ललित मोहन रयाल

रामलीला से कुछ अनछुए प्रसंग

समग्र बेस्टसेलर की बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक रामचरित मानस अब तक की बेस्टसेलर किताब मानी जा सकती है. गोस्वामी जी का एक वृहद् पाठक वर्ग रहा है, जिसमें राजा-रंक, नर-नारी, आबालवृद्ध, जमींदार-हलवाहे-मजदूर, संक्षेप में सभी पढ़े-बेपढ़े शामिल रहे हैं. हालांकि कुछ लोगों का दृढ़ मत है कि, हनुमान चालीसा ऑलटाइम बेस्ट सेलर है. कारण चाहे कुछ भी हो. भक्ति-भाव अथवा डर-भय. पाठक अपनी प्रिय रचना को बिलकुल नहीं छोड़ते थे. सोते समय भी सिराहने के नीचे सेंतकर रखते थे. लेकिन इसमें भी एक पेंच है. दरअसल, हनुमान चालीसा, स्वतंत्र रचना नहीं है. यह रामचरित मानस का एक अंश ही तो है. कुछ आलोचक सुंदरकांड को उसका डीटेल वर्जन सिद्ध करते आए हैं.
(Anecdotes From Ramlila)

वैसे तो रामकथा कई प्रारुपों में लिखी गई है, लेकिन उसे घर-घर पहुँचाने का श्रेय निःसंदेह गोस्वामी जी को जाता है. इस कथा की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, किसी दौर में हलवाहे-घसियारे और ढ़ोर चराने वाले भी मजे में चौपाईयाँ गा लेते थे और गूढ़ प्रसंगों का निरूपण रखने की सामर्थ्य रखते थे.

तब मनोरंजन के साधन दुर्लभ थे . खरीफ और रबी सीजन के मध्यांतर में ग्राम्य-जीवन फुरसत में रहता था. यही समय रामलीला मंचन का आदर्श समय माना जाता था. उन दिनों रामलीला देखने का उत्साह देखते ही बनता था.

अधिकांश गाँवों में प्राइमरी स्कूल या मिडिल स्कूल के मैदान में रामलीला-मंच बनता था. सायंकाल रिहर्सल होती. अक्सर हेडमास्टर का कक्ष, रिहर्सल रुम बनता था, क्योंकि उस कमरे की खिड़कियों में दरवाजे अनिवार्य रूप से पाये जाते थे. रात होते ही लीला शुरु हो जाती. रोज एक का मंचन .

आयोजन स्थल तक पहुँचने में पगडण्डी, नहर-नाले या खेतों के बीच से गुजरना होता था. चाँदनी रात. ठंडी-ठंडी पुरवा हवा. गुनगुनी ठंड. दूरी के कारण अभिभावक, छोटे बच्चों को सहजता से अनुमति नहीं देते थे. बच्चे मचलते, रोते, जिद करते और पैर पटकते. बालहठ पर अड़ जाते. कभी-कभी अनुमति मिल जाती थी, लेकिन सहोदरों की उंगली पकड़े रखने की सख्त हिदायत के साथ.
(Anecdotes From Ramlila)

मंच परदे से ढँका रहता था. बच्चे, घर से आसन के लिए लाई गई बोरी पर आसन जमा लेते. तब विज्ञापन का दौर नहीं आया था, श्रीराम-आरती काफी देर तक चलती थी. वास्तविक मंचन, पौने नौ बजे के आसपास शुरू होता था. तबतक बच्चे आदतन, बालसुलभ नींद में होते और बोरे पर गहरी नींद में सो जाते. जब रावण-कुंभकर्ण या खर-दूषण अपने बल-वैभव के प्रदर्शन में अट्टहास करते, तो सोये हुए बच्चे चौंककर डर जाते. चौंककर जागने के कुछ अन्य प्रसंग इस तरह से होते थे- ताड़का-वध, सुबाहु-वध या दंडकवन के युद्ध-प्रसंग.

कोई ऋषि क्रोधावस्था में हो और शाप देने की भूमिका बना रहा हो. अथवा राजा-रानी के कर्कश विलाप के प्रसंग.

