समाज

दुश्मनों को धूल चटाने वाली बाबर की नानी ‘ईसान दौलत खानम’

बात 1470 के आस-पास की है, दश्त-ए-किप्चाक (तुर्किस्तान) में राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी. हाल ही में दश्त-ए-किप्चाक ने अपना शासक खोया था और नये अनुभवहीन शासक बुरुज औघलान ने गद्दी संभाली थी. मंगोलिस्तान के शासक युनुस खां के लिए इससे अच्छा कोई वक़्त नहीं हो सकता था, लिहाज़ा उसने तुर्किस्तान के इस क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया. करातुकाई नामक स्थान को युनुस ने अपना शिविर बनाने के लिए चुना और अपने साथ आई महिलाओं और बच्चों को वहाँ बसा दिया. आमने-सामने के युद्ध की रणनीति बन रही थी लेकिन इस दौरान सेना को निष्क्रिय नहीं छोड़ा जा सकता था इसलिए युनुस खां अक्सर सैनिकों को साथ ले कर जंगल में शिकार के लिए निकल जाया करता था. इससे दो समस्यायें हल हो जाती थी एक तो सेना चुस्त रहती दूसरे ताजा मांस की उपलब्धता भी बनी रहती थी.
(Aisan Daulat Begum Hindi)

शिविर में पीछे महिलाएं, कुछ बच्चे और मामूली अंगरक्षक ही रह जाते थे. ऐसी ही एक दोपहर जब युनुस खां अपनी सेना के साथ शिकार पर निकला हुआ था, बुरुज औघलान ने युनुस खां के शिविर पर आक्रमण कर दिया. शिविर में उस वक़्त कोई ख़ास सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी इसलिए बिना किसी बड़े प्रतिरोध के शिविर पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया. आक्रमणकारियों को शायद इतनी आसान जीत की उम्मीद नहीं थी, दूसरा शिविर के मालिक के जल्दी लौटने की भी कोई संभावना नहीं थी. इसलिए उन्होंने शिविर से हाथ आये माल-असबाब का आकलन करना शुरू कर दिया और हिसाब लगाने लगे कि कुल दौलत में से पांचवा हिस्सा (ख़ुम्स) जो कि शासक का भाग होता है, छोड़कर बाकी सैनिकों और सरदारों के हिस्से में कितना आएगा. इधर युनुस के शिविर की महिलाओं के लिए भी उम्मीद की लौ बुझ चुकी थी. लेकिन युनुस की बेगम ईसान दौलत खानम ने हार नहीं मानी और विपरीत परिस्थिति में भी त्वरित बुद्धि का प्रयोग करते हुए शिविर को तुर्कों से मुक्त करने की रणनीति बनाई और अपने विश्वास पात्र गुप्तचरों से युनुस को शिविर पर हमले और अपनी योजना की खबर भिजवाई.

दूसरी ओर यूनुस की सेना शिकार पर थी लिहाज़ा तितर-बितर थी. आनन-फानन में युनुस केवल अपने छह साथियों के साथ शिविर की ओर चल पड़ा. इधर खानम ने अपनी सभी महिला साथियों, सेविकाओं और रक्षिकाओं को छोटे-छोटे शस्त्र दिये और बताया कि कैसे वह सभी तुरंत आक्रमण से तुर्क सैनिकों को नियन्त्रण में ले सकती हैं और उनके शासक को घेर सकती हैं. युनुस ने शिविर के पास पहुँचते ही “नाफिर” बजा कर सूचना दी. यूनुस जैसा नाफिर बजाने वाला उस वक़्त पूरे एशिया में कोई नहीं था. नाफिर की गूँज सुनकर, युसूफ की सेना जो जंगल में थी तुरंत ही शिविर की ओर बढ़ने लगी.

युनुस के आगमन की सूचना से घबराकर बुरुज औघलान तुरंत घोड़े पर सवार हो कर भागने लगा किन्तु उसने खुद को सशस्त्र महिलाओं से घिरा पाया जिनमें न केवल सेविकाएं थी बल्कि परिवार की महिलाएं भी शामिल थी. बुरुज को बंदी बना लिया गया, यही हाल उसकी सेना का भी था. लूट के माल के बंटवारे में व्यस्त हो चुके सैनिकों पर महिलाओं ने ऐसा आक्रमण किया कि सभी बंदी बना लिए गए. महिलाओं से घिरा बुरुज निहत्था था और इससे पहले की वह कुछ सोचता युनुस वहाँ आ पहुंचा और पलभर में ही उसने बुरुज का सर धड़ से अलग कर दिया.

