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ये चरवाहे और मेमने भी तो हमारे ही हैं सरकार!

क्या आपने उत्तराखण्ड के अन्वाल समुदाय का नाम सुना है? यदि नहीं तो आज हम आपको उनकी कथा सुनाने जा रहे हैं. हम आपको बताएंगे कि कम्प्यूटर और रोबोट से संचालित इस इक्कीसवीं सदी में भी हिमालय की ऊंचाइयों पर चरवाहों के ऐसे परिवार वास करते हैं जिन्हें अपने नवजात मेमनों की प्राणरक्षा तक के लिए सरकार का मुंह देखने की मजबूरी है.

साल में एक बार होने वाली आधिकारिक कैलाश मानसरोवर यात्रा धारचूला की व्यांस घाटी के गाँवों से होकर गुज़रती है. इस यात्रा पर सरकार अच्छी खासी रकम खर्च करती है. यात्रियों के लिए तमाम आपातकालीन सुविधाएं मुहैय्या रहती हैं जिनमें रास्ते बंद होने की स्थिति में उनके लिए मुफ्त हेलीकाप्टर की व्यवस्था भी होती है.

इस व्यांस घाटी के गांवों में परम्परागत रूप से रं अर्थात शौका जनजाति के लोग रहते आये हैं. ये लोग गर्मियों में अपने गाँव आते हैं और जाड़ों में वापस धारचूला के अपने शीतकालीन घरों में लौट आते हैं. यह अलग बात है कि पलायन के इस दौर में इन गांवों में बहुत कम बाशिंदे बचे हैं. अधिकतर लोग नौकरियों अथवा व्यापार के सिलसिले में बाहर रहते हैं अलबत्ता महत्वपूर्ण त्यौहारों इत्यादि के अवसर पर सभी लोग अपने घरों में आते हैं. इस वर्ष सितम्बर के पहले सप्ताह में बूदी गाँव में हुए किर्जी महोत्सव के लिए भी शासन ने हेलीकाप्टर की सुविधा उपलब्ध कराई.

इस साल अतिवृष्टि की वजह से इस घाटी को जाने वाले महत्वपूर्ण रास्ते जुलाई के महीने से ही बंद पड़े हैं. सामरिक महत्व की महत्वाकांक्षी धारचूला-लिपूलेख सड़क पर पिछले कई दशकों से काम चल रहा है. फिलहाल आम लोगों के आवागमन के सामान्य रास्ते बंद पड़े होने के बावजूद लखनपुर, खानडेरा और नज्यंग जैसी मुश्किल भौगोलिक परिस्थियों वाली जगहों पर सड़क निर्माण कार्य जारी है. फिलहाल लखनपुर से नज्यंग तक के रास्ते में कई ऐसे बिंदु हैं जहाँ से होकर जाने के लिए पैदल आनेजाने वालों और इस घाटी की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाले भेड़-बकरियों-घोड़ों-खच्चरों के लिए कोई ढंग का रास्ता नहीं बचा है. रास्ते की बात की जाय तो पिछले साल दिसंबर से ही इस रास्ते के विकल्प काली नदी के उस तरफ नेपाल से होते हुए बने हुए हैं जो जानमाल की दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं. इन्हीं रास्तों से होकर स्कूली बच्चे, बूढ़ी माताएं, बीमार बुजुर्ग, गर्भवती महिलाएं और मवेशी प्राण खतरे में डालकर पिछले दस माह से जैसे तैसे अपना कम चला रहे हैं. प्रशासन की तरफ से दर्ज़नों बार वादे किये जा चुके हैं लेकिन ख़ास कुछ हुआ नहीं है.

व्यांस और धारचूला की अन्य दो घाटियों दारमा एवं चौदांस में रं समुदाय के अलावा जो समुदाय शताब्दियों से जीवनयापन करता आ रहा है, उसे अन्वाल कहा जाता है. अन्वालों के बारे में गूगल वगैरह में कुछ खोजने की कोशिश कीजिये तो कुछ विशेष हासिल नहीं होगा. इन घाटियों की अर्थव्यवस्था के केंद्र में रहा यह समुदाय तमाम तरह की उपेक्षाओं का शिकार रहा है. अन्वाल समुदाय परम्परा से ही भेड़-बकरी पालन का कार्य करता रहा है. यहां इस बात का उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि सदियों तक चले भारत-तिब्बत व्यापार में माल के ढुलान के लिए इन्हीं भेड़-बकरियों का इस्तेमाल किया जाता रहा था. ये बकरियां अपनी पीठों पर बंधे चमड़े के थैलों में, जिन्हें करबच कहा जाता है, आठ से बारह किलो वजन लेकर दुर्गम पहाड़ के संकरे पथरीले रास्तों पर चल सकती हैं. जाड़ों में इन्हीं भेड़-बकरियों की मदद से तिब्बत से लाया गया नमक कुमाऊं-गढ़वाल के गांवों-कस्बों में पहुंचाया जाता था.