किशोरों के मन में हसरत बनी रहती थी कि, कोई खास भूमिका मिल जाए. नायक-खलचरित्र के पार्ट के लिए वे लंबी-लंबी आहें भरते. राम-लक्ष्मण को तो मीठी निगाहों से देखते थे. काश.. लेकिन लंबी-लंबी चौपाइयां याद रखना दुष्कर होता था तो रिहर्सल कष्टसाध्य.

जनक-दशरथ के पात्र होने के लिए अनुभव की जरूरत बताई जाती थी. पुराने बाबली बादशाहों की तरह बँटी हुई दाढ़ी, घुमावदार मूँछें हों तो फिर क्या कहना.

रावण-कुंभकर्ण-मेघनाद के लिए रोबीला-क्रूर चेहरा और वैसी ही आवाज़. दिग्बली राक्षस मिमियाते हुए बोलें, यह बात डायरेक्टर को सख्त नागवार गुजरती थी.

हनुमान-सुग्रीव-अंगद के लिए अच्छी कद-काठी, डील-डौल की जरूरत पड़ती थी. हनुमानजी को तो कई प्रसंगों में राम-लक्ष्मण दोनों को एकसाथ, अपने कंधों पर सवार कराना होता था.

किशोर लड़के डायरेक्टर से लड़ने-मरने पर आमादा हो जाते. जबतक रोल न देता, डेरा डाले रहते. उसके सिर पर सवार रहते.

ऋक्षराज जामवंत बनने अथवा भल्लूक सेना में भर्ती होने के लिए कॉस्ट्यूम्स की इल्लत पड़ती थी.

शेष बचती थी- वानर सेना और राक्षसी सेना.

थोड़ी सी जिद करने पर वानर-सेना में आसानी से काम मिल जाता था. क्योंकि वानर-सेना की कोई सीमित संख्या तो होती नहीं थी. दस की जगह बीस भर्ती कर लो. कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. सिंगार-पिटार भी काम भर का. ऊपर का कपड़ा उतारकर, चड्ढी के पीछे पेड़ की टहनी खोंस लो. मुँह पर ‘फ्रेंच कट’ वाले हिस्से में लाल रंग पोत दो. जितनी देर मंच पर रहो, मुँह फुलाये रखो. स्वभावगत हरकतें करते रहो.
(Anecdotes From Ramlila)

इसी तरह राक्षसी-सेना में भी काफी अवसर उपलब्ध रहते थे. राक्षस अगणित हो सकते थे. मायावी शक्ति दिखाने के अपार अवसर. दो-चार दिन कंघा मत करो. अगर रोज करते हों तो बाल बिखरा लो. काला कुर्ता-पैजामा. दीदी की काले रंग की ओढ़नी से काम चल जाता था. उसे अंगवस्त्र की तरह कंधों पर फहराते रहो. मुख पर कोयला पोतो और राक्षस तैयार. इसमें यह भी सुविधा रहती थी कि, बिना मुँह धोये, इंद्र पर जा चढ़ो और स्वर्ग की ड्योढ़ी से देवराज को ललकारते रहो.

राजा जनक के हलयज्ञ में भी लड़कों के लिए दो रोल विशेष रूप से तय रहते थे, बैल बनने के. लेकिन इसके लिए वे ही लड़के फिट रहते थे, जो धैर्यवान और सहनशील हों. पूरे अंक के दौरान उकड़ूँ होकर बैठना होता था. जब राजा हल चलाता तो घुटनों के बल चलकर, मंच की दो-चार परिक्रमा भी करनी होती थी.

