Featured

आध मुन्स्यार+आध चिकसैरेदा = पुर संसार

आज समझ में आ रहा है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इतिहास को विधाता क्यों कहा होगा? हमारा यह विधाता क्या हमारी तरह का देहधारी है या अपरिभाषेय शक्ति-पुंज, जिसे रच लेने के बाद समझ पाना शायद खुद उसके ही वश में नहीं रहता. यह तो तय है कि अपने द्वारा निर्मित इस चेतना-मंडल को आकार देने के बाद वह किसी और की दखलंदाजी सहन नहीं करता, किसी दूसरे को उसे छूने तक नहीं देना चाहता. उसी एक अधूरी रचना की दर्दभरी बानगी है यह.
(Article by Batrohi September 2021)

एक: मुनस्यारी के आईएएस रघुनन्दन सिंह टोलिया की मदद से आयोजित एक ऐतिहासिक साहित्य-समारोह

6 अप्रैल, 1996 को नैनीताल के रामगढ़ में एक अभूतपूर्व साहित्यिक जलसा हुआ था. आधुनिक हिंदी की पहली उल्लेखनीय कवयित्री महादेवी वर्मा की याद में उनके घर पर देश भर के रचनाकार एकत्र हुए थे. मौका था उनके रामगढ़ के घर ‘मीरा कुटीर’ को एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित करना. मेरे सहपाठी रहे रघुनन्दन सिंह टोलिया उन दिनों कुमाऊँ-कमिश्नर थे और आयोजन के अतिथियों को उन्होंने प्रदेश के नौकरशाहों के प्रशिक्षण-केंद्र (जिसे आज उन्हीं के नाम से जाना जाता है) में ठहराया था. उस अवसर पर खींची गई इस फोटो में स्थानीय साहित्यकारों के साथ हिंदी के शीर्षस्थ कथाकार निर्मल वर्मा, कवि-विचारक अशोक वाजपेयी, कवयित्री गगन गिल, कवि अजित कुमार के अलावा हमारे प्यारे वीरेन डंगवाल, मधु नयाल, राजी सेठ, गोविन्द सिंह, अनुजा भट्ट, दिवा भट्ट, राजीवलोचन साह के साथ दांये से चौथे वीरेन के बगल में टोलियाजी खड़े दिखाई दे रहे हैं. मीरा कुटीर के प्रांगण में खीची गई यह फोटो आज बहुत से अनुत्तरित सवाल पैदा करती है जो उनकी अनुपस्थिति में आज भी उस परिसर में गूँज रहे हैं.

उन्हीं दिनों कभी मैंने टोलियाजी से कहा था कि मेरी हार्दिक इच्छा है, भारत के रचनाकारों का एक जीवंत समागम मैं अपने इलाके के सबसे खूबसूरत शिखर ‘खलिया टॉप’ में करना चाहता हूँ. उन्होंने वायदा किया था कि अतिथियों के ठहरने और आतिथ्य की व्यवस्था वो मुनस्यारी में करवा देंगे और यह आयोजन उनके-हमारे लिए ही नहीं, समूचे भारतवासियों के लिए एक यादगार स्मृति के रूप में इतिहास में दर्ज होगा. आज लगता है, हमारी कल्पना का वह आयोजन तो अतीत में कहीं गुम हो गया है, 6 अप्रैल, 1996 को उदघाटित यह साक्षात् आयोजन भी इतिहास के धुंधलके में मानो खो गया है. इनमें से ज्यादातर लोग आज न केवल जीवित हैं, ऐसी स्थिति में हैं कि उनकी बातों को नज़र-अंदाज़ कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है. क्या वजह है कि इसके बावजूद महादेवी का घर आज अकेलेपन के दंश झेल रहा है?

महादेवी संग्रहालय में अनेक हिंदी रचनाकार

दो: दुनिया के सबसे खुबसूरत पहाड़ी शिखर Csíkszereda (चिकसैरेदा) में भारतविदों का अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार

18 सितम्बर, 1998 को सुबह नौ बजे हम चार लोग – मैं, हंगरी में हिंदी का शोध छात्र चाबा दैज़ो, बौद्ध विद्यालय में संस्कृत का अध्यापक तिबोर और उसका चार साल का बच्चा बुदापैश्त के उत्तरी रेलवे स्टेशन से रूमानियाँ के पहाड़ी शहर चिकसैरेदा के लिए रवाना हुए.
(Article by Batrohi September 2021)

चाबा ने कल बताया था कि रेल न्युगाती पायोदवार (उत्तरी स्टेशन) से जाएगी इसलिए हम लोग वहां ठीक समय पर पहुंचे लेकिन वहां जाने पर पता चला कि गाड़ी कैलेती पायोदवार (पूर्वी स्टेशन) से जाएगी इसलिए दौड़े-दौड़े वहां गए. चाबा और तिबोर ने मिलकर चारों के लिए रिटर्न टिकट की व्यवस्था की और ठीक नौ बजे हम लोगों की गाड़ी कोलोश्वार के लिए रवाना हुई.

