पर्वतीय कृषि के विकास की बाधायें, पर्वतीय कृषि का भावी परिदृश्य एवं समस्याओं के समाधान हेतु कुछ सुझाव
पंकज सिंह बिष्ट
कल्पना करें कि आने वाले कुछ बरस बाद हमारे पहाड़ के सारे गाँव बीरान हो गये, कृषि भूमि में केवल घास ही घास दिखाई दे, टूटे और जर-जर घरों के छज्जों से झुर्रियों से भरा किसी बूढ़ी अम्मा या बूबू (बुजुर्ग) का चेहरा एक टक उन खेतों की ओर निहार रहा हो जिनमें कभी फसलें लहलहाती थी. उनके कान आज भी अपने आँगन में खेलते उन बच्चों की किलकारी और मासूम खिल-खिलाहट की गूंज को महसूस कर रहे हैं. आँगन के एक कोने में बंधी गाय आवाज लगा रही है. कोई बैंलों को आगे- आगे हाँकते हुये कंधे में हल लेकर अपनी पत्नी के साथ खेत की जुताई करने जा रहा है. लेकिन तभी उनकी तंद्रा टूटती है और पथराई बूढ़ी आँखों से पानी की एक धार फूट पड़ती है.
यह सारी घटना उसी गाँव के एक युवा के सामने घट रही हैं जिसके पिता वर्षों पहले गाँव छोड़कर किसी शहर में चले गये. इस ख्वाब में कि मैं ढेर सारा पैसा कमाऊँगा और जिससे मेरा और परिवार का जीवन आसान और सुखःमय हो जायेगा. लेकिन आज जो घटना उस युवा के सामने घट रही है, उसके लिए वह किसे जिम्मेदार ठहरायें? आप बताईये आप किसे जिम्मेदार मानते हैं? क्या खुद को जिम्मेदार नहीं मानते?
अब आप कहेंगे ऐसा भला कहीं होता है? भला ऐसे भी कोई आलेख लिखा जाता है. मैं कहता हूँ ऐसा ही है और ऊपर कही गई बात कल्पना नहीं हमारे पहाड़ के गांवों की सच्चाई है. चलिए आप काफी बुद्धिमान हैं आप ऐसे नहीं समझ पायेंगे, आखिर पहाड़ी गवाड़ी की जो छवि बनी ठैरी. आपको समझाने के लिए आँकड़ों की भाषा में बताना पड़ेगा और वह भी पुख्ता प्रमाण के साथ, तो चलिए आपको आँकड़े दिखाये जायें.
राजस्व विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय 9 नवम्बर 2000 को राज्य में 776191 हेक्टेयर कृषि भूमि थी. जो अप्रैल 2011 में घटकर 723164 हेक्टेयर रह गई. इन वर्षों में 53027 हेक्टेयर कृषि भूमि कम हो गई. इसका सीधा मतलब यह हुआ कि इनते समय अंतराल में औसत 4500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष की गति से खेती योग्य जमीन कम हुई है. अच्छा मुझे पता है आप संतुष्ट नहीं हुये चलिए कुछ और आँकड़ों से समझाने की कोशिश करता हूँ. अगस्त 2018 में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने प्रदेश में घट रही कृषि भूमि की ओर आम जनों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की थी. इस विषय पर तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा और मनोज तिवारी की बेंच ने 226950 किसानों द्वारा पर्वतीय क्षेत्र से पलायन करने की बात कही थी. इस दौरान कोर्ट ने बीते वर्षों में प्रदेश के जनपदों में क्रमशः अल्मोड़ा से 36401, पौड़ी से 35654, टिहरी से 33689, पिथौरागढ़ से 22936, देहरादून से 20625, चमोली से 18536, नैनीताल से 15075, उत्तरकाशी से 11710, चम्पावत से 11281, रूद्रप्रयाग से 10970, बागेश्वर से 10073 किसानों द्वारा पलायन करने की बात कही थी.
ज्ञात हो कि हमारे इस पर्वतीय क्षेत्र में 90 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं. प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में केवल 20 प्रतिशत भूमि ही कृषि योग्य है, शेष 80 प्रतिशत भूमि अप्रयुक्त है या फिर वह बेची जा चुकी है. इस 20 प्रतिशत कृषि भूमि में से भी केवल 12 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है और 08 प्रतिशत वर्षा आधारित है.