सीता-स्वयंवर में भाग लेने वाले राजाओं के रोल भी सहजप्राप्य थे. अगणित, अनजाने से राजे महाराजे. कभी-कभी तो किरदार को अपने राज्य का नाम तक मालूम नहीं होता था. जरूरत ही नहीं समझी जाती थी. चमकीले सलमा सितारों वाली ‘रंगील-चंगील’ ड्रेस और सिर पर स्वर्ण किरीट. इतना काफी मान लिया जाता था. शारीरिक अभिनय पर विशेष बल रहता था. डायरेक्टर की सख्त हिदायत रहती, “खबरदार. शिव-धनुष को छूना मत. उससे पहले ही, चमकीली रोशनी और डरावने साउंड इफेक्ट्स की ओट में डरते रहना. हड़बड़ाना. फिर हाँफते हुए धड़ाम से गिर पड़ना. फिर मुँह लटकाए वहाँ से निकल लेना.”

धनुर्यज्ञ के पश्चात् लक्ष्मण-परशुराम संवाद चल रहा था. संवाद चरम पर था और परशुराम जी क्रोधावस्था में थे. हाथ में कुठार लिए, हाथ चमका-चमकाकर लक्ष्मण की क्लास ले रहे थे. लाइट-इफेक्ट्स की वजह से उनके हाथ की गोल्डेन घड़ी चमाचम चमकने लगी. घड़ी एचएमटी की और बड़े डायल की थी. शायद ग्रीन रुम में उतारना भूल गए थे. तभी एक मनचले दर्शक ने चीखकर पूछा, “परशुराम जी टैम क्या हो रा.” यह सवाल सुनकर भगवान परशुराम को सचमुच का क्रोध आ गया. उन्होंने अपना कुठार लक्ष्मण के बजाय, दर्शक पर फेंक मारा. दर्शक सिर पर पैर रखकर भागा.

शुक-सारण रावण के गुप्तचर थे. इस खेमे में जासूसी करने आए हुए थे. जो किरदार इस भूमिका में थे, वे पूर्णकालिक विदूषक थे और अंशकालिक गुप्तचर. कभी-कभी वे मर्यादा पुरुषोत्तम से भी मजाक कर बैठते, आदत से मजबूर थे. भूल जाते थे कि, आज वे रावण के विशेष गुप्तचर की भूमिका में हैं. उस दिन राम ने भीषण संग्राम किया. सेनापति सहित सारी सेना का संहार कर डाला. राम यह देखकर चकित रह गए कि एक गुप्तचर(विदूषक) अभी भी जीवित था. स्क्रिप्ट में तो ऐसा था ही नहीं. इधर वह मार्शल आर्ट के कौशल से तलवार भाँज रहा था. वह लगातार चकमा देने की कोशिश में लगा रहा. फलस्वरूप ‘भगवान’ को उसे विशेष परिश्रम करके मारना पड़ा.

‘कुंभकर्ण’ बड़े सयाने और अनुभवी आदमी थे. उस दिन शायद उनके घर उनके समधी आये हुए थे. साढ़े आठ बजे वे खाना खाकर अपना पार्ट खेलने के लिए घर से निकले.

शायद समधी के साथ ‘गिलास टकराके’ निकले थे. डायरेक्टर जानकर भी अनजान बना रहा. बरजा तक नहीं. तामसिक भोजन तो असुर-समाज का स्वाभाविक भोजन माना जाता था. हाँ, देव-समाज के लिए इस तरह के आचरण की सख्त मनाही थी. रामलीला में कुंभकर्ण-वध का सेमीफाइनल जैसा माहात्म्य रहता था. तो सोये हुए कुंभकर्ण को जगाया जाने लगा. नगाड़े-तुरही-रणभेरी की कर्कश आवाज. कुंभकर्ण पटखाट पर चित लेटे हुए थे. ‘खानपान’ के प्रभाव में आकर वे सचमुच सो गए. बहुत यत्न करने पर भी जागने का नाम न लें. उधर युद्धभूमि में सेनायें सज चुकी थीं. मोर्चा बँधा हुआ था. विवश होकर अनुचरों ने उन्हें पटखाट से नीचे ढ़केल दिया. वह ‘शिड्यूल’ से बीस मिनट देर से उठे. खैर किसी तरह युद्ध शुरू हो गया. संवाद, चौपाई के मार्फत बोले जा रहे थे. डायरेक्टर ने फुसफुसाहट में कहा, “कुंभकर्ण, अरे यार, सुन तो सही. भौत टैम हो ग्या. अब तू मर जा.” इस गोपनीय संदेश को कुंभकर्ण के सिवा, सारी की सारी ऑडिएंश ने सुना. कुंभकर्ण तन्मय होकर चौपाई गाने में मशगूल थे. तरंग में थे, इसलिए किरदार में बुरी तरह घुसे हुए थे. डायरेक्टर ने फिर से बरजा. उधर राम आयुध चढ़ा चुके थे. डायरेक्टर चौथी बार खीझकर बोला, “यार, अब तो गंधक-पोटाश पे भी आग लग गई. अब तो मर. कसम से, अगर तू फौरन नहीं मरा तो भौत गड़बड़ होने वाली है.” दैवयोग से यह संकेत ऑडिएंश के अलावा कुंभकर्ण ने भी सुना. तमककर बोला, “अभी कैसे मर जाऊँ. हुँह्. अभी तो चौपाई चल रही है. उसके बाद मुझे ‘राधेश्याम’ भी तो करना है.” लीला ऑलरेडी एक घंटा लेट चल रही थी. दर्शकों के सब्र का बाँध टूटने लगा. फिर क्या था. दर्शकों ने देर न की और कुंभकर्ण पर चढ़ बैठे.
(Anecdotes From Ramlila)

युद्ध समाप्त हो चुका था. रामचंद्र जी के दरबार का मंचन होना था. सीता का किरदार निभाने वाला लड़का अपनी बहन को ससुराल पहुँचाने गया. वापसी में बस खराब हो गई. तय समय बीतने पर भी वह न पहुँचा तो इधर चिंता सताने लगी. अब क्या हो. आननफानन में एक चरवाहे लड़के(जो नेपाली मूल का था) को पकड़ा गया. लड़का गोरी-चिट्टी रंगत का था. फौरन उसका मेकअप-कॉस्ट्यूम तैयार किया गया. आज संवाद तो बोलने को थे नहीं. सिंहासन पर अभय-मुद्रा में हाथ उठाये, आशीर्वाद लुटाने की मुद्रा में ही बैठना था. तो दरबार सजा हुआ था. राम-सीता. लक्ष्मण-हनुमान, वानर दल के प्रमुख वीर. सीता दर्शकों से थोड़ा ओट में पड़ रही थी. लड़के को शायद तलब लगी. उसने मौके का फायदा उठाया और गर्दन तिरछी करके वह घूँघट की ओट में सुट्टा खींचने लगा. यह कारोबार कुछ दर्शकों की निगाह से न बच सका. उनकी भावनाएँ आहत होकर रह गई.

राज्याभिषेक हो चुका था. राम-रावण का अभिनय करने वालों के खेत आसपास पड़ते थे. गेहूँ की बुवाई चल रही थी. दोनों जने अपने-अपने खेतों में हल जोत रहे थे. बैलों की पूँछ उमेठते हुए उनको प्रोत्साहित करते जा रहे थे. तभी एक अद्भुत दृश्य दिखाई दिया. ‘राम’ मेड़-मेड़ भाग रहे थे. फुल स्पीड पकड़ी हुई थी. पीछे-पीछे ‘रावण’, बेंत लपलपाते हुए. काफी गुस्से में था. आगे वाला धावन-मुद्रा में था. मुड़-मुड़कर सफाई भी पेश करता जा रहा था,”मैं तेरी भौत इज्ज़त करता हूँ … कसम से … बड़ा भाई मानता हूँ तुम्हें … वो तो नाटक था भाई … दिल में मत रख …” इतनी समझाइश के बाद भी कोई न रूका. बड़े किरदार की ओट में शायद कोई निजी हसरत भी पूरी कर ली गई थी. जिससे बैरी आहत था. बात उसके मर्म पर लगी हुई थी. आज सांसारिक जगत में किसी बात पर फिर से दोनों में अनबन हुई लगती थी. फिर क्या था, स्पर्धा का सिलसिला चल निकला.
(Anecdotes From Ramlila)

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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