हंगरी से सटे देश रोमानियाँ के ठीक मध्य भाग का वन-बहुल इलाका त्रान्सिलवानियाँ पूरी दुनिया में अपने घने जंगलों, प्राचीन संग्रहालयों और मशहूर चर्चों के लिए जाना जाता है. कोलोश्वार मैदानी और पहाड़ी सीमारेखा पर बसा हुआ एक खूबसूरत शहर है, जहाँ से रेल-यात्रा ख़त्म होकर बस की यात्रा शुरू हो जाती है. कोलोश्वार की भौगोलिक स्थिति ठीक वही है जो कुमाऊँ में हल्द्वानी-काठगोदाम की है. रास्ते भर हम लोग हंगरी के विशाल कृषि फार्मों से गुजरते हुए सामुदायिक कृषि के बीच लहलहाती पकी फसलों का आनंद लेते हुए धीरे-धीरे पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने लगे.

बीच-बीच में जंगल और छिटपुट पहाड़ भी हमारी अगवानी करते जा रहे थे; निश्चय ही यह परिदृश्य हमें नैनीताल की तराई के विशाल फार्मों के बीच से गुजरने का अहसास प्रदान कर रहा था. पहाड़ों के बीच रेल से सफ़र करने का यह मेरा पहला मौका था इसलिए रोमांचक भी. इस तरह एक अनदेखी कौतूहलपूर्ण विस्मय के साथ की जा रही यह यात्रा मुझे किसी दूसरे लोक की जैसी लग रही थी. रेल का सफ़र करते हुए हम लोग शाम के चार बजे कोलोश्वार पहुंचे. कोलोश्वार स्टेशन पर एक चालीसेक साल की बेहद विनीत सुन्दर महिला हमारी आगवानी के लिए खड़ी थी जो हमें टैक्सी में बैठाकर एक विशाल चर्च के प्रांगण में ले गई. हमें वहां धर्मशास्त्र विश्वविद्यालय के छात्रावास में ठहराया गया. चाबा दैजो और मैं एक कमरे में ठहराए गए और तिबोर और उसका बेटा दूसरे कमरे में. चूंकि वह विद्यार्थियों का छात्रावास था इसलिए बाथरूम और शौचालय कॉमन थे. करीब आधा घण्टा हमें कपड़े बदलने और आराम के लिए दिया गया जिसके तत्काल बाद टैक्सी हमें आयोजन स्थल तक ले गई.

बुदापैश्त से एक दिन पहले चल चुके प्रतिभागी हमें आयोजन-स्थल पर ही मिले: ऑक्सफ़ोर्ड और लैस्टर में हिंदी पढ़ा रहा प्राध्यापक इमरे बंघा (जो संगोष्ठी का संयोजक था), बुदापैश्त में हिंदी विभाग की अध्यक्ष मारिया नैज्येशी,जर्मनी में तिब्बती और प्राचीन भारतीय भाषाओं का शोधार्थी हरुनागा आईसकसन, लन्दन में चार्वाक और वेदांत दर्शन का विद्यार्थी एलेक्स वाट्सन और बौद्ध पांडुलिपियों का शोधकार तिबोर, जो हमारे साथ पहले ही आ चुका था.
(Article by Batrohi September 2021)

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रतिभागी. संयोजक इमरे बंघा अपनी बात स्पष्ट करते हुए.

हरुनागा आईसकसन ने कालिदास और भारतीय संस्कृति के प्रस्थान-बिंदु पर अपना लम्बा व्याख्यान दिया, एलेक्स ने बौद्ध, हिन्दू और चार्वाक दर्शनों की आपसी बहसों को लेकर, मुख्य रूप से संसार, कर्म और मोक्ष की बहसों पर गंभीर व्याख्यान दिया. इमरे के व्याख्यान का शीर्षक था, ‘कबीर: एक रहस्यवादी जुलाहा’ और चाबा देजो ने कल्हण की ‘राज तरंगिणी और उसके हंगेरियन भाष्यकार औरेल मायर’ विषय पर बोला. मैंने हिन्दुओं के सोलह संकरों पर हिंदी में व्याख्यान दिया जिसका हंगेरियन अनुवाद इमरे ने किया.