शायद इन आंकड़ों से पहाड़ी कृषि की स्थिति का थोड़ा अंदाजा आपको लगने लगा होगा. वास्तविकता को अगर गहराई से देखा जाय तो अंदर स्थिति और भी खराब है. मेरा यह दावा ऐसे ही हवा में नहीं है और न ही मैं हवाई घोड़ों की सवारी पसंद करता हूँ. इस आलेख में आगे अभी बहुत कुछ है जो आपके अंदर गहराई में दुबक कर बैठे सामाजिक प्राणी की आँखें खोल देगा.
कुछ वर्ष पहले तक बोरियों के हिसाब से अनाज और खाद्यान्न पैदा करने वाला पहाड़ी किसान, आज अपना पेट भरने के लिए महज 10 से 20 किलों गेंहू और चावल लेने के लिए सस्ते गल्ले की दुकान पर लगी लम्बी लाईन में अपनी बारी का इंतजार करते हुऐ मिलता है. इसके बाद भी शान से उस पोटली को घर ले जाता है. हमारे नीति निर्माताओं ने आज किसान को किस हालत पर पहुँचा दिया है, यह सोचने और विचार करने वाला मुद्दा है.
मैं पिछले 11 वर्षों से अपने इस प्रदेश के कई हिस्सों में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर काम के अतिरिक्त सामाजिक अध्ययन भी कर रहा हूँ. इस अवधि के दौरान पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अध्ययन करने, लोगों के साथ बात करने तथा उनके जीवन और उनके द्वारा की जा रही खेती को देखने और समझने का अवसर मुझे मिला.
पर्वतीय कृषि का गहराई से अध्ययन करने से पता चलता है कि इसके कई घटक हैं जो इसे सीधे प्रभावित करते हैं. जिसमें विषम भौगोलिक स्थिति, जलवायु, पारिस्थितीकीय तंत्र, जल की उपलब्धता एवं संग्रहण क्षमता, कृषि कार्य का तकनीकी ज्ञान, खेती किसानी के प्रति रहनवासियों का सोचने का नजरिया एवं दूसरों में निर्भरता, सामाजिक सहयोग, राजनैतिक इच्छा शक्ति, ग्रामीण विकास से जुड़े विभागों की कार्य शैली जैसे विभिन्न घटक सामिल हैं. किन्तु कुछ मूलभूत घटक हैं जो पर्वतीय कृषि और यहां के वासिन्दों को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं.
पिछले कई दशकों से उत्तराखण्ड में खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि विकास की दर घटती जा रही है. इसके मूलभूत कारणों को समझने के लिए हमें वास्तविक गहराई में उतरना ही होगा. मैं एक किसान परिवार से हूँ. इसलिए वास्तविकता को प्रकट करना ही मेरा एक मात्र उद्देश्य है. एक बार को बड़े-बड़े कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक, कृषि से संबंधित विभागों के अफसर और राजस्व विभाग के अधिकारी हमारे पहाड़ की वास्तविकता को दबा सकते हैं. क्योंकि यह सब लोग राज्य स्थापना के बाद से कई करोड़ रूपया सरकार का केवल इन्हीं समस्याओं को सुलझाने में खर्च कर चुके हैं. अगर वह वास्तविक आंकड़े प्रस्तुत करते हैं तो उनकी ही कार्यशैली में सवाल उठने लगेंगे. लेकिन मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य किसी भी प्रकार से वास्तविकता को उजागर करना है. ताकि हम सच्चाई को स्वीकार करते हुये कम से कम अब तो समाधान की ओर सोचना और प्रयास करना प्रारंभ करें. यह किसी सच्चाई को छिपाकर रेत में महल बनाने से तो अच्छा ही रहेगा.
