Featured

सिनेमा: पांच मिनट में सत्रह देशों की दुनिया

एन वुड द्वारा 1984 में स्थापित टीवी कंपनी रैगडौल से सीख मिलती है कि एक अच्छा प्रोग्राम कैसे और कितनी मेहनत से बनाया जाता और फिर यह भी कि प्रोग्राम बनाने में रुपये पैसे के अलावा दिल भी लगाना होता है. 1992 में इन्होने एक प्रोग्राम बनाया. मकसद था 5-5 मिनट की लघु फिल्मों के बहाने देश–दुनिया को बच्चों की नज़र से समझना. इस महत्वाकांक्षी प्रोजक्ट के लिए कई देशों के फ़िल्मकारों से बात की गई और अंतत 17 देशों की 5-5 मिनट की कहानी बनायी गयी और श्रृंखला को नाम दिया गया ओपन अ डोर इन …इंडिया…इन मंगोलिया आदि.

ओपन अ डोर इन इंडिया की एक निर्देशक सुरभि शर्मा से जब इस श्रृंखला के बारे में बात हुई तो पता चला कि 5 मिनट की फ़िल्म बनाने के लिए उन्हें 100 पेज की निर्देशिका से माथापच्ची करनी पड़ी. और जब हम इस श्रृंखला को देखते हैं कि यह माथापच्ची ठीक ही लगती है. इस कसरत की सबसे जरूरी नसीहत यह थी कि 5 मिनट में आपको कहानी कहनी है. कहानी कहने का एक आम तरीका यह होगा कि दरवाजा खुलेगा और बच्चा बाहर निकलेगा और फिर 5 मिनट बाद घर में दाखिल हो जायेगा, लेकिन इस दौरान किसी भी तरह की हिंसा न होगी न ही कोई भी व्यक्ति बंदी दिखेगा.

एन वुड

जब हम 85 मिनट तक इस श्रृंखला को देखते हैं तो वाकई में कई देशों से गुजरने जैसा अहसास होता है और इसी कारण कुछ देशों की कहानियां हमें बाद तक याद रहती हैं. ओपन अ डोर इन मंगोलिया की कहानी विशाल घास के मैदान के पास घटती है जहाँ रह रहे एक बच्चे को पड़ोस में काम कर रहे मजदूरों द्वारा छोड़ा गया प्लास्टिक का पीला हेलमेट मिलता है. इस वस्तु से उसका परिचय नहीं लेकिन एक बच्चा कैसे सोचता है यह देखना इस टुकड़े की खूबी है. पहले मजदूरों को सिर पर रखेवह इसका सीधा अर्थ टोपी निकालता और सिर पर पहन लेता है. फिर नहर के पास ले जाकर इसमें बने छेद में तिनका फंसा कर इसमें पानी भर इसे बाल्टी बना लेता है, अपने एक दोस्त के साथ खेलते हुए इसे गाड़ी बना लेता है और सबसे मजा तब आता है जब वह इसे अपने पेट में घुसा कर गर्भवती स्त्री बन जाता है. बच्चों की कल्पना वाली ऐसी ही एक मजेदारकहानी ओपन अ डोर इन इक्वाडोर की है जिसमें मोहल्ले के बच्चे अपने बड़ों को देखकर अपना आर्केस्ट्रा बनाते हैं जिसमें वे रोजमर्रा की चीजों का इस्तेमाल करते हैं जैसे झाड़ू, साइकिल का टायर, गाय की घंटी आदि का इस्तेमाल करते हैं. इस श्रृंखला के बारे में बताते हुए अमेरिका में खुलने वाली कहानी ओपन अ डोर इन अमेरिका का जिक्र न करना बेमानी होगी. यह एक छोटी बच्ची की कहानी है जिसकी हिचकियाँ नहीं बंद हो रही हैं. पूरे 5 मिनट तक उसकी मां हिचकी रोकने के लिए तरह–तरह के उपाय करती है. यहाँ तक होता है कि पानी पिलाकर उसे उल्टा लटका दिया जाता है. मजा तब आता है जब एपिसोड ख़त्म होते–होते भी हमें साउंड ट्रेक में हिचकी की आवाज सुनाई देती है.

ओपन अ डोर के कुछ एपीसोड यू ट्यूब में देखे जा सकते हैं. हम इन्हें देखेंगे तो बच्चों के बहाने ही थोड़ी सुन्दर बनती दुनिया देखकर खुश हो सकेंगे.

संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

हमारे कारवां का मंजिलों को इंतज़ार है : हिमांक और क्वथनांक के बीच

मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…

1 day ago

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

5 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

5 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

6 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

7 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

7 days ago