‘जिस मकान पर आपके बेटे ने ही सही, बडे़ फख्र से ‘बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ की तख़्ती टांग दी थी, उसमें देवकी पर्वतीया का खून-पसीना लगा है. यह नाम कभी आपने ही उन्हें दिया था लेकिन नेम प्लेट पर अपने नाम के साथ इसे भी शोभायमान करना आप भूले ही रहे (पृष्ठ-41).’’
(Ye Chirag Jal Rahe Hain Book)
‘ये चिराग जल रहे हैं’ किताब में उक्त पक्तियां नवीन जोशी जी ने बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी के लिए लिखी हैं. पर ये उन सब सार्वजनिक ‘चिरागों’ पर हू-ब-हू लागू होती हैं जो अब हमारे जीवन में नहीं हैं एवम् उन पर भी जो हमारे आस-पास मौजूद हैं और जिनके आभा-मंडल से हम गदगद होते रहते हैं. पर कभी ख्याल किया कि उन चिरागों की सीधी और तीखी तपिश को जीवन-भर झेलने वाले उनके परिजन हमारे चिन्तन में कितनी जगह पाते हैं? चिरागों की रोशनी कायम रहे, इसके लिए दिन-रात खपने वाले उनके परिजनों के विकट जीवन संघर्षों का वास्तविक हितेषी और प्रचारक सामान्यतया कोई नहीं होता है. शुभचिन्तकों और प्रशंसकों के भी संबंध उनसे ‘चिराग’ के जीवंत चिरआयु तक ही रहते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार नवीन जोशी ने ‘ये चिराग जल रहे हैं’ किताब में 12 व्यक्तित्वों के साथ अपने संस्मरण साझा किये हैं. उनके ये जीवन स्मृति-चित्र रोचक कथाओं के रूप में पाठकों तक पहुंचे हैं. यह पुस्तक ‘दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र और समय साक्ष्य, देहरादून के सौजन्य से अभी हाल में प्रकाशित हुई है. वर्ष-2007 में स्थापित दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द, देहरादून का यह 40वां प्रकाशन है. हिमालय विशेषकर उत्तराखण्ड के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और आर्थिक आयामों पर दून पुस्तकालय के प्रकाशन महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य के रूप में लोकप्रिय हैं.
नवीन जोशी लखनऊ में रहते हैं. लेकिन, उत्तराखण्ड की ‘नराई’ उनकी कमजोरी रही है. दून पुस्तकालय से पूर्व में प्रकाशित उनकी चर्चित पुस्तक ‘लखनऊ का उत्तराखण्ड’ ने बखूबी बताया कि एक जीता-जागता उत्तराखण्ड उनके मन-मस्तिष्क में हर समय कुलबुलाता रहता है. नवीन जोशी के लोकप्रिय उपन्यास ‘दावानल’ और ‘टिकटशुदा रुक़्क़ा’ की धड़कन उत्तराखण्ड की वादियों और वासियों की ही है. इसी क्रम में, ‘ये चिराग जल रहे हैं’ किताब में शामिल संस्मरणों का संबंध भी उत्तराखण्डी जन और जीवन से है.
किताब में शामिल संस्मरणों की कथा में व्यथा का आकार और गहनता ज्यादा है. यूं कहें कि, व्यक्तित्वों की जीवन व्यथाओं ने जीवंत कथाओं का रूप ले लिया है. लेखक ने इन व्यक्तित्वों को अपने युवाकाल से देखा और उनके साथ रहा भर नहीं वरन उनसे हर समय जीवन की गूढ़ता समझता और सीखता ही रहा है. और, उनसे सीखने की इस अप्रत्यक्ष प्रक्रिया में वे व्यक्तित्व उसके अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बन गए हैं. नवीन जोशी ने अपनी जीवनीय स्मृति में चिराग की तरह रोशन इन व्यक्तित्वों के बारे में स्वीकारा कि ‘‘जीवन में कुछ ऐसे लोगों से मुलाकात हुई, ऐसे रिश्ते बने, जिससे जीवन की दिशा बदल गयी. लोग मिलते गये और दुनिया को देखने-समझने की राह दिखाते गये. वे नहीं मिलते तो जीवन कैसा होता !’’