यह उजबेग और मंगोल संघर्ष के इतिहास की एक दिलचस्प और शानदार जीत थी. विश्व के इतिहास का पहला ऐसा किस्सा था जिसमें महिलाओं ने सूझ-बूझ और साहस से दुश्मन की एक सैन्य टुकड़ी को धूल चटा दी थी. इस जीत की सूत्रधार थी ईसान दौलत खानम, जिसने आज यह दिखा दिया कि शासक की पत्नी को वास्तव में कैसा होना चाहिए? शासक की पत्नी और उसके शिविर की महिलाएं एक शासक की कमजोरी नहीं बल्कि सबसे मजबूत स्तंभ भी बन सकती हैं. युनुस खां अब अपनी पत्नी पर शिविर का भार छोड़कर निश्चिंत भाव से भागते उज्बेगों का पीछा करने निकल पड़ा.

ईसान दौलत खानम ही भारत के पहले मुग़ल बादशाह बाबर की नानी थी. ईसान दौलत खानम मंगोल कबीलाई सरदार मीर शेर अली की पुत्री थी. मीर शेर अली मंगोलिया के एक बड़े कबीले का प्रतिष्ठित सरदार था, जिसके पौरुष ने ही उसे इस पद तक पहुँचाया था. युनुस खां चंगेज खां के पुत्र चग्ताई के वंश से था और मंगोलिया के एक बड़े भू-भाग का स्वामी था. युनुस ने अपने पिता को तेरह वर्ष की अल्पायु में ही खो दिया था. कुछ सरदारों ने राजनीतिक षड्यंत्र कर युनुस को गद्दी से बेदखल कर उसके छोटे भाई ईसा बुघा खां को काखान (शासक) बना दिया और शासन को अपनी मर्जी के मुताबिक चलाने लगे. यूनुस के कुछ स्वामिभक्त सरदारों ने उसे साथ लेकर पश्चिमी मंगोलिस्तान में जाने का निर्णय लिया.
(Aisan Daulat Begum Hindi)

पश्चिमी मंगोलिस्तान में उस वक्त तैमुर के पुत्र सुल्तान शाहरुख मिर्जा का पुत्र उलुग वंश मिर्जा गवर्नर था. उसने निर्वासित राजकुमार को अपने पिता के संरक्षण में भेज दिया. इस तरह युनुस के शुरूआती इकतालीस साल तक का जीवन तैमूर वंश के सुल्तानों के संरक्षण में बीता. सुल्तान शाहरुख ने उसकी शिक्षा-दीक्षा का अच्छा प्रबंध किया, उस दौर के सुप्रसिद विद्वान व कवि मौलाना शफरुद्दीन याजदी से उसने शिक्षा ग्रहण की. एक लम्बे समय तक तैमुर परिवार में अतिथि रहने के बाद सुलतान अबू सईद मिर्जा ने उसे मंगोलिस्तान भेजा. युनुस खां लम्बे समय तक अपनी मातृभूमि से दूर रहा था. किन्तु अपने पिता का ज्येष्ठ पुत्र होने और सुलतान अबु सईद मिर्जा का संरक्षण प्राप्त होने के कारण जल्द ही हवा उसके पक्ष में हो गयी और वह “काखान” बन गया.

इस बदली हवा को भांप कर मीर शेर अली ने युनुस खां से अपनी बेटी की शादी का प्रस्ताव रखा जो कि युनुस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. यह विवाह विशुद्ध रूप से राजनैतिक था. इससे मीर शेर अली के कबीले की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और युनुस को स्थानीय समर्थन प्राप्त हुआ. इस विवाह समझौते में युनुस का पलड़ा भारी रहा क्योंकि उसे सामरिक, राजनीतिक फायदों के साथ-साथ एक साहसी जीवनसंगिनी भी प्राप्त हुई जो जीवन भर कंधे से कंधा मिला कर उसका हर परिस्थिति में साथ देती रही. ईसान न केवल साहसी थी बल्कि सहृदय भी थी उसके अपनी सौत शाह बेगम बद्क्शी के साथ भी अच्छे संबंध थे.

युनुस की ईसान बेगम से तीन बेटियां मिहिर निगार, कुतलग निगार, खूबनिगार और दो बेटे महमूद खां और अहमद खां हुए. उसकी दो पुत्रियों के विवाह सुल्तान अबू सईद के पुत्रों से हुए. मिहिर निगार का विवाह समरकंद के शासक सुल्तान अहमद मिर्जा से, कुतलुग निगार खानम का विवाह उमर शेख मिर्जा से जो फरगना का शासक था और तीसरी पुत्री खूब निगार का विवाह मुहम्मद हुसैन दोघ्लात से हुआ.

