संस्कृति

कुमाऊं के कुछ प्राचीन मंदिर

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कुर्मांचल में प्राचीन काल में जहाँ भी मन्दिरों का निर्माण हुआ, वह आबादी से हट कर कोई शान्त तथा रमणीक स्थल, अथवा देवदार या चीड़ के वनों के मध्य स्थित, या पुराणों से सम्बन्धित कोई स्थान था. इन मन्दिरों तक पहुंचने की आम सुविधा न होने तथा इलाके के बीहड़ होने के कारण ही ये प्रदेश के अनेक मन्दिरों की भांति नष्ट होने से बच गये. पिछले कुछ वर्षों में इनके निकट तक मोटर मार्गों के बन जाने के फलस्वरूप अब इन मन्दिरों तक-रास्ते में हिमालय, सीढ़ीनुमा खेतों तथा देवदार या चीड़ के वनों का आनन्द लेते हुए सुगमता से पहुंचा जा सकता है. यदि कोई इन स्थानों में रहना चाहे, तो पर्यटक आवासों, डाक-बंगलों तथा निरीक्षण भवनों या आसपास की दुकानों में रह सकता है. कुछ प्रमुख प्राचीन मन्दिरों का सैलानियों की दृष्टि से उपयोगी विवरण यहां दिया जा रहा है –
(Ancient Temples of Kumaon)

द्वाराहाट

उत्तर-पूर्व रेलवे पर अन्तिम स्टेशन काठगोदाम से 127 कि.मी. तथा पर्वतीय छावनी रानीखेत से 35 कि.मी. की दूरी पर बसा द्वाराहाट अतीत में कुमाऊं के प्राचीन कत्यूरी राजाओं की एक शाखा की राजधानी थी. यहां पर बने तीस मन्दिरों, कई नौलों (पानी के पक्के कूल) तथा चन्द्रगिरि पर्वत पर बने किले के अवशेषों से कत्यूरी राजाओं के काल में इस स्थान के वैभव का अनुमान सहज ही लगाया सकता है. कहा जाता है कि कत्यूरी राजाओं ने अपने किले के निर्माण में दीवार के पत्थरों को जोड़ने के लिये गारे के स्थान पर मास (उड़द) पीसकर लगाया था.

किले के निकट बाजार स्थित है जिसके मध्य में प्राचीन शिवदेव का पोखरा (कुण्ड) है. कुछ वर्ष पूर्व तक सुन्दर कमलों के कारण यह आकर्षण का केन्द्र-बिंदु था परन्तु अब पोखरे का जल निकाल देने के कारण यह नष्ट होता जा रहा है. इस पोखरे से लगभग 110 मीटर की दूरी पर द्वाराहाट का सबसे सुन्दर गूजरदेव का मन्दिर (ध्वज) है. इस मन्दिर अवशेषों को देखकर प्रतीत होता है कि अतीत में यह आज से कहीं अधिक विशाल रहा होगा व उसमें मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त मण्डप तथा कई अन्य मांग भी रहे होंगे. मन्दिर का शिखर तथा सामने का भाग गिर चुके हैं. तीन ओर की दीवारों तथा चौकी का जो भाग बचा हुआ है, उससे स्पष्ट है कि यह कत्यूरी शासनकाल के दौरान द्वाराहाट का प्रमुख मन्दिर रहा होगा. मन्दिर के बाहरी भाग में देव मूर्तियों की भरमार है. मन्दिर की चौकी, जो भूमि से लगभग सवा मीटर ऊंची है, में हाथियों तथा पुरुषों की कतारों का अंकन है.