चलिए अब कुछ समस्याओं को देखने और समझाने का प्रयास करें. हो सकता है यह आपके लिए नई नहीं हो या शायद हो भी. मेरी नजर मैं यह पर्वतीय कृषि को प्रभावित करने वाली मूल समस्यायें हैं. यहां हम केवल समस्याओं पर ही चर्चा नहीं करेंगे बरन उसके कारणों की तह तक की यात्रा करने का प्रयास भी करेंगे. लेकिन यहां मेरे जैसे छोटे से लेखक के लिए एक समस्या है, मैं अपने द्वारा लिखे हर तथ्य के लिए आँकड़े उपलब्ध नहीं करा सकूँगा. मेरा मानना है कि, अगर मैं ही सारे काम करके दे दुँगा तो फिर आप क्या करेंगे. कम से कम मेरी लिखे तथ्यों को पढ़कर कुछ तो कसरत आपको भी करनी चाहिए. मैं अपने आलेख को इतना आसान बनाना चाहता हूँ कि, इसे प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति समझ सके. क्योंकि यदि इसे वह न समझ पाये जो इस समस्या से वास्तव में ग्रसित हैं तो लिखने की सार्थता ही क्या रह जायेगी. मैं चाहता हूँ कि यह लेख किसी किताब में कैद होकर किसी पुस्तकालय के धूल भरे कोने में न पढ़े रहें.
तो चलिए समस्याओं, समस्या के कारणो और अपने स्तर से किये जा सकने वाले समाधानों की ओर चलते हैं-
जी आपने विल्कुल ठीक पढ़ा है. पानी का अभाव या कमी आज पर्वतीय कृषि ही नहीं यहां के रहनवासियों के लिए भी समस्या बन चुका है. पर्वतीय कृषि लगभग 95 प्रतिशत वर्ष पर आधारित है. अगर समय पर बारिस हो गई तो ठीक नहीं तो फसल खत्म ही समझो. विगत कई वर्षों से अधिकतर यही हुआ है. ऐसी नदियाँ जो सदानीरा रहती थी, वह बरसाती नालों में तबदील हो गई हैं. स्थनीय प्राकृतिक जल स्रोत सूख गये हैं. लोगों को पीने को पानी नहीं मिल रहा है तो सिचाई के लिए पानी की कामना करना गंगा लाने के लिए भगीरथ की तरह तपस्या करने के बराबर है.
अब थोड़ा समस्या की गहराई वाली यात्रा पर चलते हैं. इसके लिए यही कुछ दो दशक पहले हाँ हाँ लगभग 20 वर्ष पूर्व जाना पड़ेगा. यही 90 के दशक के अंतिम वर्षों में जहां उत्तराखण्ड को एक पहाड़ी राज्य के रूप में अलग राज्य बनाने की कवायद अपने चरम पर थी. वहीं कुछ स्थानीय और बाहरी लोगों ने यहां जमीनों की खरीद फरोख्त का काम शुरु किया. औने-पौने दामों पर जमीने बेची और खरीदी गई. इसमें ऊंचाई वाले इलाकों की जमीने शामिल थी. फिर उत्तराखण्ड राज्य अलग हुआ तो इस काम में एक बड़ा उछाल आ गया. बाहरी राज्यों के लोगों को यहां की प्राकृतिक सुन्दरता और जलवायु काफी पसंद आने लगी. इसी के साथ इन बिकी जमीनों में कंक्रीट के जंगल उगने लगे, आलिशान होटलों और कोठियों का निर्माण होने लगा.
अब आप कहेंगे की इसका पानी से क्या संबंध है, अगर आप थोड़ा भी विज्ञान की समझ रखते हैं तो आपको समझने में आसानी होगी. इस प्रकार के अनियंत्रित निर्माण ने उन प्राकृतिक जल स्रोतों एवं नदियों के जलागम क्षेत्रों को प्रभावित किया जिससे यह रीचार्ज होते हैं. इसके साथ ही इन जमीनों के आस-पास के जल स्रोतों पर उन बाहरी लोगों ने अधिकार स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की आपूर्ती होती थी. कंक्रीट के कारण वर्ष जल भूमि के अंदर न जाकर ऊपरी रूप में बह जाता और भूमिगत स्रोत लगातार उपयोग से सूखते जाते. अब आप समझ गये होंगे की समस्या की जड़ क्या है.
चलिए अब इस समस्या के समाधान पर भी चर्चा कर लें. इससे बिन्दुवार एक समझ बनती जायेगी.
