भमोरा, कॉर्नस कैपिटाटा (Cornus Capitata)
उत्तराखंड के कुमाऊँ की पहाड़ियों में खिला अद्भुत फूल बहुत से प्राकृतिक रहस्यों को छुपाए है, ये बहुत सारी कहानियां भी कहता है मानव इतिहास की. इस फूल के बहाने बहुत कुछ कहने मंशा है. पण्डित जवाहरलाल नेहरू इंदिरा जी को पत्र लिखकर कहते हैं कि अल्मोड़ा कुमाऊं में अगर तुम राजीव को लेकर आ रही हो तो कुल्लू हिमाचल जाने से यहां आना सही निर्णय है. साथ ही मशविरा कि जब मैं 9 वर्ष की उम्र का था तब हमने हिमालय के कुमाऊँ को देखा और घूमा है. तुम लोग राजमार्गों के बजाए अगर कुमाऊँ के जंगली रास्तों से आओ, मोटर के बजाए पैदल और घोड़ों पर, तो यहां की प्रकृति, यहां की संस्कृति करीने से देख सकोगे.
पण्डित नेहरू को कुमाऊँ और गढ़वाल से बहुत प्रेम था वह कहते थे कि दुनिया भर के पहाड़ों से हमारा कुमाऊँ और गढ़वाल सुंदर और बेहतर है और इन कुमाऊँ और गढ़वाल के पर्वतों और पर्वतीय संस्कृति और प्रकृति के बिना हिंदुस्तान अधूरा है. पण्डित जी अक्सर रामगढ़ अल्मोड़ा आदि जगहों पर ठहरते थे. अल्मोड़ा में राजनैतिक बंदी के तौर पर उन्होंने बहुत वक्त गुजारा. लेकिन अल्मोड़ा व नैनीताल जनपद के मध्य की सुरम्य वादियों का वर्णन उन्होंने खूब किया है. एक इतिहासकार, लेखक, सोशल रिफ़ार्मर, राजनैतिक व्यक्तित्व वाले जवाहर लाल नेहरू की नज़र से कुमाऊँ के जंगलों और वहां की संस्कृति को देखना अपने आप में महत्वपूर्ण है.
पण्डित नेहरू का ज़िक्र इसलिये कि यह वनस्पति उस जगह मिली जहां पण्डित नेहरू अक्सर ठहरते थे, रामगढ़ जिला नैनीताल और अल्मोड़ा जनपद के इलाकों में. इस इलाके को फलों का कटोरा भी कहते हैं.
उन चार सफेद पंखुड़ियों वाले पुष्प को देखकर मेरी आँखें चमक उठी, जिनके मध्य में मानो किसी महारानी का ताज हो. पुंकेशर की बनावट हूबहू इंग्लैंड की महारानी के ताज से मेल खाती थी. हम रुके इस झाड़ीनुमा वृक्ष के पुष्पों की तस्वीरें ली, जिनकी पत्तियां चौड़ी व गाढ़ी हरी, आसपास में देवदार, काफ़ल, नासपाती, के वृक्ष और बांज के जंगल.
जब मुलाकात हुई इस पुष्प से तो जिज्ञासा ने अपने चरमोत्कर्ष पर आकर मुझे झकझोर दिया. ये जनाब हिमालयन डागवुड थे, जिन्हें फ्लावरिंग डागवुड चाइनीज डागवुड आदि नामों से जाना जाता है. पहाड़ी बोली में इसे भमोरा या भमोर कहते है, इसका फल सुर्ख लाल व स्ट्राबेरी जैसा होता है, इसलिए इसे हिमालयन स्ट्राबेरी, या डागवुड स्ट्राबेरी कहते हैं. केले जैसा स्वाद, पीले गूदे वाले खुशबूदार इस फल से परिचय न हो सका क्योंकि यह वनस्पति जून के महीने में अभी पुष्पन की अवस्था मे थी. फलों से मुलाकात के लिए इसके पास अक्टूबर-नवंबर में जाना होगा, तभी इसके पके लाल रंग के बेहतरीन फ़ल मयस्सर होंगे. इन फलों को स्थानीय लोग खूब पसंद करते हैं, पर्यटकों को भी नसीब हो सकते हैं अगर वह अक्टूबर के महीने में इन राहों से गुजरे.
यह हिमालयी डागवुड यानी भमोरा हमारी स्थानीय वनस्पति है किन्तु दुनिया भर में चाइनीज डागवुड नाम से प्रसिद्ध है. तिब्बत, नेपाल भूटान आदि क्षेत्रों में यह प्राकृतिक रूप से पाई जाती है, चुकी चाइना भी हिमालयी क्षेत्र का हिस्सा है सो वहां भी भमोरा मौजूद है. पर वैश्विक पटल पर कागज़, तीर कमान सभी के अविष्कारों पर हक़ जमाता चीन विकिपीडिया पर खुद की थाती बताता है और यह डागवुड भी चीन की कब्जेदारी के प्रभाव में है.
बात भमोरा की हो रही है, इसका खूबसूरत सफेद पुष्प दुनिया के लोगों को इतना रास आया कि योरोप में इसे पवित्र वृक्ष माना गया. इसके चार पंखुड़ी वाले पुष्प जो पवित्र क्रॉस के प्रतीक के तौर पर माने जाते है. इसकी लकड़ी में और पत्तियों में टेनिन की मात्रा का आधिक्य होता है. इसकी लकड़ी जलौनी व कृषि यंत्रों के बनाने में काम आती है. दुनिया भर में इस चार पंखुड़ी वाले भमोरा की तमाम किस्में है, रंग-बिरंगी, गुलाबी, बैगनी छींटदार भमोरा न्यूजीलैंड अमरीका व ऑस्ट्रेलिया में भी लोगों द्वारा ले जाया गया. लेकिन भारत के कुमाऊं में ही भमोरा बहुत प्रासंगिक नहीं रहा. जबकि इसके फूलों व फलों के माध्यम से पर्यटन को बढ़ावा मिल सकता है. यह पहाड़ियों के क्षरण को रोकने व हरा-भरा रखने की कूबत भी रखता है.
भारतवर्ष के कुमाऊं में इस वनस्पति का अध्ययन सर्वप्रथम विलायती सरकार में हुआ, फॉरेस्ट फ़्लोरा फ़ॉर कुमाऊं पुस्तक में, भमोरा का ज़िक्र मिलता है और इसकी अन्य चार प्रजातियों का भी, जो हिमालयी क्षेत्र के गढ़वाल व कुमाऊँ में पाई जाती हैं.
फ़्लोरा ऑफ कुमाऊँ की बात करें तो अंग्रेज अफसर एटकिंसन ने शुरूआती दौर में पहाड़ की वनस्पतियों का अध्ययन किया. काफी समय बाद एक अंग्रेज अफसर को नए सिरे से यह काम सौंपा गया. इस अंग्रेज अफसर का नाम था, ए. ई. ओस्मास्टों ये कुमाऊँ के कंजरवेटर ऑफ फारेस्ट थे. 1927 में प्रकाशित किताब फारेस्ट फ़्लोरा फ़ॉर कुमाऊँ में इन्होंने इसके बारे में लिखा. कॉर्नस कैपिटाटा यानी हमारा हिमालयी कुमाऊँ का यह भमोरा कार्नेसी परिवार का यह सदस्य दुनिया में अपने पुष्प की सुंदरता के कारण माउंटेन मून की उपमा से भी अलंकृत है.
लखीमपुर खीरी के मैनहन गांव के निवासी कृष्ण कुमार मिश्र लेखक, फोटोग्राफर और पर्यावरणविद हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहने वाले कृष्ण कुमार दुधवालाइव पत्रिका के संपादक भी हैं. लेखन और सामाजिक कार्यों के लिए पुरस्कृत होते रहे हैं.
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