गूजरदेव के मन्दिर से थोड़ी दूरी पर खेतों के बीच कंटीले तार से घिरा मन्दिरों का एक छोटा-सा समूह दिखाई देता है. इन मन्दिरों से मूर्तियाँ हटाई जा चुकी हैं. मन्दिरों के बाहरी भाग में थोड़े-बहुत बेलबूटों का अंकन है परन्तु भीतरी भाग बिल्कुल सादे हैं. इन मन्दिरों से कुछ ही दूरी पर बसे गांव के बीच मन्दिरों का एक दूसरा समूह है, जो कचहरी देवाल के नाम से जाना जाता है. इस समूहों में दस मन्दिर हैं, जिनमें से कुछ के सामने बरामदा भी बना है. बरामदे की छत पत्थरों के सुन्दर स्तम्भों पर टिकी है. यहाँ के सभी मन्दिर इनमें प्रतिष्ठित देवी-देवताओं की प्रतिमानों के लुप्त होने या हटा दिये जाने के कारण अपनी प्रतिष्ठा और आकर्षण खो चुके हैं. इस कथन से द्वाराहाट के बीच से बहने वाली नदी (जिसमें केवल वर्षा ऋतु में ही पानी आता है) की ओर जाने के मार्ग में यहां के अब पूजे जाने वाले मन्दिर, बद्रीनाथ तथा केदारनाथ स्थित हैं. इन मन्दिरों की मूर्तियों को देखकर तथा इनमें से कुछ पर अंकित तिथि से इनके निर्माण की अवधि दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी प्रतीत होती है. इन मन्दिरों के निकट ही मृत्युंजय का मन्दिर है, जो सम्भवतः इसके पास से मोटर मार्ग के निकाले जाने तथा यहाँ के निवासियों की लापरवाही के कारण, दयनीय हालत में है और क्षतिग्रस्त हो चुका है.

द्वाराहाट के निवासियों का विश्वास है कि गूजरदेव के मन्दिर से पाण्डवों ने अपने वनवास के काल में धनागार का काम लिया था और वह धन अब भी इस मन्दिर में दबा पड़ा है. यही विश्वास रोहिलों द्वारा कुमाऊं के इस भाग पर आक्रमण तथा यहाँ के मन्दिरों-मूर्तियों को ध्वंस करने का कारण बना. इस आक्रमण के फलस्वरूप यहाँ की मूर्तियों के नष्ट होने में जो कमी रह गई, वह विदेशी शासकों के अनुचरों (जो यहाँ से निकट रानीखेत छावनी में रहते थे) ने इधर-उधर बिखरी हुई मूर्ति सम्पदा को हटा कर पूरी कर दी.

द्वाराहाट से लगभग 6.5 कि.मी. की दूरी पर द्रोणागिरि पर्वत पर दुर्गा का प्राचीन मन्दिर है जहाँ अन्य दुर्गामन्दिरों (गंगोलीहाट तथा पुण्यागिरि) की भांति बलि नहीं चढ़ाई जाती है. यहाँ पर प्राप्त शिलालेख, जो सम्भवतः द्वाराहाट के बद्रीनाथ मन्दिर से आया है, में अंकित तिथि से इसकी प्राचीनता ज्ञात होती है.
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जागेश्वर

पुराणों में वर्णित नील पर्वत के दारुणवन में स्थित जागेश्वर, अथवा नागेश का मन्दिर, अल्मोड़े से 35 कि.मी. की दूरी पर स्थित है. यह मन्दिर अल्मोड़ा जिले के दारुण पट्टी में देवदार वन के बीच में निर्मित है और कुमाऊ के निवासियों द्वारा ज्योतिलिंग मन्दिरों में से एक माना जाता है.

सोराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालमोङमारमम्लेश्वरम् ।। 1।।
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्या भीमशङक्रम ।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेश द्वारुका बने ।। 2 ॥

टिप्पणी- यह दारुण वन ही जागेश्वर है.

यहाँ पर कुल मिला कर 25 मन्दिर हैं. जागेश्वर या बाल जागेश्वर तथा मृत्युंजय के मन्दिर सबसे प्राचीन ही नहीं, अपितु अन्य मन्दिरों से बड़े भी हैं. कहा जाता है कि बाल जागेश्वर के मन्दिर का निर्माण अयोध्या नरेश शालीवाहन महान और मृत्युंजय मन्दिर का राजा विक्रमादित्य ने करवाया था. जो भी हो, इस स्थान से प्राप्त शिलालेखों एवं ताम्र पत्रों से ज्ञात होता है कि जागेश्वर कुमाऊँ के कत्यूरी राजाओं के समय में भी प्रसिद्ध था. यहां के मन्दिरों का समय-समय पर कत्यूरी तथा चन्द राजाओं ने पुननिर्माण तथा जीर्णोद्वार कराया था. बाल जागेश्वर के मन्दिर में स्थापित शिवलिंग को अब लोहे के आवरण से ढक दिया गया है. इसके सम्बन्ध में किवदन्ती है कि शंकराचार्य ने देखा कि इस स्थान पर जो कोई किसी मनौती को लेकर आता है, वह पूरी हो जाती है. परन्तु कुछ बुरी मनोवृत्ति वाले लोग दूसरों को हानि पहुँचाने के ध्येय से घात भी डाल देते थे तो इस कुवृत्ति को बन्द करने के विचार से ही शंकराचार्य ने इस पर का लोहे का आवरण चढ़ा दिया था.

जागेश्वर में बाल जागेश्वर तथा मृत्युंजय मन्दिरों के अतिरिक्त दुर्गा, भवानी, सूर्य तथा कई अन्य देवी-देवताओं के मन्दिर भी हैं जो संभवतः बाद में कत्यूरी तथा चन्द राजाओं ने बनवाये हैं. लगभग सभी मन्दिरों में देव मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं, जो अब भी पूजी जाती हैं. ये मूर्तियां अल्मोड़ा जनपद के अन्य स्थानों ( बैजनाथ को छोड़कर) पर पाई जाने वाली मूर्तियों से अच्छी ही नहीं हैं, अपितु अपनी सादगी तथा भावात्मक अंकन के कारण एक अलग स्थान रखती हैं. इन मूर्तियों के अंकन से देश के अन्य भागों में पाई जाने वाली समकालीन मूर्तियों की भाँति गहनों की भरमार नहीं की गई है. न ही यहाँ प्रणय सम्बन्धी मूर्तियों का अंकन किया गया है.

बाल जागेश्वर के मन्दिर से लगभग 150 मीटर की ऊंचाई पर उससे भी प्राचीन, वृद्ध जागेश्वर का मन्दिर है तथा दो मील की दूरी पर दण्डेश्वर का मन्दिर है. किंवदन्ती है कि दण्डेश्वर महादेव का मन्दिर पौराणिक जागेश्वर पर्वत (नील पर्वत) के दारुण वन में उसी स्थान पर स्थित है, जहाँ वशिष्ट तथा अन्य मुनियों ने, अपनी स्त्रियों को सती के भस्म से अपने शरीर में धारण कर, तपस्या करते हुए महादेव को श्राप दिया था. यह मन्दिर अन्य मन्दिरों की तरह न होकर, दक्षिण मुखी है और इसके पुजारी भी ब्राह्मण न होकर क्षत्रीय होते हैं.

यहां के मन्दिर में प्रतिष्ठित देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ ही, कुमाऊँ के चन्द राजा त्रिमल चन्द तथा दीप चन्द की प्रतिमाएं भी हैं. सम्भवत: इन राजाओं ने यहां के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था.
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कटारमल

फोटो : श्याम सिंह रावत

अल्मोड़ा से 17 कि.मी. की पूरी पर पूर्वी ढलान में बसा, कटारमल गांव 1815 ई. में अंग्रेजों द्वारा अल्मोड़ा विजय सैनिक के समय प्रमुख  सैनिक अड्डा था. कटारमल अब वहाँ पर निर्मित प्राचीन सूर्य मन्दिर के लिये अधिक प्रसिद्ध है. अनुमान लगाया जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण छठी से नवीं शताब्दी के मध्य हुआ होगा. अन्य सूर्य मन्दिरों की भांति यहाँ के सूर्य रथारूढ़ नहीं और इनको बूट पहनाये गये हैं.

कटारमल ग्राम कई वर्ष पूर्व तक गणिकाओं का (जो सम्भवतः मन्दिर की देव वासियां रही हों) ग्राम था किन्तु अब यहाँ सभी जाति के लोग बसते हैं. ग्राम से थोड़ी दूरी पर जो थोड़े- बहुत चीड़ के विशाल वृक्ष बचे हैं, उनसे अनुमान होता है कि यहाँ पर जागेश्वर के देवदार वन की भाँति अतीत में चीड़ वन रहा हो जो गोरखाओं द्वारा कुमाऊं के उस भाग पर शासन करने के दौरान, अल्मोड़ा के वनों की भांति ही नष्ट कर दिये गये हों.

