पर्यावरण

53 साल पहले बादल फटने की घटना का आँखों देखा हाल

बरसात के मौसम के शुरू होते ही पहाड़ी प्रदेशों में बादल फटने की घटनाओं की खबर समाचार पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन या डिजिटल माध्यम से पढ़ने, सुनने तथा देखने को मिलती रहती हैं. इस तरह की घटनाओं के बाबत आम से ख़ास लोग अपने-अपने अनुमान के अनुसार व्याख्या देते रहते हैं, च्यूंकि ऐसी घटनाएं ज्यादातर रात में घटित होती हैं. बहुत कम दिन में भी घटित होती है. ऐसी घटनाओं में बारिश का कम या ज्यादा होना नितांत आवश्यक है. अतः जमीन का गीला रहना भी जरूरी है.
(53 year ago Cloud Burst)

लेह, मालपा और केदारनाथ 2013 कुछ प्रमुख बादल फटने की घटनाएं हैं. इस तरह की घटनाओं के पीछे की वजह बादलों का आपसी टकराव या संघर्षण होता है, जिससे तड़ित या वज्र पैदा होता है. यही वज्र जब वज्रपात के रूप में किसी पेड़, पशु, मनुष्य, मकान अथवा जंगल में पहाड़ों पर गिरता है, तो जमीन में समाता नहीं है क्योंकि जमीन के ऊपर मिट्टी की हल्की परत होती है जिसके नीचे चट्टान होती है. अतः वह जमीन को चीरता हुई हुआ ढलान की ओर फिसलता चला जाता है.

वज्र या तड़ित की आकर्षण शक्ति से आस-पास की गीली मिटटी, घास-फूस और छोटे-बड़े कंकर-पत्थर उखड कर मलबे के रूप में गतिमान वज्र के पीछे स्वयं ही खिंचे चले जाते हैं. यह मलबा नीचे ढलान की ओर लुढ़कता-लुढ़कता किसी सड़क के रोड रोलर के अगले पहिये का आकार धारण कर लेता है. निरन्तर लुड़कने से उसके आकार में वृद्धि होती रहती है और वह भयंकर रूप धारण कर लेता है. च्यूंकि इसमें मिटटी, घास-पात और छोटे-बड़े पौधों के साथ छोटे-बड़े डांग (बोल्डर) भी सम्मिलित होते रहते हैं, अतः उनमें आपसी टकराव होने से युद्ध के मैदान में असंख्य घोड़ों के इधर-उधर दौड़ने भागने और चीखने-चिल्लाने जैसा शोरगुल उत्पन्न होता है. साथ ही जमीन में कम्पन होता है.

जितना बड़ा मलबे का रोड रोलर होगा, उतनी ही तीव्र गति से व शोर करता हुआ वह ढलान की ओर तब तक गतिमान रहता है, जब तक कि उसके मार्ग में कोई रुकावट या अवरोध नहीं आ जाता, जहां तड़ित या वज्र की शक्ति क्षीण होकर शांत ना हो जाए. ऐसा तब होता है जब वह मिट्टी के अंदर धँस नहीं जाता है या फिर पानी के संपर्क में आकर ठंडा नहीं हो जाता है.

बादल फटने की ऐतिहासिक घटना जो की ठीक 53 साल पहले घटित हुई थी का दृश्य आज भी मेरे दिलो दिमाग में चिरस्मरणीय बनी हुई है. 28 जून, 1973, शुक्रवार (14 गते आषाढ़) सुबह के 6 बजे के आस-पास का समय रहा होगा. मैं जयपुर, राजस्थान से अपने पैतृक गाँव स्यूणी सेंधार गया हुआ था और अपने सगे तथा चचेरे छोटे भाइयों के के साथ चौक में खड़े-खड़े कुछ बतिया रहा था. मेरी विमाता भैंस दुहने पास ही में स्थित गौशाला हुई गयी थी. तभी हमें अचानक जमीन कांपती हुई महसूस हुई और एक अजीब तरह का शोर सुनाई देने लगा. हम सभी भाई पूरब दिशा की ओर भागे जहाँ से शोर सुनाई दे रहा था और एक ऊँची जगह पर रुक गए.
(53 year ago Cloud Burst)