ईसान खानम का चरित्र बेहद दिलचस्प है. वह अनेक बार शत्रुओं के हाथों में पड़ी और बुरी तरह घिर गयी लेकिन उसने अपने साहस और बुद्धिमत्ता से हर बार शत्रु को धूल चटा दी. उसके साहस के पहले किस्से से तो हम परिचित हो चुके है. ईसान के जीवन की दूसरी महत्वपूर्ण घटना 1472 -73 ईसवी की है.

उस साल मंगोलिस्तान में फसल अच्छी नहीं हुई थी इसलिए युनुस खां ने राज्य हित में अपने दामाद अहमद मिर्जा की सल्तनत के व्यापारिक नगर ताशकंद में खरीददारी करने के लिए जाने का फैसला किया. ईसान बेगम को साथ ले कर युनुस ताशकंद पहुंचा. युनुस, ताशकंद में बचपन से ही घूमता आया था उसे ये शहर अपना सा लगता था इसलिए उसने सुरक्षा के कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं किये और न ही कोई विशेष सतर्कता बरती. वो अपने मित्रों और मिर्जाओं के साथ जौं के बाजार में दाम पता कर रहा था कि अचानक वहाँ के गवर्नर खर ने उसके सामने आदर प्रकट करने का ढोंग करते हुए उसे बंदी बना लिया. यह इतना अचानक और अप्रत्याक्षित था कि युनुस के अमीर और सेना हतप्रभ रह गए और उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया. कोई भी यह नहीं समझ पा रहा था कि दामाद के राज्य में ससुर को क्यों बंदी बनाया गया.

दरअसल ताशकंद का गवर्नर अमीर शेख जमाल खर स्वार्थी, कपटी और अहंकारी था. इसके अलावा अहमद मिर्जा के प्रति वह अवज्ञाकारी था या कहें कि कुछ विद्रोही था इसलिए उसने युनुस खां और अहमद मिर्जा दोनों को नीचा दिखाने की कोशिश की. युनुस खां को बंदी बना कर भी उसका पतित हृदय शांत नहीं हुआ तो उसने युनुस खां की पत्नी ईसान बेगम को अपने एक अधीनस्थ और मित्र ख्वाजा कलान को पुरस्कार स्वरूप दे दिया. जब ईसान बेगम ने यह निर्णय सुना तो वह मौन हो गयी और उन्होंने अपनी तरफ से इस प्रस्ताव का कोई विरोध नहीं किया. उनके मौन को उनकी स्वीकृति समझ लिया गया. आमजन और अमीर सभी हतप्रभ थे जो ईसान बुरुज औघलान को अपनी चतुराई से मात दे सकती थी वह इस प्रस्ताव को कैसे मान गयी? क्या उम्र ने बेगम की क्षमता को कम कर दिया है या फिर बेगम और युनुस के रिश्ते अच्छे नहीं?

ताशकंद में हर कोई नये-नये सवाल खड़े करने लगा और खुद ही जवाब बना कर हवा में उछाल रहा था. इन सब बातों से खुश ख्वाजा, बेगम से मिलन के ख्वाब बुनते-बुनते प्रसन्न मन से बेगम को आवंटित किये गए घर की ओर बढ़ चला. वहाँ के द्वारपालों से लेकर नौकर चाकरों ने उसका अभिवादन किया और बेगम के क़क्ष में प्रवेश करने दिया. इस बात का अर्थ ख्वाजा ने यह लगाया कि हो न हो बेगम उससे मिलने के लिए उत्साहित है.
(Aisan Daulat Begum Hindi)

ख्वाजा के कक्ष में पहुँचते ही ईसान ने दरवाज़ा बंद कर कुण्डी चढ़ा दी. ख्वाजा और अधिक प्रसन्न हो गया किन्तु अगले ही पल सारा मंजर बदल गया. सभी दरवाजे-खिड़कियों के पर्दों के पीछे से महिलाएं प्रकट होने लगी और इससे पहले की ख्वाजा संभल पाता महिला टुकड़ी ने नुकीले चाकुओं से गोद कर उसकी हत्या कर दी. रात भर यूं ही पड़ा रहने देने के बाद सुबह ख्वाजा के शव को उसी मकान के दरवाज़े पर फेक दिया गया. दरअसल बेगम का चुप रहना उसकी स्व मुक्ति और ख्वाजा को सबक सिखाने की योजना का एक हिस्सा था. शिविर काण्ड के बाद दक्ष हो चुकी महिला रक्षिकायें उसके साथ सदा सेविका, परिचारिका आदि बनकर रहती थी. किसी को खबर नहीं थी कि साधारण दिखने वाली सेविकाएं वास्तव में सैनिकों की भांति प्रशिक्षित हो सकती है.

