दोबारा आंदोलन के लिए मजबूर हो रहे बीएचयू के छात्र

जिसे तुम लोकतंत्र कहते हो, इसमें न लोक है न तंत्र है
यह आदमी का आदमी के खिलाफ खुला षड़यंत्र है

आज धूमिल की ये पंक्तियां पूर्णतया सही सिद्ध हो रही हैं. देशभर के विश्वविद्यालयों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं. हमारी सरकार छात्रों को विश्वविद्यालय और उनके मायने से कोसों दूर करने में लगी है ताकि वो अपनी गद्दी बचायी रख सके. आज देश के तमाम विश्वविद्यालय जेएनयू, डीयू, बीएचयू, एचसीयू पर हमले बढ़ते ही जा रहे हैं. ऐसे में जब छात्र इन हमलों के खिलाफ लडने की हिम्मत करता है तो तथाकथित चुनी हुई ये सरकार विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ मिलकर उनके साथ कैसा रवैया अपनाती है इसकी बानगी आपको काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों के ऊपर हो रही दमनात्मक कार्रवाई से देखने को मिलती है.

पिछले साल सितंबर में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्राओं द्वारा किया गया एक बड़े आंदोलन तब से ही विश्वविद्यालय प्रशासन की आंखों में चुभ रहा था. उस दिन प्रधानमंत्री बनारस में ही थे और विश्वविद्यालय प्रशासन के लोग चाटुकारिता में व्यस्त थे.

लड़कियों के आंदोलन ने उनके सारे किए धरे पर पानी फेर दिया था जिसकी खीझ उनके अंदर थी. उस समय एक महिला ने चीफ प्राक्टर की कुर्सी संभाली थी जिनसे छात्र-छात्राओं को उम्मीद थी कि वो छात्राओं की भावनाओं को समझेंगी और उनके आंदोलन करने के कारण का समाधान करेंगी, लेकिन उन्होंने छात्राओं के आंदोलन को बदनाम करने के लिए झूठे और बेबुनियाद आरोप लगाए कि छात्राओं का आंदोलन प्रायोजित था और वहां पिज्जा और कोल्ड ड्रिंक्स ट्रक भर के आ रहे थे. जबकि हम वहां खुद उस आंदोलन का हिस्सा थे. हमने अपनी आंखों से देखा था कि छात्राएं दो दिनों तक भूखे-प्यासे वहीं जमी रहीं. हम छात्र उनके लिए पानी और आपस में पैसा इकट्ठा करके बिस्कुट ला रहे थे.

चीफ प्राक्टर द्वारा आंदोलन के खिलाफ लगाए गए बेबुनियाद और बेहूदा आरोपों का सबूत मांगने और उनसे मिलने गए छात्रों पर हत्या के प्रयास जैसे फर्जी आरोपों में फर्जी मुकदमा करा कर चीफ प्राक्टर महोदया ने अपनी प्रशासन के प्रति वफादारी तो दिखायी पर उन 12 छात्रों के भविष्य को उन्होंने बस इसलिए अंधकार में डाल दिया क्योंकि उन्होंने उनसे जवाब मांगने की हिमाकत की थी.

उन 12 छात्रों के खिलाफ एक्शन लेने के लिए बीएचयू प्रशासन द्वारा एक स्टैंडिंग कमेटी बनाई गई और उस कमेटी बतौर सदस्य वो चीफ प्राक्टर महोदया भी मौजूद थी जो न्याय के मौलिक सिद्धांत के ही खिलाफ है फिर हम उस कमेटी से न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

उस कमेटी ने उन छात्रों को डिबार का आदेश दिया. जब कमेटी के गठन पर ही सवाल है, जब आरोप लगाने वाला ही कमेटी का सदस्य है तो कोई कमेटी से न्याय की उम्मीद कैसे कर सकता है? इस तरीके से छात्रों के ऊपर हो रही दमनात्मक कार्रवाई से चीफ प्राक्टर महोदया के चरित्र का पता चलता है.

छात्राओं को डिबार कर दिया गया है, उनसे हास्टल खाली कराए जा रहे हैं, उनको कक्षाओं में जाने से रोका जा रहा है, उनके घर पर फोन करके धमकियां दी जा रही हैं. चारों ओर डर का वातावरण बनाया जा रहा है.

कहीं ऐसा न हो कि छात्र-छात्राओं का गुस्सा आंदोलन के रूप फिर से फूटे और इनका भी वही हाल हो जो इनके पहले वाले वीसी जीसी त्रिपाठी का हुआ था. वीसी साहब को बिना किसी दबाव के छात्र-छात्राओं के हितों को ध्यान में रखते हुए छात्रों के पक्ष में खड़े होना चाहिए ताकि विश्वविद्यालय के विकास में छात्र-छात्राएं उनके साथ कदम से कदम मिलाकर साथ काम कर सकें.

(मीडिया विजिल से साभार)

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