समाधान आसान है. अब उन बिल्डिंगों को उखाड़ा तो जा नहीं सकता लेकिन शेष बची जमीनों को बेचने से तो रोका जा सकता है. लेकिन इसके लिए भी किसी के साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती, लेकिन इस कृत्य को करने की इच्छा रखने वाले को समझाया जा सकता है. इसके साथ ही प्रत्येक गाँव में वर्ष जल संग्रहण के लिए कुछ कम लागत के टैंकों का निर्माण किया जा सकता है. लेकिन यह करने से पहले लोगों को इसकी उपयोगिता के प्रति जागरूक करना आवश्यक है. लोग स्वयं इसकी उपयोगिता को समझे और इस कार्य में लगने वाले श्रम में अगर संभव हो तो पूरी लागत को खुद वहन करें. आखिर इसका लाभ भी तो उन्हें ही मिलना है. इससे लोग अपने स्तर पर वर्षा जल को संरक्षित कर सकेंगे. जिसका प्रयोग जानवरों को पिलाने, खेतों में सिचाई के लिए, अगर ठीक से वर्षा जल को संरक्षित किया जाय तो उसका उपयोग लोग स्वयं पीने के लिए भी कर सकते हैं.
हमारे पहाड़ी क्षेत्रों में श्रमदान या पल्टे या एक दूसरे के यहां मदद में जाने का काफी पुराना रिवाज है. लेकिन वर्तमान समय में इस रिवाज की सांसें भी उखड़ने लगी हैं. हमें इसे दुबारा प्रचलन में लाने की आवश्यकता है. इस काम में युवा साथी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. कुछ समय निकान कर वन क्षेत्रों और खाली पडे़ स्थानों पर चाल खालों का निर्माण किया जाय. जिसके किनारों या आस-पास वृक्षारोपड़ या घास लगाई जा सकती है. इससे पानी की समस्या से निपटने की ओर सहायता प्राप्त होगी. अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह आपके लिए कोई और आकर करेगा या आपको लगता है कि यह जिम्मेदारी सरकार की है तो मैं समझता हूँ कि आप जैसा कर्महीन कोई और नहीं है. यह सोच अपने मन में लाने से पहले हमें विगत 19 सालों में दूसरों पर अथवा सरकार पर निर्भर रहने के नतीजों पर विचार करना चाहिए. जिन्हें आलेख के प्रारंभ में ही बता दिया गया है. अब आप तय करें कि हमें समय रहते समाधान की ओर जाना है या समस्या को और गहराते हुये देखना है.
अब अगर मैं यह कहूँ कि कोई आपके घर में आकर उसे उजाड़ दे तो आप क्या करेंगे? मुझे पता है आप उसका विरोध करेंगे. लेकिन अगर आपकी नहीं चली और वह आपका घर उजाड़ गया तो आप चोरी-छुपे जब भी मौका मिलेगा उसका घर उजाड़ने का मौका नहीं गवायेंगे. आप माने या न माने जंगली जानवरों के कृषि क्षेत्र में बढ़ते दखल के पीछे भी यही बात लागू होती है.
अब आप कहेंगे हम तो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं हमने तो जंगल नहीं काटे. लेकिन रूकिये-रूकिये यह करने वाला भी तो इंसान ही है ना आँखिर जैव वैज्ञानिक नजरिये से देखा जाय तो ठैरा तो वह हमारी ही बिरादरी का न. अब क्या फर्क पड़ता है जंगल मैंने काटा या मेरे पड़ोसी ने या आपने काटा या आपके पड़ोसी ने. अब जानवर यह थोड़े न देखता है कि इसने जंगल काटा मैं इसकी फसल खा दूँ व बरबाद कर दूँ या इसने जंगल नहीं काटा इसका नुकसान नहीं करना चाहिए. उसकी नजर में तो वहां कुछ लगा है जिससे उसका पेट भर सकता है, उसे पेट की आग बुझाने से मतलब.
अब आप समस्या समझ गये तो समाधान भी आपके ही पास है. अपनी फसल बचानी है तो समाधान भी आपको ही करना पड़ेगा. नहीं तो गाँव खेती छोडनी पड़ेगी, शहरों की खाक छाननी होगी, 42 डिग्री तापमान में रहकर काम करना पड़ेगा. इन सारी समस्याओं को झेलने से अच्छा है कि समस्या समाधान के लिए सरकार या किसी दूसरे की ओर टकटकी लगाने के बजाय खुद प्रयास किये जायें. आखिर इस हालत के लिए हम और आप ही तो जिम्मेदार हैं. हाँ अगर सरकार से कुछ सहायता मिल जाय जिससे तुरंत कुछ मदद मिले तो लेने में गुरेज नहीं है. लेकिन यह सहायता क्षणिक ही होगी. आपको स्थाई समाधान की ओर प्रयास करने होंगे.