शव के पड़े होने का समाचार भी आग की तरह सारे शहर में फ़ैल गया. वो लोग जो ईसान की बुराई करते नहीं थक रहे थे अब उसके साहस, बुद्धिमता और धैर्य की भूरी-भूरी प्रशंशा करने लगे, सारा शहर उस के आकर्षण में बंध गया.

गुप्तचरों द्वारा ये सूचना जब गवर्नर को मिली तो उसने तत्काल एक जाँच समिति बनायी, दरअसल उसकी इच्छा ईसान को मृत्युदण्ड देने की थी. गवर्नर ने बड़ी चालाकी से समिति का गठन किया. समिति में न केवल अमीरों को रखा गया बल्कि विधि-विशेषज्ञों को भी इसका हिस्सा बनाया ताकि तुरंत निर्णय हो सके. सभी ईसान के घर पहुँचे, उनके साथ इस दिलचस्प घटना का अंजाम जानने को आतुर बहुत से आमजन भी थे. ख्वाजा का शव जस का तस वहीं पड़ा था. वहां पहुँचते ही समिति के सदस्यों ने ईसान के ऊपर प्रश्नों की बौछार कर दी. ईसान ने अपने उपर लगाये गए सभी इल्जामों को धैर्यपूर्वक सुना और शांत स्वर में उत्तर दिया

मैं काखान सुल्तान युनुस की पत्नी तथा एक प्रतिष्ठित महिला हूँ, जिसका दामाद इस समरकंद का शासक है. मेरे पति के जीवित रहते शेख जमाल को क्या अधिकार है कि वो मुझे अपने किसी अधीनस्थ को पुरस्कार स्वरूप दे. यह शरीयत के खिलाफ तो है ही बल्कि कुरान के अनुसार भी गलत है. इसलिये मेरे पास अपने धर्म और पत्नी धर्म को बचाने का कोई रास्ता नहीं था. मैंने हत्या नहीं की है, मैंने पैगम्बर के उसूलों और आत्मरक्षा हेतु कदम उठाया है. यदि मेरा यह कृत्य अपराध है तो मुझे दंड दिया जाये किन्तु मुझे कोई ग्लानि या अपराधबोध नहीं है.
(Aisan Daulat Begum Hindi)

न्याय स्पष्ट था, कानून के अनुसार भी मृत्युदण्ड केवल शासक दे सकता था जो ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था. गवर्नर कुछ विशेष परिस्थितियों में ही मृत्युदण्ड की केवल संस्तुति भर दे सकता था. शेख जमाल कुछ न कर सका क्योंकि ईसान की बुद्धिमता से न केवल अमीर बल्कि जनसाधरण भी मुग्ध हो चुके थे. अब ईसान को मृत्युदण्ड देने का मतलब का बगावत को हवा देना होता. शेख जमाल ने इस प्रकरण को यहीं छोड़कर ईसान को ससम्मान उसके पति युनुस खां के पास बंदी गृह में भेज दिया. बंदी गृह में दोनों एक वर्ष तक रहे, वहां भी बेगम न केवल अपने पति युनुस खां को ढाढ़स बधाती रही बल्कि उसने अपनी रिश्तेदारियों का फायदा उठाकर अमीर अब्दुल कुद्दुस को अपनी ओर मिला लिया. अमीर उसे माँ के समान मानता था और उसका प्रशंसक भी था. उसने शेख जमाल को न केवल मौत के घाट उतारा बल्कि उसका सिर दम्पति के सामने पेश किया और उन्हें ससम्मान कारागार से मुक्त किया. कारागार से मुक्त होने के बाद ईसान ने अमीरों से बात करके इस घटना का कारण पता करने की कोशिश की और सभी कारणों को खत्म कर दिया.

