संस्कृति

‘बेड़ू पाको बारामासा’ लोकगीत पर एक विमर्श

लोक के क्षितिज से उपजा और अन्तर्राष्ट्रीय फलक तक अपनी धमक पहुंचाने वाला कुमाऊॅ के सुपर-डूपर लोकगीत ‘बेड़ू पाको बारामासा’ से भला कौन अपरिचित है. गीत का मुखड़ा किसने लिखा और कब से यह लोकजीवन का हिस्सा बना इसकी कोई जानकारी नहीं है. लेकिन मुखड़े के साथ अन्तरा जोड़कर जो इसे लोकजीवन में परोसा गया उसकी भी एक दिलचस्प कहानी है.
(Bedu Pako Baramasa Meaning)

बताते हैं कि प्रख्यात रंगकर्मी मोहन उप्रेती कभी अल्मोड़ा में जाखनदेवी के पास उदेसिंह (उद्दा) की चाय की दुकान पर गीत का मुखड़ा गुन-गुना रहे थे. संयोगवश उसी समय वहॉ से गुजरते हुए मोहन उप्रेती ने अपने मित्र बी.एम. साह जो ख़ुद भी एक रंगकर्मी, कवि व लेखक थे, उन्हें अपने पास बुला लिया और गीत को पूरा करने का आग्रह किया. उस समय उनके पास कलम-कागज कुछ भी नहीं था. सामने पड़े सिगरेट के डिब्बे के खोखे को फाड़कर और दुकानदार उद्दा से उनके हिसाब लिखने की पेंसिल मांगकर पारम्परिक लोकगीत के मुखड़े के साथ अन्तरा जोड़ते गये. बी.एम.साह ने गीत के बोलों में कुछ अपनी पंक्तियां जोड़ी तथा कुछ कुमाऊनी कवि चन्द्रलाल वर्मा की न्योली से सम्मिलित कर इसे पूरा किया.

पारम्परिक धीमी गति के लोकगीत को मोहन उप्रेती ने द्रुतगति में संगीतबद्ध किया और इस प्रकार इस कालजयी गीत ने जन्म लिया. सर्वप्रथम इसे 1952 में राजकीय इन्टर कालेज नैनीताल में गाया गया जिसे श्रोताओं का अपार समर्थन प्राप्त हुआ. इसी से प्रोत्साहित व प्रेरित होकर 1955  में जब रूस के दो शीर्ष नेता ख्रुश्चेव व बुल्गानिन भारत आये तो तीनमूर्ति भवन के अन्तर्राष्ट्रीय समारोह में यह गीत गाया गया जो तत्कालीन प्रधानमंत्री को बहुत पसन्द आया. पं. नेहरू द्वारा मोहन उप्रेती को ’बेडू पाको ब्वॉय’ नाम दिया गया तथा इस गीत के एचएमवी रिकार्ड सम्मेलन में अतिथियों को भेंट स्वरूप प्रदान किये गये. इस तरह गीत को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली.

यद्यपि यह कुमाऊनी लोकगीत था लेकिन कुमाऊॅ के साथ ही गढ़वाल यहॉ तक कि हिमांचल प्रदेश में भी उसी रूचि के साथ गाया जाने लगा. लोकगायक स्व. गोपालबाबू गोस्वामी के सुरीले कण्ठ ने जब इसे स्वर दिया  तो यह अपनी लोकप्रियता की बुलन्दियों पर पहुंच गया. आज केवल उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि पूरे देश, यहां तक की अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भी यह उत्तराखण्ड की पहचान बन चुका है.
(Bedu Pako Baramasa Meaning)

ये तो रही – लोकगीत की पृष्ठभूमि की चर्चा. श्रोता को जब कोई गीत कर्णप्रिय लगता है तो वह उसकी सुर, ताल और लय पर ही अपनी सुध-बुध खो बैठता है और गीत के बोलों में प्रयुक्त शब्द व उसके निहितार्थ की ओर इसलिए भी नहीं सोचता कि रचनाकार ने जो भी शब्द गढ़े होंगे वे सोच समझकर ही लिये गये होंगे, उनका यह सोचना उचित भी है. च्यूंकि यह परम्परागत लोकगीत जिस पीढ़ी दर पीढ़ी केवल वाचिक एवं श्रुति परम्परा पर आगे बढ़ते रहे, जिनको आज की तरह लिपिबद्ध नहीं किया गया था, शब्दों में मामूली हेर-फेर स्वाभाविक है. पारम्परिक लोकगीत के जो बोल श्रोता ने जिस रूप में सुने व समझे उसी रूप में लोक में प्रचलित होते चले गये.