समस्या का स्थाई समाधान यह है कि हमें जंगलों को संरक्षित करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना होगा. वन क्षेत्रों में फलदार पेड़ों का वृक्षारोपण करना होगा. अगर एक परिवार हर साल 20 पेड़ अपने बगीचों में लगाता है तो 10 जंगल में भी लगाने चाहिए. इसी प्रकार कुछ जंगली कंद के बीज जैसे गेठी, तौड़, मंगायल आदि के बीज जंगलों में लगाये जाय. जंगली फलों के पेड़ तैयार कर जंगलों में रोपित किये जायें जिनमें बांज, रयांज, बमोर, पांगर, काफल, तिमिल, बेडू, काकू, घिंगारू, किलमोड़ा आदि जो भी हो. इसके साथ ही यह गतिविधि नियमित रूप से प्रतिवर्ष विभिन्न मौसमों में दौहराई जानी चाहिए. आपको पता होना चाहिए कि इसके परिणाम या लाभ आपकों तुरंत नहीं मिलेंगे लेकिन समय के साथ-साथ इसके बेहतर परिणाम आपको जरूर देखने को मिलेंगे.
इसके अतिरिक्त चीड़ उन्मूलन, उसके स्थान पर चौड़ी पत्तेदार पेड़े के रोपड़ को बढ़ावा दिया जाय और सामुदायिक रूप में जंगलों को दवाग्नि से बचाना भी होगा. यहां पर सामुदायिक रूप से इस लिए भी कहा जा रहा है कि, जंगलों में लगने वाली आग के लिए 90 प्रतिशत इंसान ही जिम्मेदार होता है. लोग अपने छोटे-छोटे लालचों के चलते एक बड़ा अपराध कर बैठते हैं. इस विषय पर अपने बच्चों को भी बताया जाना चाहिए.
इसके परिणाम यह होंगे कि धीरे-धीरे जंगली जानवरों को उनका भोजन वन्य क्षेत्रों में ही मिलने लगेगा तथा वह आवादी क्षेत्रों का रूख नहीं करेंगे. इस काम को भी आपसी सहयोग से किया जा सकता है.
आप माने या न माने लेकिन सरकारी सब्सिडी एवं सरकारी योजनाओं पर निर्भरता पर्वतीय कृषि एवं लोगों के मानसिक पतन का एक बड़ा कारण है. आज लोगों को 2 से 5 रूपया प्रति किलो राशन उपलब्ध हो रहा है तो वह मेहनत क्यों करे? मेरी इस बात से शायद आप सहमत न हों लेकिन यह एक सच्चाई है. कुछ लोगों के लिए यह आवश्यक हो सकता है लेकिन सबके लिए यह करना उन्हें विकलांग बनाने जैसा ही है. यह काला बाजारी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है. सरकारें इस ओर ठोस निर्णय इसलिए नहीं ले पाती हैं क्योंकि ऐसा करने से उनका बोट बैंक खतरे में पड़ जायेगा.
यहां पर कुछ तथ्य केवल समस्या की गंभीराता को समझने के लिए आवश्यक हैं. इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मेरा किसी योजना को गलत ठहराना या किसी विभाग या संस्था में आरोप लगाना है. राज्य विभाजन के बाद से हमारे छोटे से राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार ने करोड़ो रूपये की योजनाओं का संचालन किया. कुछ योजनायें तो ऐसी भी हैं जिनमें मुश्किल से 200 से 300 की आबादी वाले गाँव के लिए 1 करोड़ रूपया तक आवंटित किया गया था. आप इस बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि इतनी जनसंख्या वाले गाँव के लिए एक करोड़ रूपया कोई छोटी रकम नहीं है. लेकिन उन गांवों के वासिन्दों के जीवन स्तर पर, आजीविका व कृषि में कितना सुधार आया यह अपने आप में एक पहेली ही है. इस तथ्य को प्रर्दशित करने का उद्देश्य आपकों सरकारी योजनाओं की कार्यशैनी में उलझाना नहीं है. मैं यह कहना चाहता हूँ कि निर्भरता को कम किया जाना चाहिए.