‘अचल’ वाले जीवन चंद्र जोशी से संस्मरणों की कथा-व्यथा शुरू होती है. अल्मोड़ा-नैनीताल से प्रकाशित कुमाऊंनी बोली की पहली पत्रिका ‘अचल’ (जनवरी 1938 से फरवरी 1940) की परिकल्पना और उसके पहले संपादक जीवन चंद्र जोशी थे. कुमाऊंनी समाज द्वारा दुधबोली के प्रति उनके काम को आगे बढ़ाना तो दूर उसको सहेजने की कोशिश भी न हो सकी. उपेक्षा की छटपटाहट लिए ही ‘अचल’ दुनिया से विदा हुए.
जीवन चंद्र जोशी की परम्परा को आगे बढ़ाने में कुमाऊंनी के अप्रतिम सेवक बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासू’ जरूर आगे आये. पर जोशी जी की जैसी मातृबोली के प्रति बैचेनी ही उनके हिस्से आयी. आकाशवाणी से जुड़े बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासू’ और जीत जरधारी की उत्तरायण कार्यक्रम के भुला शिवानन्द और दद्दा वीर सिंह की जोड़ी कमाल की थी. साठ के दशक में आकाशवाणी से शुरू गढ़वाली एवं कुमाऊंनी के लिए एक कार्यक्रम से बढ़कर संपूर्ण उत्तराखण्डी समाज का जीवंत आईना था. एक प्राथमिक विद्यालय की तरह उसने गढ़वाली एवं कुमाऊंनी की शिक्षा-दीक्षा हमारी पीढ़ी को दी थी. ‘जिज्ञासू’ और जीत जड़धारी उसके कुशल अध्यापक रहे.
संस्मरणों में एक निराला व्यक्तित्व है केशव अनुरागी का. अद्भुत कलाकार, ढोल सागर के ज्ञाता. ढोल सागर पर लिखी उनकी किताब ‘नाद नंदिनी’ की भूमिका कुमार गंधर्व ने लिखी थी. अनुरागी जी को ‘सल्लाम वाले कुम’ स्मरण करते हुए किताब में उनकी प्रतिभा की एक बानगी देखिए ‘‘और, जब वे गाते तो गज़ब होती थी उनकी तान, आरोह-अवरोह. क्या गला था उनका ! जब वे सुनाते- ‘रिद्धि को सुमिरूं, सिद्ध को सुमिरों, सुमिरों शारदा माई’ तो हवा थम जाती और उसमें अनुरागी जी के स्वरों की विविध लहरियां उठने-गिरने लगतीं. बायां हाथ कान में लगा कर वे दाहिने हाथ को दूर कहीं अंतरिक्ष की तरफ खींचते और चढ़ती तान के साथ खुली हथेली से चक्का-सा चलाते, गोया निर्वात में पेण्टिग बना रहे हों. मंद्र सप्तक से स्वर उठा कर जाने कब वे तार सप्तक जा पहुंचते और वहां कुछ देर विचरण करने के बाद कब वापस मंद्र तक आ जाते, पता ही नहीं चलता था. तब वे अपने ढोल के भीतर होते थे और बाकी दुनिया बाहर (पृष्ठ- 54).’’
जीवन में मिले अभावों और उपेक्षाओं से तराशे गए व्यक्तित्व थे नंदकुमार उप्रेती. उनके बारे में नवीन जोशी ने सटीक शीर्षक लिखा कि ‘दुःखों की पोटली पर बैठ खितखिताते-नंदकुमार उप्रेती.’ जीवन में मिले इंतहा दुःखों से मौज-मस्ती करना उनके ही वश की बात थी. ‘हर फिक्र को धुयें में उड़ाता चला गया’ देवानंद ने तो बस फिल्म में गाया भर था, लेकिन, नंदकुमार उप्रेती ने सचमुच में ऐसा जी कर दिखाया था. विराट हृदय के मालिक और गज़ब के किस्सागो थे वे. जो उनको नहीं जानते उन्हें उनके बारे में पढ़ कर विश्वास करना कठिन है. और, जो उन्हें जानते रहे होगें वे इस संस्मरण को पढ़कर जानगें कि वे कितना कम जानते थे नंदकुमार उप्रेती को. एक प्रसंग आपकी नजर-
‘‘…उप्रेती के बारे में मौलाना की धारणा थी कि वह महान हैं, मेघावी हैं, जीनियस हैं. इसलिए एक दिन उनसे कहने लगे भई, तुम अपने को अभी तक जान नहीं पाये.