शाम के सत्र में केवल मेरा व्याख्यान रखा गया था. मैंने इस अवसर के लिए अंग्रेजी में अपना व्याख्यान तैयार किया था: ‘द फण्डामैण्टल्स ऑफ़ इण्डियन कल्चर’ जिसे श्रोताओं ने खूब पसंद किया. सत्र की समाप्ति पर कुछ लोगों ने आज के भारत के बारे में सवाल भी पूछे. बाद में मशहूर नृत्यांगना सोमी पन्नी की एक शिष्या का भरतनाट्यम् नृत्य पेश किया गया और भारत को लेकर प्रतिभागियों ने पारदर्शियाँ दिखाई. मैंने भी अनूप साह के द्वारा भेजी गई नैनीताल और कुमाऊं की कुछ पारदर्शियाँ दिखाईं जो लोगों को बेहद पसन्द आई.
(Article by Batrohi September 2021)

प्रतिभागी (दायें से बाएँ) इमरे बंघा, लेखक, रोमानियन दुभाषिया, एलेक्स वाट्सन, चाबा देजो, हरुनागा आइसैक्सन,

रात उस दिन खाना नहीं मिला. कार्यक्रम खत्म करते करीब साढ़े दस बज गए थे और सारे रेस्तरां बन्द हो चुके थे. एक लड़की, जो कार्यक्रमों में सहयोग कर रही थी, खाना लेने के लिए अनेक जगह भटकी लेकिन खाने को कहीं कुछ नहीं मिला. रात के करीब साढ़े ग्यारह बजे एक शराबखाना मिला जहां पिज्जा मिल गया. एक-एक पिज्जा पेट में डाल कर हम लोग अपने कमरों में आ गए.

हॉस्टल के दरबान ने खूब तमाशा किया. कभी वह मेरा पास पोर्ट मांगता था और कभी चाबा और दूसरे लोगों का. लम्बी बहस के बाद किसी तरह उसने जाने की इजाजत दी. शायद वह शराब पिये था.

दूसरे दिन हम लोग ठीक नौ बजे चिकसैरेदा के लिए रवाना हुए. (रूमानियां का समय हंगरी के समय से एक घण्टा आगे है.) यह इलाका त्रांसिलवानियां का सबसे सुन्दर स्थान है. रास्ते भर बेहद सुन्दर दृश्य देखने को मिलते रहे – झरने, दूर-दूर तक फैले हुए देवदार के विशाल वन, तेज बहती हुई नदियां और बेहद आकर्षक सड़कें. इमरे ने बताया कि रूमानियां में सामान्यतः इतनी अच्छी सड़कें नहीं हैं. यह सड़क जो रूमानियां का राजमार्ग भी है, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहां के राजकुमार ने शिकार खेलने के लिए बनाया था और उसके बाद लगातार उसकी देख-रेख होती रही है.

चिकसैरेदा के आयोजकों ने एक गाड़ी भिजवा दी थी जिसमें बेहद बातूनी ड्राईवर लास्लो और उसकी पत्नी हमारे गाइड थे. उन दोनों का आतिथ्य वाकई बेहद आत्मीय था. कोलोश्तोर से चिकसैरेदा का रास्ता ठीक वैसा ही था जैसा नैनीताल से कौसानी, चौकोड़ी होते हुए मुनस्यारी तक का है. वैसा ही घना जंगल और जल-स्रोत. रास्ते में सेराघाट जैसी एक जगह में, जहां का तापमान करीब दस-बारह डिग्री के आसपास रहा होगा, हमें खाना खिलाया गया. हंगेयिन खाना था लेकिन फरासबीन का सूप बेहद स्वादिष्ट था. ऐसा सूप मैंने पहले नहीं चखा था. करीब दो बजे हम लोगों ने खाना खाया और बेहद सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों से गुजरते हुए पांच बजे हम चिकसैरेदा पहुँचे.
(Article by Batrohi September 2021)

यह वाकई एक बेहद खूबसूरत पहाड़ी शहर है और पहुंचने के करीब आधे घण्टे के बाद मुझसे कहा गया कि मैं अपना व्याख्यान दूं. इस बार मुझे हिन्दी में बोलना था इसलिए मैंने व्याख्यान पढ़ा नहीं, बोला. इमरे ने इसका भी अनुवाद किया और फिर दूसरे लोगों के हंगेरियन में व्याख्यान हुए.