सरकार का काम है कि वह अपनी जनता के कल्याण के लिए विभिन्न योजनाओं का संचालन करें. उसके जीवन स्तर को सुधारने का प्रयास करे. लेकिन जनता का भी एक नैतिक कर्तब्य है कि वह उन योजनाओं के नियोजन एवं क्रियान्वयन में सहभागी बने. वह योजना संचालनकर्ताओं से प्रश्न करें और समुदायिक हित के कार्यों को करने के लिए एक दबाव समूह की भूमिका निभाये. गाँव के लोग स्थानीय जनप्रतिनिधियों का चुनाव सोच समझकर करें और जब भी मौका मिले उनसे सवाल करें. इनसे योजनाओं के क्रियांवयन में सजगता और पारदर्शिता आयेगी. प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार योजनाओं का लाभ मिलेगा.
उक्त के अतिरिक्त पर्वतीय कृषि को जीवित करने के लिए समेकित कृषि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इससे किसानों का जोखिम चाहे वह जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभावों से हो या जंगली जानवरों के कृषि क्षेत्र में बढ़ते दखल से हो काफी हद तक कम किया जा सकता है. इसके बाद प्राप्त कृषि उत्पादों के विपणन के लिए स्वायत्त सहकारिताओं को माध्यम विपणन किया जाय. जिसमें संबंधित क्षेत्र के किसानों की भगीदारी हो तथा किसानों को स्वयं के उत्पादों के विपणन हेतु सक्षम बनाने का प्रयास किया जाय.
कृषि उत्पादों का मूल्यवर्धन करने तथा स्वायत्त सहकारिता के माध्यम उसकी ब्रांडिग और विपणन किया जाय. सहकारिता का यह मॉडल इस लिए भी बेहतर माना जाता है क्योंकि इससे किसानों को कई प्रकार से लाभ मिलता है. यह कुछ इस प्रकार है कि जब किसान अपने किसी उत्पाद को सहकारिता के माध्यम से बेचता है तो उसे बेचने के लिए मंडी नहीं जाना होता क्योंकि सहकारिता किसान के अपने घर अथवा स्थानीय नजदीकी बाजार से उत्पाद क्रय करती है.
सहकारिता जब स्थानीय स्तर पर ही कई सारे किसानों से एक साथ अधिक मात्रा में उत्पाद एकत्रित करती है तो इससे परिवहन व्यय की लागत कम हो जाती है. किसान को किसी बिचौलिये या आढ़ती को कमीसन नहीं देना होता. इससे किसान को बिना अधिक मेहनत के अपने घर के पास ही उत्पाद की अच्छी कीमत मिल जाती है.
स्वायत्त सहकारिता किसान से जो उत्पाद खरीदती है उसकी ग्रेडिंग और पैंकिग कर अच्छी कीमत में मुनाफे के साथ बेचती है. साथ ही उत्पादों की मूल्यवृद्धि भी करते हुये विभिन्न उत्पाद बनाकर बाजार में विपणन करती है. इससे जो मुनाफा होता है. उसमें से सहकारिता के व्यय काट कर बचे मुनाफे को सहकारिता के शेयर धारकों को बांट दिया जाता है. यह शेयर धारक कोई और नहीं बल्की वही किसान होते हैं जो सहकारिता को अपने उत्पाद बेचते हैं. इस प्रकार किसानों को कई प्रकार से लाभ मिलता. किन्तु इस प्रकार की स्वायत्त सहकारिताओं को संचालित करने के लिए किसानों को जागरूक और सहकारिता के प्रति उनकी साझी जवाबदारी को सुनिश्चित करना अति आवश्यक है. इसके लिए स्थानीय युवाओं को संगठित होना होगा.
मुझे लगता है हम सभी को अपनी चेतना पटल पर जीम काई को साफ करने की आवश्यता है. ताकि हम कुछ विवेकपूर्ण नीतियों का निर्माण कराने में अपना योगदान देकर इस पर्वतीय राज्य की रीड़ पर्वतीय कृषि को पुनः समृद्ध और किसानों के लिए उपयोगी बना सकेंगे.
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
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यह लेख हमें पंकज सिंह बिष्ट ने भेजा है. नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर में रहने वाले पंकज सिंह बिष्ट उत्तराखण्ड में जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर लेखन करते हैं. पंकज अलख स्वायत्त सहकारिता के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं.
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