-इसीलिए तो अब तक जिन्दा हूं. – उप्रेती ने उत्तर दिया था.
-क्या कह रहे हो? मौलाना किंचित आश्चर्यचकित होते हुए बोले थे.
-यही कि इस युग का कोई भी व्यक्ति अपने को नहीं जानता, सिर्फ दूसरों को जानता है. अगर कहीं अपने को जान ले तो लज्जा, ग्लानि, अनुताप और घृणा से घुट-घुट कर वह मर जायेगा (पृष्ठ-62).’’
(Ye Chirag Jal Rahe Hain Book)
कुमाऊंनी होली हो और ‘बुरुंशी का फूलों को कुमकुम मारो’ वाले चारुचंद्र पाण्डे का जिक्र न हो, हो ही नहीं सकता. कवि, लेखक और संगीत मर्मज्ञ चारुचंद्र पाण्डे से जुड़े संस्मरण में नवीन जोशी लिखते हैं कि ‘‘गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा’ की रचनाओं पर उनकी महत्वपूर्ण किताब ‘गौर्दा का काव्य दर्शन ’ जिज्ञासु जी ने मुझे पढ़ने को दी थी. ‘उत्तरायण’ में सुनी उनकी कविताएं बहुत प्रभावित करती थीं. इस किताब ने मुझे उनका दीवाना बना दिया था. उसी से मैंने समझा कि अपनी बोलियों में कितनी जबर्दस्त सम्प्रेषण क्षमता होती है और उनका जनमानस पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है. चारुचंद्र जी ने जिस तरह ‘गौर्दा’ की कविताओं की व्याख्या की है, वह उस बड़े कवि को समझने-समझाने और व्यापक समाज के सामने लाने का महती कार्य है (पृष्ठ-72).’’
संस्मरणों में एक विशिष्ट किरदार थे जोहारदा. नवीन जोशी के पैतृक गांव रैंतोली के बगल आमड़ गांव के थे, जोहारदा. जोहारदा एक ‘टिकटशुदा रुक़्क़ा’ से बंधे होने के कारण उनके खेतों में हल चलाते थे.
‘‘द, ठीक ठैरे. यही करना ठैरा हमने. उसने हल की मूंठ फिर सम्भाली…
मैंने तत्काल टोका-‘रुक जा, जोहारदा, तुम्हारी फोटो खींचता हूं. तुम ऐसे ही बैलों को हांकते हुए खड़े रहो.’
तब उसने कहा था – ‘द, शैपो मेरी फोटो क्या उतारते हो, इन भिदड़ों की.’’
अपने को भदेड़ मानने वाले जोहारदा अब जीवित नहीं हैं परन्तु नवीन जोशी की नजर जब भी उस रुक्क़े पर पड़ती है तो वे अपराधग्रस्त होकर, क्षमा मांगते हैं. उनका ‘टिकटशुदा रुक़्क़ा’ उपन्यास जोहारदा पर ही है. वे फिर गलती कर जाते हैं जोहारदा की स्मृति को इस उपन्यास को समर्पित न करके. हकीकत यही है कि हमें जोहारदा जैसे लोगों के प्रति अपनी गलती का अहसास होता तो है, पर वक्त निकलने के बाद.