कटारमल का सूर्य मन्दिर ग्राम के पूर्व में थोड़ी दूरी पर निर्मित है. इसका निर्माण एक ऊंचे चबूतरे पर किया गया था और उसके चारों ओर लगभग बत्तीस मीटर लम्बी तथा तीस मीटर चौड़ी चाहरदीवारी थी. मन्दिर का शिखर काफी खंडित हो चुका है फिर भी उसे देखकर इसकी विशालता तथा वैभव का अनुमान लगाया जा सकता है. मन्दिर के चारों ओर अनेक छोटे-छोटे मन्दिरों की भरमार है जो सूर्य मन्दिर की ही तरह ध्वंस हो चुके है और जिनकी मूर्तियाँ हटाई जा चुकी है यहाँ जो थोड़ी-बहुत मूर्तियां बची हैं, वे मुख्य मन्दिर में सूर्य की प्रतिमा के साथ ही एकत्रित कर दी गई हैं. मन्दिर में व्याप्त अन्धेरे के कारण वे भलि-भांति दिखाई नहीं देतीं. मन्दिर के द्वार पर पाषाण मूर्तियों के साथ एक धातु की मूर्ति को देखकर कहा जा सकता है कि यहाँ कि मूर्तियाँ अल्मोड़े के अन्य भागों में पाई जाने वाली मूर्तियों की समकालीन है. मन्दिर में लकड़ी के जो प्राचीन कपाट थे, वे अपनी सुन्दर काष्ट काल के लिये प्रसिद्ध है, और अब पुरातत्व संग्रहालय, दिल्ली में सुरक्षित है. मन्दिर के साथ बने भंडार-गृह में लकड़ी के खम्भों के जले हुए अववेणों को देखकर अनुमान होता है कि इन खम्भों में भी सुन्दर कला अंकित की गई थी.
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बैजनाथ

फोटो साभार – euttranchal.com

पुराणों में वर्णित गोमती तथा गरुड़ी नदियों के संगम पर स्थित वैजनाथ (वैद्यनाथ जहाँ कामदेव के दमन के पश्चात् पार्वती को ब्याहने जाते समय महादेव जी ने ठहकर गणेश का पूजन किया था) अल्मोड़ा से 70 कि.मी. तथा हिमालय दर्शन के लिये प्रसिद्ध कौसानी से 16 कि.मी. की दूरी पर है. यहां कई मन्दिरों का निर्माण हुआ था. इनसे प्राप्त शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कत्यूरी, चन्द तथा गंगोली राजाओं ने समय-समय पर यहाँ के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था. संभवतः उनके काल में मूर्तियों का भी अंकन हुआ था. बैजनाथ मन्दिर समूह के मध्य वैद्यनाथ महादेव का प्राचीन मन्दिर था, जिसका अब निचला भाग ही शेष रह गया है. किन्तु इस मन्दिर में प्रतिष्ठित शिव प्रतिमा की अब भी मान्यता प्राप्त है. मुख्य मन्दिर के निकट ही एक अन्य शिव मन्दिर है, जिसमें शिव प्रतिमा के निकट ही लगभग 1.5 मीटर ऊँची देवी पार्वती की प्रतिमा तथा कई अन्य देवी-देवताओं की छोटे आकार की मूर्तियां स्थापित हैं जो सम्भवतः अन्य मन्दिरों से लाकर रखी गई हैं. यहाँ प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार 1552 ई० में कत्यूरी तथा गंगोली राजाओं ने इस मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया था. पास ही बने संग्रहालय में बैजनाथ से प्राप्त कई मूर्तियां रखी गई हैं जो नवीं तथा दसवीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं. परन्तु इनमें से कुछ इससे भी प्राचीन काल की हो सकती हैं. बैजनाथ में प्राप्त मूर्तियों में पार्वती, शेष-साई, विष्णु, कुबेर, सूर्य, चंडिका, महिषासुर मर्दिनी तथा अष्टभुजा देवी की प्रतिमाएं मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं और उनकी तुलना भारत के अन्य भागों में पाई जाने वाली समकालीन मूर्तियों से की जा सकती है.

बैजनाथ से लगभग 1.5 कि.मी. की दूरी पर, गोमती नदी के बाई ओर बसे तल्लाहाट ग्राम में भी कुछ प्राचीन मन्दिरों के अवशेष मिलते हैं. खेतों के बीच ध्वंस प्रायः सत्यनारायण के मन्दिर में प्रतिष्ठित विष्णु की प्रतिमा बैजनाथ में प्राप्त पार्वती की मूर्ति की समकालीन प्रतीत होती है. दोनों का ही निर्माण काले पत्थर से किया गया है. मूर्तियों का अंकन बड़ा सजीव और उत्तम है. ग्राम के बीचोंबीच राक्स तथा नारायण शून्य के मंदिर हैं. बागेश्वर के मन्दिरों से प्राप्त शिलालेख के अनुसार 1300 ई० में राजा हमीरदेव, लिंगराव देव और रानी परलदेई ने नारायण देव के मन्दिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया. मन्दिर के पास एक छोटा-सा चबूतरा स्थित है जो इन ग्रामवासियों द्वारा राजा-रानी के चौपड़ खेलने का चबूतरा बताया जाता है. इसे देखकर अनुमान लगाया जाता है कि गोमती घाटी में प्राचीन करर्वारपुर के ध्वंस नगर के स्थान पर कत्यूरी राजाओं द्वारा बसाई राजधानी कार्तिकेयपुर यहीं रही होगी. सम्भवतः यह चबूतरा राजमहल का अवशेष मात्र हो. बैजनाथ के चारों ओर 10-12 कि.मी. के घेरे में गोमती के निकट कत्यूर के मन्दिरों के अवशेष बिखरे पड़े हैं.
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बागेश्वर

कुमाऊं के सबसे पुराने नगरों में से एक बागेश्वर, यहाँ के निवासियों के लिये काशी के समान ही पवित्र तीर्थ है. यहाँ पर गोमती तथा सरयू के संगम पर बागनाथ महादेव (बाघ्रेश्वर) का मन्दिर निर्मित है, जिसके नाम पर ही इस स्थान का नाम बागेश्वर पड़ा. स्थानीय लोक कथा के अनुसार जय सरयू नदी हिमालय से अयोध्या में श्री राम के जन्म पर आयोजित समारोह में सम्मिलित होने को जा रही थी तो उसे मार्ग में मारकण्डेय मुनि को तपस्या करते देख कर रूक जाना पड़ा. सरयू की विपदा को देख कर पार्वती को दया आई और उन्होंने शिवाजी से सरयू की सहायता का आग्रह किया. व्याघ्र रूपी शिव को जब मारकण्डेय मुनि ने गाय रूपी पार्वती पर आक्रमण करते देखा तो उनसे रहा न गया. गौरक्षार्थ वे तपस्या छोड़ कर सहायता के लिये दौड़ पड़े और इसी बीच अवसर पाकर सरयू नदी आगे निकल चली. शिव-पार्वती भी अन्तर्ध्यान हो गए. इसी स्थान को व्याघ्रेश्वर (बागेश्वर) कहा गया कहा गया. जाता है कि जिस स्थान पर शिव और पार्वती अन्तर्ध्यान हुए, वहीं पर मारकण्डेय मुनि ने मन्दिर का निर्माण करवाया और उसमें शिव की प्रतिमा को बाघ्रनाथ नाम देकर प्रतिष्ठित किया. कालान्तर में मूल मन्दिर हो ध्वंस हो गया, लेकिन बाद में कत्यूरी चन्द तथा गंगोली राजाओं द्वारा जीर्णोद्वार कराया मन्दिर आज भी काफी रक्षित अवस्था में है.

चम्पावत

पिथौरागढ़ जनपद के सबसे कलात्मक मन्दिर टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग में स्थित चन्द राजाओं की प्राचीन राजधानी (995 ई० से 1563 ई०) चम्पावत में हैं. ये मन्दिर बालेश्वर, रामेश्वर तथा चम्पावती दुर्गा के हैं. इन मन्दिरों के निर्माण काल के बारे में ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता, फिर मी चम्पावत के करीब पाये गये ताम्रपत्रों से (जो अधिकांश मन्दिरों को चढ़ाई जाने वाली भूमि के दान-पत्र हैं) इनका निर्माण चन्द वंश के प्रारम्भिक काल से ( शक संवत 1293 से 1727 तक) हुआ प्रतीत होता है.