आस–पास दृष्टिपात करने पर लगभग 5-6 किलोमीटर दूर पड़ोसी महर गांव के जंगल की घाटी में एक विशालकाय मटमैले रंग की सड़क के उत्तरार्द्ध की ओर रोलरनुमा आकृति लुढ़कती हुई अबाध गति से उतराई पर गतिमान थी. जैसे-जैसे वह लुढ़कते-लुढ़कते नीचे की ओर बढ़ती जा रही थी उसका शोर और भी तेज होने लगा. इस डरावने शोर को सुनकर मेरी विमाता बगैर भैंस दुहे ही गौशाला से भाग कर पास आ गयी. तब तक वह विशालकाय मटमैले रंग की रोलरनुमा आकृति ठीक हमारी आंखों के सामने पहुँच चुकी थी. वह लगभग 1-1/2 किलोमीटर की दूरी पर एक सूखे बरसाती गधेरे में लुढ़कती हुई गतिमान थी. उसमें पहले से मौजूद छोटे तथा बड़े हाथी समान डांग और बड़े-बड़े पेड़ समा करके एकदम अदृश्य हो रहे थे.

दरअसल यह विशालकाय रोलरनुमा आकृति गीली मिट्टी, घास-फूस, छोटे-बड़े पेड़, पौधे और कंकड़-पत्थरों के आपसी मिश्रण से बना मलबा था, जिसकी ऊंचाई लगभग 3-4 मंजिले मकान के बराबर रही होगी, और फैलाव इतना था की सूखे बरसाती गधेरे के आस-पास के दोनों किनारों के खेतों की दीवार, मिट्टी तथा छोटे-बड़े पत्थरों को बहा कर एक दम से साफ़ कर रही थी.

तभी हमारी नजर रोलरनुमा आकृति से कुछ ही आगे लगभग 200-300 मीटर पर, दो जलती हुई धुआं देती हुई छड़ीनुमा मशालों पर गयी जो गधेरे के बड़े-बड़े डांग (बोल्डरों) को लांघते हुए तीव्र गति से गतिमान थी . वे दोनों आपस में समांतर दूरी बनाये हुए थी और सिर्फ बड़े बोल्डरों को लांघ कर धात्विक आवाज़ कर रही थी. दिन के उजाले की वजह से हमें उन दोनों मशालों के अग्र भाग लाल दिखाई दे रहे थे और वे स्वयं लोहे की छड़ों की आकृति की तरह दिख रही थी.
(53 year ago Cloud Burst)

जहाँ-जहाँ बरसाती सूखा गधेरा टेढ़ा-मेढ़ा होता, वे दोनों मशालें भी उसी तरह अपने गंतव्य की दिशा बदल कर बड़ी ही तीव्र गति से आगे बढ़ रही थी, लेकिन दोनों के बीच की समांतरता बराबर बनी रही. दरअसल वे दोनों जलती हुई लोहे की छड़नुमा मशालें वज्र या तड़ित थी, जो बादलों के आपसी टकराव के कारण आकाश से जंगल में धरती पर पड़ी होंगी. कुछ दूरी तय करने के बाद हमारी नज़र के सामने एक पहाड़ी की रुकावट आ जाने से न केवल जलती हुई मशालें, बल्कि उनके पीछे मलबे से बनी विशालकाय आकृति भी ओझल हो गयी, लेकिन हम लोग भी प्रकृति के इस अजीब नज़ारे को अंत तक देखने के लिए दौड़ लगा कर बरसाती गधेरे के मुहाने तक जा पहुँचे.

वहां जा कर देखते हैं कि वहां बरसाती गधेरा चित्रमती नामक बारामासी गाड़ में मिल रहा था, जो की हमारी पट्टी बच्छणस्यूं के मध्य में काफी दूरी से निकलकर अंत में अलकनंदा में मिलती है. इसमें हमेशा काफी पानी बहता रहता है. उसमें सुदूर जंगल की पहाड़ी पर हुए वज्रपात से घाटी में जो भी मलबा रोड रोलर के रूप में लुढ़कता हुआ आ रहा था, समा गया और वहाँ एक विशाल मैदान में परिवर्तित हो गया था. इस वजह से चित्रमती गाड़ का पानी बहना बंद हो गया.

चित्रमती गाड़ के दूसरे किनारे की तरफ़ हाल ही में धान से रोपित बड़े- बड़े सेरे थे. पानी का बहाव रुकने से वहाँ पहले एक तालाब बना जो फिर धीरे धीरे एक बड़ी झील में तब्दील हो गया. हम सब भाई कुछ देर तक वहां खड़े रहे. वहां हमारे साथ गांव के एक सयाने बुजुर्ग श्री केसर सिंह दादाजी भी शामिल हो गए थे और वे कुछ देर तक कृत्रिम झील बनने का नजारा देखते रहे.

झील का फैलाव तथा गहराई लगातार बढ़ रही थी. इस बीच झील से पानी की पतली सी धारा झील की दूसरी ओर के खेतों की तरफ बढ़ना शुरू हुई और देखते ही देखते झील का सारा पानी बड़े ही वेग से खेतों की मिट्टी को बहा कर ले गया और फिर झील खाली हो गयी. ऊपरी सिरे से निचले सिरे तक जितने भी रोपित खेत थे सभी पानी की भेंट चढ़ गए थे. हाँ, कुछ के किनारे जरूर बच गए थे. उनके ऊपर छोटे खेत भी रोपित थे जो बच गए थे. वे आज भी मौजूद हैं लेकिन बंजर पड़े हैं.
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मुझे पता नहीं की तब उत्तर प्रदेश सरकार ने फसल तथा खेतों के नुकसान की भरपाई की थी या नहीं, न ही मैंने किसी समाचार पत्र या रेडियो में इस घटना के बाबत कोई खबर सुनी. हाँ सुदूर गांव नगरकोट के सेठ कृपाल सिंह का कांडई गांव के पं. पुष्पानंद शास्त्री के खेतों के बहने के ऊपर किये गये कटाक्ष की खबर जरूर सुनने को मिली थी.

पाठकगण अवश्य ही जिज्ञासु होंगे की हमारी दृष्टि से ओझल हुए उन दो जलती मशालों (तड़ित) का क्या हुआ होगा. मेरा अपना अनुमान है कि जैसे ही उनका संपर्क चित्रमती गाड़ के पानी से हुआ होगा तो वे दोनों पानी के प्रभाव से बुझ कर शांत हो गई होंगी, लेकिन जैसा की मैंने पहले ही बताया था कि वे दोनों बड़ी ही तीव्र गति से सिर्फ बड़े-बड़े डांगों के ऊपर छलांग लगाकर उन्हें पार करती हुई आगे बढ़ रही थी और उनके पीछे एक बहुत बड़े मलबे (मिट्टी के टीलेनुमा रोलर) का पथप्रदर्शन कर रही थी. अतः उन दोनों ने चित्रमती गाड़ के डांगों को भी छलांग लगाकर गाड़ को बिना पानी के संपर्क में आ कर पार किया होगा. लेकिन मान भी लें कि गाड़ में पानी होने के बावजूद वे सक्रिय और गतिमान रही होंगी तो गाड पार करने के बाद दूसरी ओर के खेतों की मिट्टी में धंस कर निष्क्रिय हो गयी होंगी. वज्रपात की वजह से सुदूर पहाड़ी से लाया गया मलबा पहले ही चित्रमती गाड़ में समा चुका था.
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डॉ. प्रेम सिंह रावत

रुद्रपुर हल्द्वानी के रहने वाले डॉ. प्रेम सिंह रावत ने यह लेख हमें काफल ट्री की ईमेल आईडी पर भेजा है. डॉ. प्रेम सिंह रावत से dr.psrawat47@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

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