मोहनीदी से जबरन बनी माता महेश गिरि और पहाड़ से लखनऊ पहुंची एक अन्य युवा मोहिनी का जिन्दगी से संघर्ष हमारे आस-पास की ही कहानी है. मानवीय समाज का यह क्रुरू चेहरा अक्सर यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता है. ऐसी कितने ही मोहनियों को देखकर हम अंचभित नहीं होते हैं. उनके प्रति हमारा व्यवहार तटस्थ और सहज रहता है. क्योंकि, उनके अंदर की कहानी से हम मतलब नहीं रखते हैं. नवीन जोशी के ये दो संस्मरण पुरुषों के महिलाओं के प्रति अपने मन-मस्तिष्क में पोषित वर्चस्व की भावना और वासना का द्योतक हैं.
जनकवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ वाले संस्मरण और उसकी अधूरी प्रेम कहानी गज़ब की है. नवीन जोशी ने ‘गिर्दा’ के साथ के संस्मरणों में बहुत आत्मीयता से रहस्य और रोमांच बनाये रखा है. ‘गिर्दा’ का इतना पारदर्शी व्यक्तित्व था कि छुपाने को उनके पास कुछ भी नहीं रहता. परन्तु ‘नब्बू’ और ‘गिर्दा’ की जिगरी दोस्ती के कई किस्से ऐसा भी कहते हैं कि ‘अच्छा, ऐसा हुआ होगा क्या?’ ये बात तय है कि आदमी की जिन्दगी के कई किस्से, रहस्य, दुःख-सुख की बातें बिना दुनिया को पता चले उसी के साथ गुमनामी में ही खत्म हो जाती हैं. ‘गिर्दा’ कोई अलग से थोड़ी था, ऐसा ही उसके साथ भी हुआ होगा.
(Ye Chirag Jal Rahe Hain Book)
किताब का आखिरी संस्मरण नवीन जोशी ने अपने बाबू (पिता) हरीदत्त जोशी जी को याद करते हुए लिखा है. बाबू के पैतृक गांव रैंतोली में नीबूं और पत्रकारपुरम, लखनऊ में जामुन और नीम लगाये पेड़ उनकी स्मृतियों को तरोताजा करती हैं. ये पेड़ पिता की छांव और फलों की सौगात बनकर हवा में लहराते हैं तो उन्हें जरूर लगता होगा पिता कहीं आस-पास ही हैं.
किताब में शामिल व्यक्तित्वों को नवीन जोशी ने अपनी निजी नज़र की सीमा में ही बांध कर लिखा है. ये सारे व्यक्तित्व लेखक के बहुत अपने थे, इस कारण निज़िता का बार-बार जिक्र आना स्वाभाविक है. यह सच है कि जो हमारे जीवन के बहुत पास होते हैं उनको समग्र और सामाजिक दृष्टि से देखना कठिन हो जाता है. इस कारण किताब में उपस्थित व्यक्तित्वों के कई अन्य महत्वपूर्ण पक्ष आ नहीं पाये हैं.
नवीन जोशी कथा शिल्प के धनी हैं. उनका लेखन पहाड़ीपन के प्रभाव और प्रवाह की रौ में कळकळी लिए रहता है. यही कारण है कि उनके इन संस्मरणों को पढ़ते हुए मैं यादों की याद में लखनऊ पहुंचता रहा हूं. किताब में आकाशवाणी, बर्लिंगटन चौराहा, कालीबाड़ी, कैनाल काॅलोनी, हुसैनगंज, खुर्रमनगर, महानगर, पत्रकारपुरम, इन्दिानगर, अलीगंज का जिक्र मेरे लिए जगह के नाम नहीं अतीत के हिस्से और किस्से हैं. जो बार-बार मेरी यादों को मलाशने का नया आनंद, स्वाद और रोमांच देते रहे हैं.
‘ये चिराग जल रहे हैं’ किताब के व्यक्तित्व हम मित्रों के आदर्श और प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं. इस किताब से उनको और पास से जाना और समझा. इसके लिए बड़े भाई नवीन जोशी जी, दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र और समय साक्ष्य टीम को बधाई और शुभकामना. यह सिलसिला जारी रहे.
(Ye Chirag Jal Rahe Hain Book)
– डॉ. अरुण कुकसाल
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वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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