बालेश्वर मन्दिर को देखने से प्रतीत होता है कि यह दोहरा मन्दिर था: एक गर्भगृह तथा दूसरा मण्डप, जो अब काफी जीर्णावस्था में है. जो कुछ बचा है उससे इसके प्राचीन वैभव तथा कलात्मकता का पता चलता है. इसके गर्भगृह तथा मण्डप की छतों के भीतरी माग में कालिया मर्दन को एक नई शैली में, बड़े कलात्मक रूप से अंकित किया गया है. मन्दिर की बाहरी दीवारों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवी-देवताओं का अंकन है. बालेश्वर के मन्दिर की चौकी में हाथियों को अलग-अलग मुद्रा में बड़ी सजीवता से मन्दिर के चारों ओर अंकित किया गया है. इस मन्दिर के निकट ही रत्नेश्वर तथा चम्पावती दुर्गा के मन्दिरों का भी निर्माण किया गया है. और इनकी दशा बालेश्वर के मन्दिर से कुछ बेहतर है. इसकी दीवारों में बाहर की ओर बहुत ही सुन्दर तथा कलात्मक ढंग से देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ सुन्दर पच्चीकारी की गई है. चम्पावत में इन्हीं मन्दिरों के निकट कई अन्य मन्दिरों के अवशेष भी बिखरे पड़े हैं. इनमें से जिन पर पुजारी या व्यवस्थापकों की कृपा हुई उनको पुजारी निवास की दीवार या मन्दिर समूह की चाहरदीवारी के निर्माण में स्थान दे दिया गया है.
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गंगोलीहाट

गंगोलीहाट के मन्दिरों में महाकाली तथा पाताल भुवनेश्वर के मन्दिर एवं जान्हवी का नौला (पोखरा) प्रमुख हैं. इसके अतिरिक्त यहाँ विष्णु, हनुमान तथा अन्य देवी- देवताओं के मन्दिर भी देखने को मिलते हैं. यहाँ के मन्दिरों को देखने से आभास होता है कि ये कत्यूरी काल में निर्मित हैं. पिथौरागढ़ जनपद के ही कासिनी (विष्णु मन्दिर) तथा मण (सूर्य मन्दिर), या चमोली जनपद के नारायण बगड़ (विष्णु मन्दिर, जिसकी प्रतिमा चोरी जा चुकी हैं), गोपेश्वर तथा तुंगनाथ (शिव मन्दिर) इत्यादि मन्दिरों के समकालीन हैं. यहाँ के मन्दिरों में जो देव प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं, वे भी एक ही शैली की हैं. हो सकता है कि इनका अंकन कत्यूरी राजाओं ने कराया हो, या फिर गंगोली के मणकोटी राजाओं ने (जो कत्यूरी वंश से सम्बद्ध रहे हों और जिन्होंने अन्य स्थानों की भांति यहां भी अपने कुल देवता नारायण – विष्णु – के मन्दिर बनवाये हों). यहाँ के मन्दिरों में स्थापित विष्णु प्रतिमा अन्य भागों की प्रतिमाओं की प्रतिरूप प्रतीत होती है और उसी प्रकार की शिला से निर्मित हैं.