इस लोकगीत के पारम्परिक मुखड़े में कहा गया है – बेड़ू पाको बारामासा. हर कोई उत्तराखण्डी जो ग्रामीण परिवेश से ताल्लुक रखता है इतना तो अवश्य जानता है कि बेड़ू एक बारहमासा फल नहीं है, यह केवल बरसात में ही पकता है. जबकि काफल के चैत महीने में पकने की बात तब भी सच्चाई के करीब तो मानी ही जा सकती है लेकिन पारम्परिक लोकगीत है तो हम इसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं. जहॉ तक मैंने कहीं पढ़ा है कि इस गीत के मुखड़े- बेड़ू पाको बारमासा, के बोलों का तार्किक विश्लेषण कर सर्वप्रथम दुदबोली के संरक्षक व कुमाऊनी लोकभाषा के मर्मज्ञ स्व. मथुरादत्त मठपाल ने एक नया नजरिया दिया जो सोचने को बरबस मजबूर करता है .

कुमाऊनी लोकभाषा में ’बार्’ ( र का हृस्व रूप ) का शब्दिक अर्थ वर्जना अथवा परहेज के रूप में किया जाता है. किसी खाद्य पदार्थ का स्वास्थ्य अथवा परम्परा के अनुपालन में जब हम प्रयोग करते हैं तो अक्सर कहा जाता है कि अमुक वस्तु का मैंने बार् (परहेज) कर रखा है. इसी तरह नव व्याहता के लिए चैत, भादो तथा पौष माह बार् (वर्जना) की लोकपरम्परा है इन्हें काला महिना कहा जाता है और लोकमान्यता के अनुसार नवब्याहता औरतें विवाह के बाद पहली बार इन महीनों में ससुराल से पूरे महीने अथवा कम से कम कुछ दिन के लिए मायके आ जाती है. इस प्रकार चैत, भादो और पौष बार् (वर्जित) माह हुए.

स्व0 मथुरादत्त मठपाल जी ने इसी सूत्र को लेकर तर्क दिया है कि बेडू पाको बारमासा जिसका मुखड़ा पारम्परिक है और इसके रचनाकार का नाम तक ज्ञात नहीं, उसमें ‘बार् मासा’ का आशय भादो के महीने से रहा होगा. तार्किक आधार पर देखा जाय तो उनका यह सोचना इस अर्थ में सही प्रतीत होता है कि वास्तव में बेड़ू का फल भादो माह में ही पकता है. यद्यपि रचनाकार बेड़ू पाको भादो मासा भी कहता तो भी गीत के सुनने में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता लेकिन रचनाकार ने बात को सीधे न कहते हुए एक ट्विस्ट देकर गीत का सौन्दर्य बढ़ाने की मनसा से ऐसा किया हो.
(Bedu Pako Baramasa Meaning)

जाहिर है कि जिसने भी सर्वप्रथम ये पंक्तियां गुनगुनाई होंगी, उसे इतना तो अवश्य ज्ञात होगा कि बेड़ू कब पकता है? फिर क्यों भला वह असंगत बात गीत में शामिल करता? एक ऐसा लोकगीत जो उत्तराखण्ड की पहचान और प्रतिनिधि लोकगीत बन चुका हो, उस पर इस तरह की छेड़खानी करना उचित तो नहीं लगता, लेकिन जब कोई ये सवाल करें कि बेड़ू तो बारहों मास नहीं पकता, तब हमारे पास क्या उत्तर होगा? हम ’बेड़ू पाको बारामासा’ कहें या ’ बेड़ू पाको बार् (र का हृस्व उच्चारण) मासा’ श्रोता को तनिक आभास भी नहीं होगा और लोकगीत के बोल भी तर्कसंगत हो जायेंगे.

आज यह लोकगीत कुमाऊॅ व गढ़वाल दोनों अंचलों में समान रूप से गाया जाता है, इसके कई रीमिक्स भी आ चुके . कुमाऊॅ के अलावा गढ़वाल क्षेत्र में भी इसे उसी उत्सांह से गाया जाना इसे कुमाऊनी लोकगीत न कहकर उत्तराखण्डी लोकगीत कहना ज्यादा उचित होगा. रीमिक्स गीत में गीत का मुखड़ा तो वही लिया गया है जो स्व. मोहन उप्रेती के गीत में है लेकिन अन्तरा में शब्दों में आशिंक परिवर्तन देखा जाता है. गीत के अन्तरा में पिछले 70 साल के अन्तराल में यदि इस तरह शब्दों का हेरफेर संभव है तो क्या यह इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि लोकपरम्परा से चले आ रहे गीत के मुखड़े ’बेड़ू पाको बार् मासा’ में भी बदलाव हो सकता है. यदि गोपाल बाबू गोस्वामी द्वारा गाया गया बेडू पाको बारामासा गीत, स्व. ब्रजेन्द्र लाल साह का मौलिक गीत माना जाय और जो गीत के बोलों के हिसाब से भी ज्यादा तर्कसंगत प्रतीत होता है, तो  इन सभी रीमिक्स गीतों में कितना बदलाव हुआ है गौर करें.

गोपाल बाबू गोस्वामी द्वारा गाये गये मूल गीत की पंक्तियां कुछ इस तरह हैं- रूणा भूणा दिन आया, नरैण को जां मेरो मैता… जबकि कुछ दूसरे गीतों में ये पंक्तियां कुछ इस प्रकार गायी गयी हैं- भूणा भूणा दिन आयो, नरण बुझ मेरो मैता…             

इसी तरह एक अन्तरा मूल में कुछ इस तरह का है- अल्मोड़ा की लाल बजारा, नरैणा पाथर की सीढ़ी मेरी छैला… रीमिक्स गीतों में इन बोलों को कुछ इस तरह गाया गया है- अल्मोड़ा की लाल बजारा, नरैणा लाल मटा की सीढ़ी मेरी छैला…
(Bedu Pako Baramasa Meaning)

सच तो ये है कि भूणा-भूणा कोई कुमाऊनी शब्द नहीं है जबकि रूणा-भूणा रूखे अथवा उदासी पूर्ण दिन का अर्थ रखते हैं अथवा दूसरे अर्थ में रूणा (रूड़ा) भूणा (बूंणा ) अर्थात गर्मियों के फसल बोने के दिन आ गये हैं, यानि समय का अभाव है,ऐसे में मेरे मायके कौन जायेगा? संभवतः ’को जां’ शब्द की ध्वनि ’बुझ’ सुनाई पड़ी हो और रीमिक्स में इसे इसी रूप में अपना लिया गया हो.

इसीलिए ’बुझ’ शब्द से गीत की पंक्ति के प्रथम वाक्यांश से दूसरे वाक्यांश के बीच भावों का सामंजस्य नहीं बैठता. जाहिर है कि अल्मोड़ा में पाथर की सीढ़ियां है न कि लाल मिट्टी की. इस कारण भी रीमिक्स के बोल- लाल मटा की सीढ़ी, मूल गीत के बोल प्रतीत नहीं होते. सच तो यह है कि इस गीत की मंत्रमुग्ध कर देने वाली धुन ही कुछ ऐसी है कि गीत के शब्दों की बारीकी तक श्रोता का ध्यान ही नहीं जाता. लोक परम्परा में जो गीत गाया जा रहा है उस पर कोई विवाद पैदा करना इसका मकसद नहीं लेकिन अगर किसी ने सवाल कर दिया कि बेड़ू तो बारह मास नहीं पकता तो हमारे पास तर्कपूर्ण जवाब भी तो होना ही चाहिये.
(Bedu Pako Baramasa Meaning)

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

इसे भी पढ़ें: पहाड़ी लोकजीवन को जानने-समझने की बेहतरीन पुस्तक: मेरी यादों का पहाड़

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