1472-73 के पश्चात युनुस खां के राज्य में कभी विद्रोह नहीं हुए. युनुस हमेशा ईसान से परामर्श लेकर ही अपने राज्य की नीतियां निर्धारित करता रहा. ईसान की सहायता से सुशासन कर उसने शासक के रूप में उज्ज्वल छवि बनाई. 1485 में युनुस पक्षाघात का शिकार हो गया, उस वक़्त ईसान ने मानवीयता और पत्नीव्रत की ऐसी मिसाल पेश की जो बाद की मुग़ल महिलाओं के लिए एक नजीर बनी. युनुस पक्षाघात के बाद दो वर्ष जीवित रहा और इन दो वर्षो में ईसान ने युनुस की खूब सेवा की और उसे कभी कोई असुविधा नहीं होने दी. 1487 में युनुस के दुनिया को अलविदा कहने के बाद ईसान ने ताशकंद में युनुस के लिए एक भव्य मकबरा बनवाया.
(Aisan Daulat Begum Hindi)

युनुस की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के झगड़ों से मंगोलिस्तान को सुरक्षित करते हुए उसने अपने दोनों पुत्रों की रूचि के अनुरूप उनमें साम्राज्य का विभाजन कर दिया. बाबर के जन्म के वक़्त युनुस और ईसान फरगना गए. बाबर के नाम से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है कि बाबर के ननिहाल वाले उसके अरबी नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद के उच्चारण में कठिनाई महसूस करते थे. इसलिए बाबर की नानी ईसान बेगम ने उसे एक मंगोल नाम बाबर दिया. ईसान का दिया यही नाम पूरे विश्व और इतिहास में उसके नाती की पहचान बना.

ईसान के लिए मुश्किल वक़्त अभी खत्म नहीं हुआ था. बाबर का पिता उमरशेख मिर्जा ऐसे समय में दुनिया से कूच कर गया जब बाबर के दोनों मामा महमूद और अहमद और बाबर का चाचा सुलतान अहमद मिर्जा उसके विरुद्ध युद्धरत थे. ऐसे में पितृहीन बाबर को साहस बंधाने ईसान अंदिजान पहुंची और एक बार फिर अपनी चतुराई और बुद्धिमता से सारे संकटों को हल किया. बाबर अपनी नानी की बुद्धिमता, निर्णय क्षमता और तार्किकता का बड़ा प्रशंसक बन गया. ईसान बेगम ने ही बाबर को निजी जीवन में भी अनुशासित और मर्यादित रहने की शिक्षा दी. ईसान बेगम की बात मान कर बाबर ने न केवल अपनी दिनचर्या नियमित की बल्कि वह दिन में दो बार दरबार लगाने लगा उसने धर्म निषेध भोजन का त्याग किया. इसी नियमित दिनचर्या ने बाबर को बलशाली और विजेता बनाया.

ईसान लम्बे समय तक बाबर की संरक्षक और मार्गदर्शक बनी रही. कठिन परिस्थितियों में भी हार न मानने की बाबर की प्रवृति उसकी नानी की शिक्षा का ही परिणाम था. बाबर अपनी “तुजुक” में अपनी नानी की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है. हमें ईसान बेगम की अंतिम सूचना बाबर की तुजुक में जून 1505 ई. के विवरण में मिलती है जब बाबर मातृ शोक में था तभी उसे अपनी नानी के देहावसन की सूचना भी प्राप्त होती है. यह दुर्भाग्य है कि ईसान बेगम जैसी शख्शियतों को इतिहास की किताबों में बहुत कम जगह मिली है क्योंकि यह दुनिया पौरुष की आग्रही है, लेकिन पौरुष की आग्रही इस दुनिया में स्त्रीत्व का सितारा बुलंद करने वाली ईसान बेगम अपने व्यक्तिव और कृतित्त्व से अमर हो गई.
(Aisan Daulat Begum Hindi)

अपर्णा सिंह

इतिहास विषय पर गहरी पकड़ रखने वाली अपर्णा सिंह वर्तमान में सोमेश्वर महाविद्यालय में इतिहास विषय ही पढ़ाती भी हैं. महाविद्यालय में पढ़ाने के अतिरिक्त अपर्णा को रंगमंच पर अभिनय करते देखना भी एक सुखद अनुभव है.

इसे भी पढ़ें: पुरुषों के वर्चस्व वाले परम्परागत पेशे को अपनाने वाली सोमेश्वर की ‘गीता’ की कहानी

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • बहुत ही रोचक जानकारी साझा करने के लिए आपका धन्यवाद.... 🙏🏻

  • राष्ट्रघाती विषय , रचनाकार नारीवाद की आड़ में समाज के चिंतन को गलत दिशा देने का प्रयास कर रही हैं। हिंदुओ का यही दुर्भाग्य है कई रूपों में जयचंद समय समय पर देश का अहित करते रहते हैं । इस लेख के विषय से बहुत निराशा हुई ।

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago