्तित्व को कमजोर बनाता है.

हालंकि आम तौर पर उसने किसी भी इंसान की काबिलियत और विद्वता को कम नहीं आंका, बल्कि सभी से कुछ ना कुछ सीखते हुए उसने अपना विजय अभियान जारी  रखा. वह स्थानीय लोगों और अपने दुश्मन से भी युद्ध के दांव-पेंच, औजारों की निपुणता सीखता था और ज़रूरत के अनुरूप उनका भरपूर इस्तेमाल करता था. वह ख़ुद को ज्ञान और अध्ययन का विद्यार्थी मानता था और विद्वानों और धर्म गुरुओं का सम्मान करता था. उनके लिए हर प्रकार की मदद के लिए तैयार रहता था. उसने अपने उसूलों के अनुरूप इन पर कभी हमला नहीं किया.

यह आपबीती वह यात्रा है, जो अपने पाठक को साथ चलने पर मजबूर कर देती है. तैमूर ने जिन शहरों पर आक्रमण किया, जिन रास्तों से वह निकला, मध्य एशिया, पूर्व, पश्चिम और हिंदुस्तान, वहां के  पहाड़ों, मैदानों के अनगिनत रहस्यों से हमें रू-ब-रू करवाता अनगिनत कबीलों, उनके निवासियों की जीवन शैली के कई रूपों से भी परिचित करवाता चलता है.  तैमूर का कबूतरखाना, टिड्डी दल के फसलों पर होने वाले आक्रमण का विवरण, खेती, व्यवसाय, दस्तकारी, शिल्पकारी इत्यादि के विस्तृत चित्रण के साथ ही प्रत्येक कबीले की खासियत और विभिन्न धर्मावलंबियों की जानकारी भी यहां मौजूद है.

तैमूर लंग अफगानिस्तान और कंधार से खैबर दर्रे को पार करता सितम्बर 1398 में हिंदुस्तान पहुंचा. उसने हिंदुस्तान की अकूत धन-संपदा के बारे में सुना था यहां आक्रमण करने का उसका मुख्य मकसद देहली के खजाने को लूटना था. मुल्तान से प्रवेश करके उसने मेरठ और लोनी के राजाओं और प्रजा को पराजित किया था. इस दौरान भारत की जलवायु और जीव-जंतुओं से उसका सामना हुआ. अंततः वह देहली के सरदार को कैद करने और भरपूर दौलत समेटने में सफल हुआ.

मुल्तान के रास्ते से गुजरते हुए जब उसने पहले-पहल एक स्त्री को जंजीरों में बांधकर ज़िंदा आग में जलाते हुए देखा तो इंसानों के खून से खेलने वाला यह क्रूर शासक भी उद्वेलित हो गया. “जब उस औरत के हाथ-पांव जंजीरों से बांधे गए, उसे उस लाश के एक तरफ ईंधन पर लिटाया गया. फिर ईंधन को आग दिखाई गई और वह पूरी तरह भड़क उठी. उस औरत की चीखें जंगल में गूंजने लगी. हमारे कूच का समय था इसलिए मैं ज़्यादा देर नहीं रुका और घोड़े पर सवार होकर चल पड़ा. उस दिन मैं मुर्दे और ज़िंदा के जलाने के इस काम से बहुत व्याकुल हुआ और जब तक हिंदुस्तान में रहा, फिर कभी मुर्दा ओर ज़िंदा जिस्मों को जलाने के स्थान पर ऐसा दृश्य देखने नहीं गया.” (यहाँ तैमूर सती प्रथा के तहत एक हिन्दू स्त्री को पति के साथ जिन्दा जला देने के दृश्य का वर्णन कर रहा है, जो उन दिनों बहुत आम बात थी.)

यह आपबीती हिंदुस्तान के तत्कालीन समाज की जिस तस्वीर से हमारा सामान करवाती है वह देखी जानी ज़रूरी है. तैमूर ने लोनी और मेरठ के आसपास की जिन घटनाओं का ज़िक्र किया है उसमें एक और महत्वपूर्ण घटना उस वक्त की है, जब तैमूर लंग देहली को लूटने की तैयारी कर रहा था. इस विजेता की छावनी में भूखे-प्यासे हिन्दू उससे मिलने के लिए आए और तैमूर से उनको अपनी सेना में शामिल करने का आग्रह किया. यह इसके लिए आश्चर्य था कि हिन्दू धर्मावलंबी ये लोग उस मुस्लिम आक्रमणकारी की सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं? यह वर्णन भारतीय इतिहास के कटु सत्य को पाठकों के समक्ष रखता है.  ” …मैंने उनसे पूछा, ‘तुम तो हिन्दू हो फिर किस तरह इस बात के लिए तैयार हो कि मेरी मदद करो और अपने सामान धर्मी हिन्दुओं के साथ लड़ाई लड़ो’ उन्होंने जवाब दिया ‘हम सब की नज़र में नीच हैं और हमने सुना है कि जब तेरा मजहब…’. मैंने उनसे कहा क्या तुम्हारा संबंध उस समुदाय से है, जिसे अछूत कहते हैं? उन्होंने…’ हम सभी की नज़र में नीच ओर अछूत हैं इसलिए हम सारी उम्र भूख का शिकार रहे हैं, हम दूसरों का बचा-खुचा खाना और हड्डियां खाते हैं… हम मुसलमान होने के लिए तैयार हैं… तुझे मुसलमानों के देश में हमें ज़मीन देनी चाहिए ताकि अपने बाल-बच्चों को वहां बसा सकें…” तैमूर ने हिंदुस्तान वापसी से पहले नव मुस्लिम बने इन अछूतों को इस्लामी देशों और उन इलाकों में बसाया जहां मुस्लिम आबादी पहले से थी. इस्लामी शिक्षा के लिए आध्यात्मिक गुरुओं का प्रबंध करने के आदेश भी दिए. पुस्तक के अनुसार अमीर मुवाविया वह पहला शासक था जिसने भारत के लोगों को मुसलमान बनाने के लिए कदम उठाया.

तैमूर ने ईरान और भारत के वर्गीय चरित्र का भी बुद्धिमत्ता पूर्ण चित्रण किया है. ईरान के जिन अग्निपूजकों का इसमें ज़िक्र किया गया है वे भारत में आने के बाद पारसी कहलाए.

तैमूर हिंदुस्तान से लूट का माल लेकर जल्द से जल्द यहां से निकल गया.  उसने यहां पर हाथियों जैसे बड़े जानवर और सांपों आदि का पहली बार मुकाबला किया था. महामारी के  फैलने के कारण भी वह समय से पहले हिंदुस्तान छोड़ने के लिए मजबूर हुआ. विशाल भूगोल में फैले यहां के राजाओं के उस पर मिलकर हमला करने का डर भी उसके भीतर था. उसका मकसद यहां महज भारत का खजाना लूटना था और उसमें वह सफल हुआ.

हिंदुस्तान से वापस अपने मुल्क ऐश पहुंचने के बाद उसने अपने शहर के बाशिंदों के लिए बेहतरीन जीवन जीने की व्यवस्था की ओर इसको खूबसूरत बनाया. यहां उसने कई ऐसे महल बनाए जिनमें वह बड़े मुल्कों के शासकों को बुलाकर अपने शहर की शानोशौकत और चौड़ी सड़कों को दिखा सकें.

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मध्य एशिया में अपनी जीत का परचम लहराने के बाद उसने पश्चिम का रुख किया और ईरान दमिश्क, तुर्की, इस्तांबुल से आगे बढ़कर वह फ्रांस के आसपास तक पहुंचा. लेकिन उसका चीन पर आक्रमण करने का सपना पूरा नहीं हो सका .

‌इस शासक के युद्ध में किए गए जनसंहार के प्रति नफ़रत होने के बावजूद यह तो सच है कि तैमूर लंग काबिलाई समाज और उस वक्त का प्रतिनिधि है, जब युद्धों के बीच ही जीवन सुरक्षित था. लेकिन तैमूर की क्रूरता का विश्लेषण करते हुए मेरी आंखों में सभ्यता के लंबरदार साम्राज्यवादी मुल्कों की विस्तारवादी नीति आ खड़ी होती है. वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान से होते हुए लैटिन अमेरिका, सीरिया, यूक्रेन में कत्लेआम करते ये बाज़ार और हथियारों के व्यापारी अब फिलिस्तीन और गजा के बाशिंदों को ज़िंदा मौत दे रहे हैं. उनकी क्रूरता तो कई गुणा ज़्यादा है, जिसका अंत कहीं दिखता ही नहीं है. उनकी तथाकथित सभ्यता का प्रतिकार होना चाहिए.

‌इस पुस्तक से यह सीख तो मिलती है कि  कितने भी शक्तिशाली शासक हों आने वाली पीढ़ी अपनी नज़र और बोध से उसका मूल्यांकन करती है.

‌इस पठनीय कृति के संपादकीय में एक तथ्यात्मक गलती हो गई है कि तैमूर लंग भारत में 1498 में आया था, जबकि वह 1398 में भारत आया था.

यह ऐतिहासिक कृति उपयोगी और पठनीय है. क्योंकि यह तैमूर लंग के नकारात्मक किरदार के साथ ही उसके सकारात्मक व्यक्तित्व तथा कृतित्व और लेखन की कला से भी पाठकों को अवगत कराती है. (Autobiography Taimur Lang)

पुस्तक का नाम: आपबीती तैमूर लंग
मूल्य: 600 रुपए
प्रकाशक: संवाद प्रकाशन

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं और देहरादून में अधिवक्ता के तौर पर काम करती हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584

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Sudhir Kumar

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