गंगोलीहाट में इस समय का प्रमुख मन्दिर महाकाली का माना जाता है. काफी प्राचीन मन्दिर है, पर समय-समय पर जीर्णोद्धार होते रहते के कारण वह अब अपनी मौलिकता खोता जा रहा है. इसकी दीवारों तथा छत, सभी ने काफी आधुनिक रूप ले लिया है पर इसमें स्थापित प्रतिमाओं तथा कहीं कहीं पर इसकी दीवारों को देखकर इसकी प्राचीनता की झलक मिलती है. यह मन्दिर आबादी से डेढ़ किलोमीटर दूर देवदार वन के बीच, रमणीक स्थल में स्थित है. यहां दूर-दूर से लोग दर्शनार्थ आते हैं और बकरे की बलि भी चढ़ाई जाती है. इसकी मान्यता सारे कुमाऊं में है और इस स्थान को देवी जी का आदि-पीठ भी मानते हैं. किंवदन्ती है कि प्राचीन काल में महाकाली काफी चंचल थी और रात्रि में कभी-कभी कीर्ति जागीश्वर महादेव को पुकारती थीं. जो इस आवाज को सुनता, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती. फलतः उस समय में यहाँ के निवासी संध्या की पूजा के बाद मन्दिर के निकट नहीं जाते थे. कहा जाता है कि जब से श्री शंकराचार्य ने जागेश्वर महादेव की प्रतिमा को लोहे के आवरण से ढक दिया, तब से काली जी ने पुकारना बन्द कर दिया. अब तो इस मन्दिर के काफी निकट तक बस्ती फैलती जा रही है. यहाँ के लोगों का यह भी विश्वास है कि देवी का महिषासुर से यहीं पर युद्ध हुआ था और महिषासुर मर्दिनी ने महिषासुर, चण्डमुण्ड, रक्तबीज आदि कई दैत्यों का यहीं पर वध किया था. उनकी शक्ति पीठ भी यहीं है.
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गंगोलीहाट बाजार के एक कोने पर जाह्नवी का नौला है, निर्माण रैका राजा ने करवाया था. इस पोखरे से यहाँ के लोगों की जल आवश्यकता की पूर्ति होती है. यह देखने में काफी प्राचीन और कलात्मक लगता है. इस पोखरे से थोड़ी दूरी पर विष्णु भगवान के दो सुन्दर परन्तु छोटे मन्दिर है. इन्हीं के बीच में से गंगोलीहाट को पिथौरागढ़  से जोड़ने वाला पैदल मार्ग जाता है. कभी यह मन्दिर खुले स्थान में रहे होंगे, पर अब इनके चारों ओर फैलती आबादी इनको घेरती जा रही है. यहाँ तक कि इनसे लगे हुए मकानों की दीवारें इन मन्दिरों की दीवारों को दबायें पड़ी है. इन मन्दिरों में भगवान विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं, जो काफी सुन्दर है और आज भी पूजी है. पर इनके मन्दिरों की देख-रेख ठीक से न होने के कारण इन्हें चारों ओर से बेलों तथा झाड़ियों ने घेरना आरम्भ कर दिया है.

गंगोलीहाट से थोड़ी दूरी पर मणकोट है, जहाँ मणकोटी राजाओं के किले के खण्डहर आज भी देखने को मिलते हैं. शायद ये भी कत्यूरी वंश से ही हों. बाद में जब कुमाऊं के चन्द राजाओं ने इस पर आक्रमण किया तो युद्ध हार जाने के कारण वे नेपाल चले गये, जहां इनके वंशज आज भी रहते हैं.

पाताल भुवनेश्वर

फोटो : ऑनलाइन देहरादून फेसबुक पेज से साभार

गंगोलीहाट से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह स्थान अपने मन्दिर समूह तथा गुफा मन्दिरों के कारण प्रसिद्ध है. इस ग्राम का नाम भी इन्हीं मन्दिरों के नाम पर पड़ा है. यहां भुवनेश्वर के दो मन्दिर हैं. एक तो प्रकृति की देन है जो गुफा में है. दूसरा इस गुफा मन्दिर से 150 मीटर की दूरी पर निर्मित है. कहा जाता है कि इस वृद्ध भुवनेश्वर मन्दिर का निर्माण राजा असन्तिदेव की रानी सुभद्रादेवी ने कराया था. इस मन्दिर के चारों ओर कई अन्य मन्दिर भी निर्मित हैं. इन मन्दिरों में एक का शिखर, दक्षिण भारत के मन्दिरों की भांति द्रविड़ शैली में बना है जिसे देखकर ग्वालियर शैली का मन्दिर (तिलंगाना मंदिर) की याद आती है. हालांकि यह उतना विशाल नहीं है, फिर भी देखने में सुन्दर तो है ही. संभवतः यह रामचन्द्रजी का मन्दिर रहा हो क्योंकि इसके सामने ही हनुमान जी की एक प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित है.
(Ancient Temples of Kumaon)

भुवनेश्वर जाने वाले भक्तों को पहले पाताल भुवनेश्वर के गुफा मन्दिर के दर्शन करने होते तथा बाद में वृद्ध भुवनेश्वर के. पाताल भुवनेश्वर में प्रवेश करने के लिये सभी वस्त्र उतारने पड़ते हैं | वहां केवल धोती या जांघिया पहन कर प्रवेश करना पड़ता है. इसका प्रवेश मार्ग एक बहुत ही संकरी गुफा से है जिसमें कुछ दूर तक लेट कर नीचे उतरना होता है. अन्दर काफी लम्बी-चौड़ी गुफा में प्रवेश मिलता है. इस गुफा में हवा-पानी तो काफी है, पर प्रकाश नहीं है. इस कमी को यहां के पुजारी चीड़ की लकड़ी (छिलका) की मशाल जलाकर दूर करते हैं. यह गुफा स्टैलक्टाइट और स्टैलक्टामाइट से निर्मित विभिन्न आकारों से भरी पड़ी है, जिनमें से कोई-कोई तो बड़े सजीव से लगते हैं. लोगों का विश्वास है कि यहाँ पर 33 करोड़ देवता वास करते हैं. यह गुफा तीन खण्डों में विभक्त है तथा यहाँ तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) भुवनेश्वर महादेव के रूप में पूजे जाते हैं. लोगों की धारणा यह है कि इस गुफा में सर्वप्रथम अयोध्या के सूर्यवंशीय राजा ऋतुपर्ण ने प्रवेश किया था जो इस इलाके में आखेट को आया था और अनन्तनाग ने उनकी सहायता को थी. यह भी धारणा है कि शंकर-पार्वती यहां काफी समय तक रहे तथा अब भी उनकी जटा यहां दिखाई देती है. इस गुफा में गरुड़ भी विराजमान है, जिनका मुंह पीछे को मुड़ा हुआ है. कहते हैं कि जब गरूड़ ने अमृत का घट ले जाते समय उसमें से अमृत पान करना चाहा तो भगवान ने उसे चक्र मार कर रोका जिससे उनका मुंह पलट गया. यह भी मान्यता है कि वासुकी नाग इसी में गुफा में आकर रहे थे. इसके प्रमाण में पुजारी वहां विशाल शिला में उभरी हुई एक सर्पाकार आकृति दिखाते हैं. गुफा में विद्यमान विभिन्न आकार शिव, पार्वती, विष्णु या कोई अन्य देवी-देवता माने जाते हैं. कई स्थानों में गुफा फिर संकरी हो जाती है जिसके अन्दर देखने से प्रतीत होता है कि इसके कई खंड होंगे. यहाँ के लोगों का विश्वास है कि संकरे मार्ग भुवनेश्वर को रामेश्वर (इस पर्वत की जड़ में सरयू तथा पूर्वी रामगंगा के संगम पर निर्मित रामेश्वर का मन्दिर) तथा सेतुबंध रामेश्वर व जागेश्वर को भी मार्ग जाते हैं. जो भी हो यह गुफा अति सुन्दर है. सफाई करने से इसमें और भी जगह निकल आयेगी क्योंकि इसका काफी भाग यहां चढ़ाये जाने वाले पुष्पों तथा जलाई जाने वाली लकड़ी के ढेर तथा वर्षा के पानी के साथ वह कर आई हुई मिट्टी से भर गया है. इसकी प्रवेश गुफा को चौड़ा करने से यहां आने वाले लोग सुगमता से इसमें प्रवेश करके इसके सौंदर्य का आनन्द उठा पायेंगे.

इस भाग में कुछ नाग देवताओं के मन्दिर भी मिलते हैं, जिनमें आज भी पूजा होती है. इसका कारण अतीत काल में यहां के नाकुरी, दानपुर तथा भुवनेश्वर के इलाकों में नाग जाति के लोगों का वास होना बताया जाता है. यहां के नाग मन्दिरों के नामों के विषय में अनुमान किया जाता है कि सम्भवतः प्राचीन नाग जाति के प्रसिद्ध पुरुषों को कुमाऊँ के अन्य भागों में पूजे जाने वाले प्रसिद्ध पुरुषों- हरु, सैम, कलविष्ट इत्यादि की तरह पूजा जाता था. पिथौरागढ़ जनपद में अन्य कई स्थानों जैसे मड़ में बड़ा अदित्य, बड़ाबे में थल केदार आदि के मन्दिर है. बलुवा कोट में भी प्रतिमाओं को एक पेड़ के नीचे एक समूह में एकत्रित देखा जा सकता है. जो ग्रामीणों के देख-रेख के कारण ही बची हैं तथा इनमें से कई प्रतिमाएं सुन्दर और मध्ययुगीन हैं.
(Ancient Temples of Kumaon)

भुवनलाल शाह

यह लेख 1987 में उत्तराखंड शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित ‘उत्तराखंड’ से साभार लिया गया है. इसका सम्पादन प्रमोद जोशी द्वारा किया है.

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