गौर से देखा जाय तो अन्वाल समुदाय इन घाटियों की अर्थव्यवस्था और सामाजिक तानेबाने का बेहद ज़रूरी हिस्सा बना रहने के बावजूद समाज और शासन के सरोकारों से कटा रहा है. बहुत कम लोग जानते होंगे की इन अन्वालों के अनेक परिवार आज भी अपनी पुश्तैनी व्यवसाय में संलग्न हैं और वर्ष भर अपने पशुओं से साथ घुमंतू जीवन बिताते हैं.

हर साल की तरह इस साल भी मई-जून के महीने में कोई पच्चीस-तीस अन्वाल परिवार अपनी बकरियों को लेकर कुमाऊँ की तलहटियों के मैदानी चरागाहों से उच्च हिमालयी व्यांस-दारमा घाटियों की तरफ चले गए थे. दिसंबर से ही नज्यंग के पास का रास्ता टूटा हुआ होने की वजह से अपने रेवड़ों को रास्ता पार करवाने में खासी मुश्किलें आईं.

बारिश का मौसम आने साथ ही टूटा हुआ रास्ता लगातार और अधिक टूटता रहा और विशेषतः व्यांस घाटी के गांव सामान्य जीवन से कटते चले गए. बूदी से लेकर गुंजी और कुटी तक के इन्हीं गाँवों की ऊंचाइयों पर अपनी भेड़-बकरियों के साथ रह रहे इन अन्वाल परिवारों की परेशानियों का सिलसिला कोई एक महीने पहले शुरु हुआ जब उनके नीचे लौटने का समय आया.

नवजात मेमनों को एक जगह विशेष निगरानी में रखा जाता है

अगस्त-सितम्बर का मौसम इन पशुओं के बच्चे पैदा करने का मौसम होता है. नन्हे मेमनों को ऊंचे पहाड़ों की सर्दी से बचाने के लिए उन्हें चौदांस की निचली घाटी में ले जाए जाने का रिवाज रहा है. रास्ता टूटा होने के चलते अब तक ऐसा नहीं हो सका है.

पिछले तीन दिनों से लगातार हुई बरसात और बर्फबारी के कारण इन चरवाहों और उनके पशुओं विशेषतः नवजातों का जीवन बहुत सारी समस्याओं से घिर गया है. रास्ता बंद होने के कारण वे ऊंचाइयों पर फंसे हुए हैं और असंख्य निरपराध पशुओं का जीवन संकट में पड़ गया है.

पिछले दो-एक महीनों में धारचूला में शासकीय स्तर पर अनेक मीटिंगें हुईं जिनमें घाटियों में रहने वालों की वापसी यात्रा (माइग्रेशन) की व्यवस्थाओं को सुचारू बनाने पर योजनाएं बनीं. प्रशासन में फैसला किया कि पहली नवम्बर तक नज्यंग और लखनपुर के रास्तों को ठीक कराने की कोशिश की जाएगी.

कुंदन सिंह भंडारी

यहां भी अन्वालों की समस्याओं की बात उठाने की कोई ज़रूरत नहीं समझी गयी. रं परिवार अक्टूबर के अंतिम और नवम्बर के शुरुआती हफ़्तों में धारचूला वापस आया करते हैं जबकि अन्वाल समुदाय को अपनी भेड़-बकरियां लेकर इससे एक माह पहले वापस आना होता है. प्रशासन द्वारा इन बकरियों को घाटियों में सितम्बर माह तक ही रहने की आधिकारिक अनुमति दी जाती है. जाहिर है इसके बावजूद प्रशासन को इस बात का न तो ज्ञान था न ही उसके संज्ञान में किसी जनप्रतिनिधि ने इस बात को लाने का प्रयास किया.

बीती 27 सितम्बर को स्थानीय सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता जगत मर्तोलिया ने पिथौरागढ़ के जिलाधिकारी को इस सम्बन्ध में एक ज्ञापन दिया. यहां यह जान लेना आवश्यक है कि यदि अगले पांच-सात दिनों में इस मामले में कुछ ठोस कार्रवाई न हुई तो सैकड़ों नवजात मेमनों की मौत हो सकती है. बकरियों के बीमार हो जाने का भी खतरा है. चरवाहे ऐसी स्थिति में कैसे रह रहे होंगे इसकी कल्पना तक करना कठिन है.

धारचूला में रहने वाले उत्तराखंड शीप वूल डेवेलपमेंट बोर्ड के पूर्व सदस्य कुंदन सिंह भंडारी, जो स्वयं इस अन्वाल समुदाय के सदस्य हैं, ने बताया कि शासकीय लापरवाही और आलस्य के कारण पीढ़ियों से एक परम्परागत कार्य में लगे समुदाय को न केवल आर्थिक-मानसिक हानि हुई है, किसी अवांछित दुर्घटना होने की स्थिति में उनके सामने जीवनयापन का मूलभूत सवाल भी उठ सकता है.

ज़रा सोचिये इन मेमनों और चरवाहों की जगह कैलाश-मानसरोवर यात्री होते तो!

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