कार्यक्रम से पूर्व वहां के टेलिविजन चैनल ने मेरा पांच मिनट का एक इण्टरव्यू लिया और हंगरी और रूमानियां को लेकर मेरी राय पूछी. दो-तीन सवाल भारत के बारे में भी पूछे जैसे भारत में क्या अभी भी जातिवाद है और हंगरी व रूमानियां को वहां के लोग किस रूप में याद करते है? प्रथम हंगेरियन भारतविद और तिब्बती-हंगेरियन शब्दकोश के निर्माता कोरोशी चोमा के बारे में भी पूछा और यह जानकर उन्हें अच्छा लगा कि यहां आने से पहले मेरे मन में चोमा कोरोशी के बारे में जानने की तीव्र उत्सुकता थी.

टेलीविजन एंकर के साथ दुभाषिया मारिया नैज्येशी और लेखक

चिकसैरेदा से हम लोग कोरोशी चोमा के गांव गए और वहां उसका पुश्तैनी घर देखा जिसे लोगों ने सुरक्षित रखा है. चोमा का यह गांव चिकसैरेदा से लगभग 100-150 कि.मी. दूर है. हम लोग यानी मैं, चाबा दैजो, तिबोर और उसका बच्चा एक मिनी बस में वहां गए. रास्ते में अनेक खनिज पानी के श्रोत थे. हमारे साथ एक गाइड भी था जिसने हमें बताया कि त्रान्सिल्वानियाँ में इस तरह के इतने स्रोत हैं कि यह औषधियुक्त पानी बोतलों में भरकर संसार भर के लोगों की प्यास बुझा सकता है.
(Article by Batrohi September 2021)

उस दिन टोलिया जी के साथ हुई बातचीत में सामने आई इच्छा के रूप में हम लोग मुनस्यारी के खलिया टॉप में साहित्य-संगोष्ठी का आयोजन तो नहीं कर पाए थे, मगर हिंदी और भारतीय साहित्य के प्रति विदेशियों के स्नेह और श्रम को देखने के बाद मीरा कुटीर में खींची गई उस तस्वीर को लेकर सवाल-दर-सवाल दिमाग घिरता चला गया. हिंदी जिस तेजी के साथ हमारी गिरफ्त से छूटती चली जा रही है, क्या भविष्य में कभी हम अपनी भाषा के साथ आत्मीय स्पर्श का अनुभव कर सकेंगे? एक-से एक नौकरशाह आज भी हिंदुस्तान की धरती में पैदा हो रहे हैं, मगर रघुनन्दन सिंह टोलिया जैसी समर्पित आत्मीयता मानो कहीं खो गई है. आज भी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में गिने-चुने ऐसे नौकरशाह हैं जो हिंदी बोलने में खुद को सहज महसूस करते है, मगर उनकी तादात लगातार छीजती जा रही है.

भाषा के प्रति ही जब सहज भाव नहीं होगा तो साहित्य कैसे सृजित हो सकता है? साहित्य ही बचा नहीं रहेगा तो महादेवी सृजन पीठ जैसी संस्थाएं भी कैसे जीवित रह सकती हैं. अंततः आधे मुनस्यारी की तो बिसात ही क्या. कितने ही मुन्स्यार जन्म ले लें, वे किसी एक Csikszereda को पैदा कर सकने में असमर्थ हैं. काश हम इस सन्दर्भ में गंभीरता से सोच पाते. जिस दिन महादेवी पीठ को विश्वविद्यालय के हवाले किया गया था, मंशा यही थी कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर वह किसी दिन अपनी शर्तों पर फूलेगी-फलेगी. मगर इस खतरे की ओर ध्यान गया ही नहीं था कि विश्वविद्यालय का हर अध्यापक और छात्र उस दिन से साहित्यकार बन चुका होगा और छात्र-आन्दोलन की भीड़ की तरह साहित्य को समेटना भी मुश्किल हो जायेगा. ऐसे में गंभीर सरोकारों वाले हिंदी रचनाकारों को ही पहल करनी होगी, क्योंकि भविष्य अंततः उन्हीं से बनना है.
(Article by Batrohi September 2021)

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: अंततः हल्द्वानी का हिमालय

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

3 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

5 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago